अगर आप यह देखना चाहते हैं कि हमारे और आने वाली पीढिय़ों के लिए मायने रखने वाले कुछ मुद्दों को लेकर आज किस तरह की बहस चल रही है तो मेरे साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस चलिए। राव तुला राम मार्ग के उत्तर पश्चिमी किनारे पर मशहूर स्प्रिंगडेल्स स्कूल के करीब स्थित इस जगह तक पहुंच पाना खासा मुश्किल है। तीसरे चरण की मेट्रो परियोजना के लिए सड़कें खुदी हुई हैं। अगर आप रिंग रोड की ओर से आएंगे तो आपको करीब एक किलोमीटर पैदल चलना होगा। आपका सामना कूड़े के ढेरों से भी होगा। यह परिसर काफी सुंदर, शांत और हराभरा है। यहां की जैव प्रौद्योगिकी प्रयोगशाला संभवत: देश की सबसे अहम शोध प्रयोगशालाओं में से एक है।
यह एक छोटी सी प्रयोगशाला है। इमारत के एक तल की एक शाखा में करीब 10,000 वर्ग फीट इलाके में दो दर्जन शोधकर्ता रहते हैं। इनकी उम्र 22 से 65 के बीच होगी। ये सभी उस प्रौद्योगिकी पर काम करते हैं जिसे लेकर भय का माहौल बनाया गया है यानी जीन संवद्र्धित फसलें। इसकी अध्यक्षता करने वाले शोधकर्ता प्रोफेसर दीपक पेंटल जोर देकर कहते हैं कि जीन संवद्र्धित या जेनेटिकली मोडिफाइड शब्द अपने आप में भ्रामक है। वह इसके लिए जेनेटिकली इंजीनियर्ड शब्द का प्रयोग करते हैं। बहरहाल, तमाम विसंगत लोकप्रिय चर्चाओं के बीच उनके और पांच अन्य शीर्ष शोधकर्ताओं के लिए खुशी का मौका तब आया जब जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने उनकी 32 साल की मेहनत को स्वीकृति देते हुए जेनेटिकली इंजीनियर्ड (अथवा मोडिफाइड) सरसों को सभी मानकों पर खरा करार दिया।
प्रो. पेंटल कहते हैं कि यह बीज 2002 से ही तैयार है। उसके बाद विज्ञान को शंका की दृष्टि से देखने वालों के साथ एक अंतहीन लड़ाई लडऩी पड़ी। वह हमारा ध्यान 4,000 पृष्ठ की एक रिपोर्ट की ओर आकृष्ट करते हैं जिसमें इसके सभी मानकों पर सुरक्षित होने के प्रमाण देते हुए इसे जीईएसी के समक्ष पेश किया गया। वह मुझे याद दिलाते हैं कि कैसे उन पर साहित्यिक चोरी तक का इल्जाम लगाया गया। देश में जीएम फसलों का मसला राजनीतिक और सहानुभूति से जुड़ गया है। इसे लेकर जांचे परखे तथ्य भी पूरी तरह काल्पनिक और असत्य भय के शिकार हो जाते हैं। यह वह डर है जिस पर वाम और दक्षिण दोनों एक हैं। ग्रीनपीस से लेकर स्वदेशी अभियान तक सब एकमत हैं।
सबसे प्रमुख है विदेशी का डर। इस डर के पीछे यह आशंका है कि ये फसलें दुष्ट विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विकसित की गई हैं। इनके पास संबंधित तकनीक और जीन का एकाधिकार है और इनकी बदौलत वे कीमतों, उत्पादन और आपूर्ति आदि पर अपना नियंत्रण रखेंगी। इसके चलते गरीब देशों के किसान उनके दास बन जाएंगे। परंतु यह सरसों पूरी तरह देश की सरकारी शोध प्रयोगशाला में विकसित की गई है। इससे जुड़ी संस्थाओं में स्वर्गीय डॉ. वर्गीज कुरियन का नैशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड भी शामिल है। इस संस्थान ने राजीव गांधी के राष्ट्रीय तिलहन अभियान में भी अभिरुचि दिखाई थी। हमारे देश में खाद्य तेल की हमेशा से कमी रही है और हम भारी पैमाने पर इसका आयात करते हैं। देश के तिलहन उत्पादन में सरसों का तीसरा स्थान है। सन 1987 में जब राजीव गांधी ने प्रो.पेंटल जैसे युवा शोधकर्ता के नेतृत्व में एक ऐसी शोध योजना की फंडिंग आरंभ की तो अन्य लाभों के अलावा उत्पादन में 25-30 प्रतिशत का इजाफा अपने आप में एक स्वप्न सदृश्य बात थी। (स्पष्टीकरण: प्रो. पेंटल और मैं दोनों पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के छात्र रहे हैं। हम एक ही छात्रावास में रहे भी हालांकि वह मुझसे कुछ वर्ष सीनियर हैं।)
प्रो. पेंटल एक पादप विज्ञानी हैं। उन्होंने रटगर्स विश्वविद्यालय से पीएचडी की और वह पोलैंड में शोध और शिक्षण के दौरान सरसों के प्यार में पड़ गए। उन्होंने पोलैंड की एक सरसों किस्म को भारतीय किस्म के साथ संकर करने पर काम किया। सामान्य तरीके से यह लगभग असंभव था। दरअसल सरसों के पौधे में नर और मादा हिस्से दोनों एक साथ होते हैं। उसमें बाहरी छेड़छाड़ मुमकिन नहीं। उन्होंने सोचा कि वह पौधे के नर हिस्से को पूरी तरह दबा देंगे और तब उसके मादा हिस्से को अन्य किस्म से मिला देंगे। उस वक्त जेनेटिक इंजीनियरिंग नई चीज थी। प्रो. पेंटल और उनकी टीम में शामिल दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इसे चुनौती की तरह लिया। उन्होंने सरसों की देसी किस्म में तीन जीन बर्नेस, बरस्तर और बार मिलाने पर काम किया। इनमें से पहले दो जीन मिट्टी के सामान्य बैक्टीरिया से लिए गए हैं जबकि तीसरा स्टे्रप्टोमीसस बैक्टीरिया है। ये तीनों पूरी तरह हानिरहित हैं। यूं भी सरसों में 85,000 से अधिक जीन होते हैं।
शोधकर्ताओं का यह समूह एक साथ युवावस्था से बुजुर्ग हो चला। इन्होंने एक साथ मिलकर 40 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित किए। दर्जनों युवाओं ने इनके अधीन पीएचडी की। अब यह नया सरसों का बीज हमारे सामने है। इनमें से प्रत्येक ने तमाम बड़े आकर्षणों को ठुकराकर काम किया। किसी को निजी क्षेत्र में नौकरी मिल रही थी तो किसी के लिए विदेशी विश्वविद्यालय से पेशकश थी। प्रो. पेंटल दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने लेकिन उन्होंने कभी अपनी प्रयोगशाला नहीं छोड़ी। बाद में वह पूर्णकालिक रूप से यहां लौट आए। हम दशकों से देसी विज्ञान के पराभव का शोक मानते आए हैं। हम प्रतिभा पलायन, अहम उत्पादों के लिए अन्य देशों पर निर्भरता को लेकर दुखी होते हैं। प्रो. पेंटल कहते हैं कि एक बड़ी समस्या यह है कि हमारे वैज्ञानिक कोई शीर्ष रोजगार मिलने के बाद शोध कार्य बंद कर देते हैं। या फिर विज्ञान क्षेत्र के नौकरशाह, कुलपति, निदेश आदि बन जाते हैं। उनको लोकसेवा आयोग की सदस्यता की पेशकश की गई थी। लेकिन उन्होंने उसे ठुकराकर अपना जीवन अपनी प्रिय सरसों को दे दिया। एक शीर्ष वैज्ञानिक यह कह रहा है कि प्रधानमंत्री का यह दावा गलत नहीं है कि छह साल में किसानों की आय दोगुनी की जा सकती है। बल्कि इसे तीन गुना और चार गुना भी किया जा सकता है लेकिन उसके लिए विज्ञान का पोषण करना होगा।
क्या ये वैज्ञानिक इस सरसों को खुद खाना पसंद करेंगे और अपने बच्चों को भी खिलाएंगे? वे तो मंजूरी मिलने पर इसके लिए तैयार हैं। विषाक्तता और एलर्जी से संबंधित परीक्षणों के नतीजे भी अनुकूल रहे हैं। सबसे पहले कनाडा ने वर्ष 1996 में सरसों की संवद्र्धित किस्म कनोला को जीएम फसल के रूप में स्वीकृति दी थी। भारत भी हर साल करीब तीन लाख टन कनोला का आयात करता है और उससे किसी को शिकायत नहीं है। हमारे खाद्य तेल और वनस्पति तेल में इस्तेमाल होने वाला सोयाबीन तेल करीब 30 लाख टन की मात्रा में आयात किया जाता है जो पूरी तरह जीन-संवद्र्धित होता है। हम कपास के बीज से निकलने वाले बिनौला तेल का भी धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि आजकल अधिकांश कपास जीएम किस्म की ही है। अमेरिका, कनाडा, लैटिन अमेरिका, लगभग समूचे अफ्रीका और चीन ने फसलों की जेनेटिक इंजीनियरिंग को मंजूरी दी हुई है। अगर अब भी हम खुद को यूरोप की तरह बचाकर रखना चाहते हैं तो हमें ध्यान रखना होगा कि हमारे खानपान में पहले ही बहुत ज्यादा जीएम उत्पाद शामिल हो चुके हैं। अगर अंडों और मुर्गों का जिक्र करें तो उनके चारे के रूप में भी जीएम मक्के का ही इस्तेमाल होता है। इतना कुछ जानने के बाद भी हम बेवकूफ बने रह सकते हैं। हम एक संप्रभु देश हैं और हमारा मौजूदा विमर्श तकनीकी प्रगति और विज्ञान का विरोध करने वाला, सुस्त और तथ्यों से बेपरवाह है। हमारे पड़ोसी चीन ने दुनिया की तीसरी बड़ी जीएम कंपनी सिनजेंटा को खरीदने के लिए करीब 2.9 लाख करोड़ रुपये की बोली लगाई है। प्रो. पेंटल बताते हैं कि बड़ी जीएम कंपनियां सरकारी प्रयोगशाला में केवल 50 करोड़ रुपये की लागत से विकसित उनकी सरसों को भी खरीदना चाहती हैं।