करीब एक दशक से यह बात सच लगती आई है कि अतीत की अपेक्षा आज भारत बाहर और भीतर से अधिक सुरक्षित है। यह कहना जल्दबाजी होगी कि अब ऐसा नहीं रहा। लेकिन नए जोखिमों को नहीं पहचानना भी लापरवाही ही होगी। नियंत्रण रेखा पर कई महीनों से चल रहे तनाव के बाद बावजूद बाहरी मोर्चे पर सब कुछ पहले जैसा ही है। लेकिन आंतरिक स्थिति बिगड़ गई है। नरेंद्र मोदी सरकार का आधा कार्यकाल बीतने के बाद आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर उसका प्रदर्शन मामूली ही कहलाएगा।
2014 की गर्मियों में सत्ता संभालते वक्त सरकार को लगभग स्थिर आंतरिक सुरक्षा का माहौल विरासत में मिला था। कश्मीर खामोश था और पूर्वोत्तर को सुर्खियों में जगह नहीं मिलती थी। उस वक्त परेशानी मध्य-पूर्व के आदिवासी भारत में यानी माओवादी क्षेत्र में थी, जिसे नॉर्थ ब्लॉक वाम उग्रवाद से ग्रस्त क्षेत्र कहना पसंद करता है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के मुखिया डॉ. मनमोहन सिंह सशस्त्र माओवादियों को भारत का सबसे बड़ा सुरक्षा संबंधी खतरा बताया था, जो सही भी था, लेकिन उनकी सरकार ने इससे निपटने में बड़ा विरोधाभासी रुख अपनाया। पुलिस और केंद्रीय बलों को बड़ा नुकसान हो रहा था, राजनीतिक वर्ग हत्या के डर में जी रहा था और गैर-कानूनी ‘कर’ की वसूली बेरोकटोक जारी थी। आईएसआई का पुराना खतरा भी मौजूद था, लेकिन 2008 के बाद वह स्थिर ही रहा। गृह राज्य मंत्री किरेन रिजेजू ने मई, 2014 में सबसे पहले वामपंथी उग्रवाद, उसके बाद कश्मीर और फिर पूर्वोत्तर को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया था तो मैं उनसे सहमत होता।
माओवादी क्षेत्र अब काफी शांत है। सुरक्षा बलों को कम से कम क्षति हो रही है और मुठभेड़ों में मौत होने तथा पकड़े जाने एवं बड़ी तादाद में आत्मसर्पण होने के कारण सशस्त्र विद्रोही संगठनों की हालत खस्ता है। राज्य सरकारों का नियंत्रण पहले से अधिक है। खनन गतिविधियों में तेजी अच्छा संकेत है। लेकिन अन्य दोनों खतरे बढ़ गए हैं। अब इनका क्रम बदलकर कश्मीर, पूर्वोत्तर और माओवादी क्षेत्र हो जाना चाहिए और आईएसआई/ आईएम/ आईएसआईएस का आतंकी खतरा तो पहले जैसा मंडरा ही रहा है। करीब एक दशक बाद एक बार फिर कश्मीर सबसे बड़ी समस्या बन गया है तो उसके पीछे आंतरिक और बाहरी दोनों कारण हैं। आंतरिक हालात बिगडऩा चिंता का ज्यादा बड़ा कारण है। पिछले कुछ महीनों में घाटी में संघर्ष ने एक बार फिर 2010-11 जैसा माहौल पैदा कर दिया है। शांतिपूर्ण चुनावों और राजनीतिक प्रक्रिया के पटरी पर आने से जो भी फायदे हुए थे, उनमें से ज्यादातर खटाई में पड़ चुके हैं। एकदम विपरीत विचारधारा वाली पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के गठबंधन से बड़ी उम्मीदें थीं। लेकिन उन पर पानी फिर गया है। यह सच है कि स्थानीय जनता के खिलाफ जंग छेडऩे की मंशा जताने वाला सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत का बयान गुस्से का ही नतीजा था। लेकिन कश्मीर की स्थितियां कुंठा बढ़ा रही हैं।
यहां नियंत्रण रेखा से एकदम अलग स्थिति है। सेना उससे निपटने में पूरी तरह सक्षम है। जंग में माहिर सेना को लड़ाई रास आती है। लेकिन शहरी इलाकों में हल्की-फुल्की लड़ाई करना और गुस्से से भरे हजारों नागरिकों से निपटना एकदम अलग बात है। सेना को इसका अभ्यास नहीं होता। भीड़ के सबसे खतरनाक हथियार पत्थर होते हैं, जबकि सेना के सबसे हल्के हथियार होते हैं स्वचालित राइफल। ‘गैरों’ के साथ सख्ती से निपटने वाली इजरायल की बहादुरी भी ऐसी भीड़ के सामने धरी रह गई है। ऐसे में भारतीय सेना अपने ही देश के लोगों पर सख्ती कैसे दिखा सकती है। राष्टï्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार और जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गठबंधन की बड़ी असफलता यह है कि दोनों ही जनता विशेषकर युवाओं से संवाद नहीं कर पाईं और उनमें भविष्य के प्रति आशा नहीं जगा पाईं। 2002 के पहले की तरह इस बार भी कश्मीर को केवल सुरक्षा संबंधी समस्या माना जा रहा है और उससे निपटने के लिए खुफिया एजेंसियों को नियंत्रण कक्ष में तथा सेना को मोर्चे पर तैनात कर दिया गया है। अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसा नहीं सोचा था और चूंकि नरेंद्र मोदी वाजपेयी की कश्मीर नीति को अपने लिए प्रेरणास्रोत बताते हैं, इसलिए उनका जिम्मा है कि वह स्थिति को सेना के जरिये नहीं बल्कि राजनीतिक और रणनीतिक तरीकों से संभालें। आंतरिक सुरक्षा की स्थिति का संकेत केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के इस्तेमाल से भी मिलता है। अब उनकी संख्या 10 लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है (आम तौर पर सेना में 13 लाख जवान होते हैं) और इस लिहाज से वे दुनिया में पहले नंबर पर हैं। इस समय वे सभी कहीं न कहीं तैनात हैं और न के बराबर बल तैनाती से छूटा है। इसकी एक वजह तो राज्यों में चुनाव भी हैं। लेकिन मार्च के बाद भी स्थिति में बहुत बदलाव आने की संभावना नहीं दिखती।
उसकी एक वजह यह है कि राजनीतिक प्रक्रिया बहाल नहीं हुई तो जाड़े बीतते ही कश्मीर में फिर आंदोलन शुरू हो जाएगा। मगर अभी तक शांत रहा लेकिन अब सिर उठा रहा पूर्वोत्तर भी इसकी वजह है। वहां 80 के दशक के मध्य, जब राजीव गांधी ने मिजोरम में उग्रवादियों और असम में आंदोलनकारियों से समझौते किए थे, के मुकाबले अब अधिक हलचल है। कोढ़ में खाज यह है कि वहां की परेशानी सैन्य कम और राजनीतिक ज्यादा है। मणिपुर में अंतरजातीय अराजकता है और सीएपीएफ की ज्यादा कंपनियां भेजने के अलावा कुछ नहीं किया जा रहा है। अलगाववादियों की कई वर्षों की चुप्पी के कारण इसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी। यह प्रशासन की विफलता ही है कि घाटी बनाम पहाड़ी कबीलों और मणिपुरी बनाम मणिपुरी संघर्ष हो रहे हैं, लेकिन कांग्रेस और भाजपा चुनावी फायदे के लिए तिकड़मों में लगी हैं।
नगालैंड में हालात और भी पेचीदा हैं। सबसे बड़े उग्रवादी गुट के साथ महज एक पृष्ठï के समझौते पर हस्ताक्षर के बाद ही समाधान के दावे होने लगे और शांति प्रक्रिया सुस्त पड़ गई। इससे गुटों के बीच संघर्ष बढऩे लगे। इन सभी गुटों के पास हथियार होते हैं और वे ‘टैक्स’ वसूलते हैं, लेकिन वे केवल एक-दूसरे के लिए ही खतरा होते हैं। मगर उनके अपने इलाके हैं और वे स्थानीय जनता से मिलकर अरुणाचल प्रदेश के एकदम पूर्वी जिलों तक पहुंच गए हैं। ऊपरी असम के तेल वाले संवेदनशील जिलों तक पहुंचने में उन्हें कुछ ही वक्त लगेगा। इसीलिए आंतरिक सुरक्षा की स्थिति बहुत बेहतर हो सकती थी।
अंत में: कश्मीर घाटी में भीड़ की चुनौती और हमारे सेना प्रमुख का आक्रोश देखकर मुझे बूटा सिंह के साथ 1989 में हुई बातचीत याद आती है, जब वह राजीव गांधी सरकार में गृह मंत्री थे। उन्होंने मेरे संपादक अरुण पुरी और मुझे भोजन पर बुलाया था। असल में वह उन घोटालों पर अपना पक्ष रखना चाहते थे, जिनमें शामिल होने का आरोप उन पर और उनके पुत्रों पर लग रहा था।
उन्होंने जॉर्जिया के कद्दावर शख्स और रूस के विदेश मंत्री एदुअर्द शेवर्दनाद्जे के साथ उसी मेज पर हुई अपनी बातचीत का किस्सा सुनाया। शेवर्दनाद्जे अचंभे के साथ पूछ रहे थे कि तिबिलिसी में जब सामने आई भीड़ पर उनकी सेना के जहरीली गैस के हमले भर से जॉर्जिया टूट गया और सोवियत साम्राज्य दरक गया तो भारत इतने भारी-भरकम विरोध आंदोलनों से कैसे निपट लेता है। बूटा सिंह ने जवाब दिया, ‘हम भीड़ के सामने सेना को कभी नहीं भेजते क्योंकि सेना घातक हथियारों के इस्तेमाल के अलावा कर ही क्या सकती है।’ शेवर्दनाद्जे ने पूछा, ‘फिर आप क्या करते हैं?’ तो बूटा सिंह का जवाब था, ‘हमारे पास सीआरपीएफ है। आप कहें तो आपके लोगों को प्रशिक्षण देने के लिए दो पलटनें भेज दूं।’