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Tuesday, November 5, 2024
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खेल जगत में ताकत की तीन कथाएं

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अगर आप संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) की तैयारी करने वाले लोगों में से नहीं हैं तो शायद आप याद नहीं कर पाएं कि भारत ने ओलिंपिक खेलों में हॉकी का ‘वास्तविक’ स्वर्ण पदक कब जीता था। ‘वास्तविक’ इसलिए क्योंकि मॉस्को में सन 1980 में जीता गया स्वर्ण पदक कोई खास मायने नहीं रखता। उस वर्ष अधिकांश चोटी की टीमों ने अफगानिस्तान में सोवियत संघ के आक्रमण के चलते खेल में हिस्सा ही नहीं लिया था।

सन 1972 म्यूनीच में ओलिंपिक में हमें कांस्य पदक मिला था। उसके बाद इकलौती बड़ी जीत हमें सन 1975 में कुआलालंपुर में विश्व कप में जीत के रूप में मिली थी। उसके बाद भारतीय हॉकी का पराभव हुआ और हमें ओलिंपिक, विश्व कप और चैंपियंस ट्रॉफी की अर्हता हासिल करने तक में मुश्किल होने लगी। पहले भारतीय हॉकी महासंघ की बाबूशाही को दोष दिया गया। उसके बाद क्रिकेट पर ठीकरा फोड़ा गया और आखिर में एस्ट्रो टर्फ सामने आई जिसने हॉकी को ऐसा खेल बना दिया जो बारिश से बेअसर था और हर मौसम में खेला जा सकता था। जल्दी ही हमने हॉकी की बात करनी बंद कर दी। हालंाकि आधिकारिक तौर पर यह भारत का राष्ट्रीय खेल बना रहा। पाकिस्तान में भी हॉकी का पराभव हुआ और इस खेल में भारतीय उपमहाद्वीप की बादशाहत खत्म हो गई। यूरोप की घरेलू लीग और राष्ट्रीय टीमें फली फूलीं। भारत और पाकिस्तान को उन्होंने भी अंतर से हराना शुरू किया। हालत इतनी खराब हो गई कि अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ भी चिंतित हो गया। कहा गया कि अगर यह खेल अपने घर में ही खत्म हो गया तो क्या होगा? अब उन्होंने भारतीय हॉकी महासंघ को पैसा देना शुरू किया है। यह भी एक वजह थी कि रिक चाल्र्सवर्थ समेत कई वरिष्ठ हॉकी कोच भारत आए। यह खेल अब पूरी तरह बदल चुका है। हमारा पारंपरिक कौशल यानी ड्रिबलिंग, गेंद पर नियंत्रण, छकाना आदि प्रासंगिक नहीं रह गए। एस्ट्रो टर्फ असल मुद्दा नहीं था। असल मुद्दा था खेल को तेज करने के लिए बदले गए नियम। रेफरी का हस्तक्षेप कम हो गया। ऐसे में फाउल भी काफी कम हो गए।
इन सब चीजों ने भारतीय उपमहाद्वीप के कौशल के लाभ को समाप्त कर दिया। अगर आपने फुटबॉल देखी हो तो आप जानते होंगे कि ऑफ साइड का नियम खत्म कर दिया जाए तो गोल करना कितना आसान होगा। नई हॉकी पूरी तरह अलग थी। एशियाई 5-3-2-1 की जगह अब आक्रामक खेलने वाला खिलाड़ी प्रतिद्वंद्वी के गोल के आसपास मंडराता रहता है। यह काफी कुछ आइस हॉकी की तरह हो गया है। यह यूरोपीय टीमों को रास आया और वहां हॉकी का स्वर्ण युग आरंभ हुआ। सन 1924 में एफआईएच की स्थापना से 2016 में भारत के नरिंदर बत्रा के इसका प्रमुख बनने के पहले तक हमेशा इसका प्रमुख यूरोपीय व्यक्ति ही बनता आया। खेल की तकदीर वहीं से तय होती रही जहां सत्ता थी। एफआइएच ने यूरोपीय टीमों को अपनी घरेलू लीग मार्च से सितंबर के बीच करने की इजाजत दी। नतीजतन भारतीय उपमहाद्वीप की टीमों के पास कहीं दौरा करने का अवसर ही नहीं था। जबकि यहां यह गर्मियों का मौसम है। जाड़ों में टीम के बाहर जाने के कारण घरेलू लीग खत्म हो गई।
पहली कहानी का सबक यह है कि अगर किसी खेल में आपकी महारत है लेकिन आपके पास सत्ता नहीं है तो आप पीछे छूट जाएंगे।  दूसरी कहानी क्रिकेट की है। भारत की तरह पाकिस्तान को भी क्रिकेट अंग्रेजों से क्लब सिस्टम में विरासत में मिली। लेकिन भारत के उलट वहां सरकार ने इस पर नियंत्रण कर लिया। वहां सन 1952 में कानून बनाकर क्रिकेट बोर्ड गठित किया गया।
अयूब खान ने सन 1957 में बोर्ड का पुनर्गठन किया और तीन उपाध्यक्ष नियुक्त किए जिनमें से एक वह स्वयं थे। इस बीच बोर्ड के अध्यक्षों का कार्यकाल पूरी तरह अनिश्चित हो चला। पीसीबी की वेबसाइट में तो ऐसी कोई सूची भी नहीं मिलती। सूची बन भी नहीं सकती क्योंकि बड़ी तादाद में अस्थायी नियुक्तियां जो की गईं। लेकिन गूगल की मदद और पाकिस्तान के दो क्रिकेट जानकारों की मदद से पता लगता है कि सन 1974 में पहले तदर्थ बोर्ड की स्थापना की गई। तब से अब तक एक कार्यरत लेफ्टिनेंट जनरल (मुशर्रफ के अधीन तौकीर जिया), शीर्ष नौकरशाह (शहरयार खान), कई राजनेताओं और अब एक संपादक (नजम सेठी) को बोर्ड चलाने का काम सौंपा गया। जबकि शीर्ष पर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति (जिसका शासन हो) बने रहे।
एक पेशेवर क्रिकेटर को छोड़कर हर किसी ने पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड चलाया। यहां तक कि पाकिस्तानी उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश नसीम हसन शाह तक उसके अध्यक्ष बने। याद कीजिए कैसे शारजाह में भारत पर जीत के बाद उन्होंने पिच पर भांगड़ा किया था। क्या इससे पाकिस्तानी क्रिकेट का कुछ भला हुआ? तमाम प्रतिभाओं से भरा हुआ देश होने के बावजूद पाकिस्तानी क्रिकेट धोखेबाजी,गेंद से छेड़छाड़, टेस्ट खिलाडिय़ों के विदेश में जेल जाने जैसे मामलों के लिए ही सुर्खियों में रहा। इसकी आर्थिक स्थिति बेहद खराब है। पाकिस्तान भारत की तरह कभी अपनी घरेलू लीग तक नहीं विकसित कर पाया।
करीब 15 वर्ष पहले तक जब दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी इंगलैंड की काउंटी क्रिकेट में हिस्सा लेते थे तब पाकिस्तानी प्रतिभाएं वहां निखरीं। काउंटी क्रिकेट के पतन ने पाकिस्तान को करारा झटका दिया। अब भारत दुनिया भर की श्रेष्ठ प्रतिभाओं को अपने यहां आकर्षित कर रहा है। दो सदियों में यह खेल पूरी तरह बदल गया है। हमारी दूसरी कहानी बताती है कि नेक इरादों से किया गया सरकारी या न्यायिक हस्तक्षेप खेल को किस तरह प्रभावित कर सकता है।
तीसरी कहानी बहुत उत्फुल्लित करने वाली है। यह कहानी भारतीय हॉकी के उभार की है। एक नए नेतृत्व ने मृतप्राय खेल को संभाला। एक घरेलू लीग आजमाई गई। कुछ विफलताओं के बाद इसे सफलता हासिल हुई। दुनिया भर के श्रेष्ठ खिलाडिय़ों ने इसमें अपनी किस्मत आजमानी शुरू की और स्टेडियमों में भारी भीड़ जुटने लगी। खासतौर पर रांची जैसे छोटे शहरों में उमड़ी भीड़ ने इस खेल और इससे जुड़ी प्रतिभाओं में नई जान फूंकी।
भारत अब काफी समय से एशियाई की अव्वल हॉकी टीम है। दुनिया में हम शीर्ष छह में हैं और तमाम बड़ी प्रतियोगिताओं में शिरकत करते हैं। बड़ी टीमों के खिलाफ हमारा प्रदर्शन सुधरा है। हालांकि अभी भी हम दुनिया की बड़ी टीमों को नहीं हरा पा रहे हैं। इस बीच भारत ने हॉकी का एक बाजार तैयार किया है और उसे पूरी दुनिया को भेंट किया है। परिणामस्वरूप एक भारतीय इस वर्ष एफआईएच का प्रमुख बना है। यह इस बात का सबक है कि कैसे अपनी वित्तीय ताकत का इस्तेमाल विश्व खेल जगत में किया जा सकता है। यहां पैसा पदकों से ज्यादा बोलता है।
अगर हॉकी की तरह विश्व क्रिकेट में भारत की ताकत गुम हो जाए तो? ऐसा पैसे की कमी या खराब प्रदर्शन के कारण नहीं होगा। बल्कि अगर हुआ तो यह भ्रामक नेहरूवादी नैतिकता के कारण होगा। अच्छा बच्चा बने रहने की जिद के चलते। अगर आईसीसी में नए प्रशासनिक ढांचे वाले भारत की स्थिति 15 में से एक वोट की रह जाए तो। एफआईएच की तरह नियमों से छेड़छाड़ शुरू कर दी जाए तो?
यह मत कहिए कि ऐसा नहीं हो सकता। जब क्रिकेट लॉड्र्स से संचालित होती थी तब सन 1971-72 में भारत के दो शृंखलाएं भर जीत लेने के बाद उन्होंने स्पिन गेंदबाजी पर अंकुश लगाने के लिए लेग साइड में क्षेत्ररक्षकों की तादाद सीमित कर दी। जब वेस्टइंडीज के तेज गेंदबाज आग उगल रहे थे तब बाउंसरों की सीमा तय कर दी गई। तब से अब तक वेस्टइंडीज क्रिकेट उबर नहीं पाई। चूंकि भारत को अपनी ताकत का इस्तेमाल पता है इसलिए ऐसा अब नहीं हो पा रहा। क्या अब हम वह ताकत छोड़कर दोबारा अच्छे बच्चे बनने की राह पर हैं? आपको मुझ पर यकीन नहीं है तो वे दो फरमान पढि़ए जो कमेटी ऑफ एडमिनिस्ट्रेटर्स ने बीसीसीआई को भेजे हैं।

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