वन रैंक वन पेंशन’ को लेकर सारी दलीलें उसी पल खत्म हो जाती हैं, जिस पल आप यह सबसे अहम तथ्य सामने रखते हैं कि सेवानिवृत्त और सेवारत, सारे सैनिकों के साथ जनमत है। हमारी सेनाएं हमारी व्यवस्था में सबसे प्रिय व सबसे सम्मानित संस्थान हैं। यदि आप जनमत संग्रह कराएं और पूछें कि पूर्व सैनिक-अधिकारी जो मांग रहे हैं वह उन्हें देना चाहिए या नहीं, तो इसका उत्तर जबर्दस्त ‘हां’ में मिलेगा। इससे इस मुद्दे का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत और सरकार का विकल्प तय हो जाता है।
अब सरकार के सामने इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि वह समान रैंक, समान पेंशन का वादा पूरा करे फिर इसकी जो भी लागत आए और पूरे सरकारी तंत्र (सिविल सेवा व अर्द्ध-सैनिक बल सहित) के लिए यह कितना ही उथल-पुथल मचाने वाला ही क्यों न हो। अब हिचकना या लागत ज्यादा बताना या कहना कि वादा करने से पहले आप मुद्दों को नहीं समझते थे, ऐसा ही होगा जैसे रेस्तरां में कोई सर्वश्रेष्ठ डिश का ऑर्डर दे और बिल सामने आने पर कहें, ‘अरे, मैंने कीमत तो देखी ही नहीं थी। अब पैसे कैसे चुकाऊं?’ इसका तो एक ही जवाब है कि महाशय, अॉर्डर देने के पहले आपको कीमतें देखनी चाहिए थीं। यदि आपने ना-नुकुर की या डिस्काउंट मांगा तो आपके साथ बहुत रूखा व्यवहार हो सकता है। एनडीए सरकार के साथ ठीक यही हो रहा है। कुछ ही हफ्तों में इसके सबसे मजबूत और धर्मनिरपेक्ष समर्थकों के समूह का इससे मोहभंग हो गया है, वे खफा हैं। दो पूर्व सैन्य अफसरों ने आमरण अनशन शुरू कर दिया है। यदि यूपीए शासन के आठवें वर्ष में ऐसा ही अनशन कर रहे अण्णा हजारे ने उसे हिला दिया था तो यह अनशन ठीक वही हाल एनडीए सरकार का कर सकता है। यह अनशन भी राजधानी के केंद्र में हो रहा है, टीवी के लिए ज्यादा लुभावनी घटना है और जन लोकपाल की तुलना में अत्यधिक लोकप्रिय।
जहां जन लोकपाल का मतलब ज्यादातर लोगों को पता नहीं था, लेकिन इसे आमतौर पर भ्रष्टाचार से जरिया माना गया, वहीं ‘एक रैंक, एक पेंशन’ लागू करने की बारीकियां तो बहुत कम लोग समझते हैं पर इससे भी सरकार को राहत नहीं मिलेगी। न लोग सरकार की चिंताओं व मजबूरियों को समझेंगे। उसकी ओर से सफाई देने का वक्त गुजर चुका है। कागज पर लगेगा कि एक ही रैंक, जैसे नायक या ब्रिगेडियर की रैंक पर रिटायर होने वाले दो अधिकारियों को समान पेंशन के खिलाफ कोई दलील नहीं हो सकती। ऐसा लगता है कि इस पर सरकार सहमत है। किंतु तब क्या होगा जब एक तो सालभर सेवा देने के बाद ब्रिगेडियर के पद से रिटायर होगा और दूसरा पांच साल बाद इसी पद से रिटायर होगा। क्या तब भी उन्हें समान पेंशन मिलेगी? यह असहमति के बिंदुओं में से एक है। पूर्व सैनिकों का कहना है कि किसी रैंक पर सेवा के वर्षों का महत्व नहीं है, जबकि सरकार कहती है कि ऐसा होना चाहिए। सरकार के अनुसार पेंशन सेवानिवृत्ति के समय रैंक, उस रैंक पर सेवा के वर्ष और कुल सैन्य सेवा के आधार पर तय होती है। सही है, लेकिन इसे पहले ही कहना था।
विवाद का दूसरा बिंदु, जैसा मैं समझता हूं, यह है कि मान लें कि रैंक से जुड़ी नई पेंशन तय कर दी जाए और मान लें कि 1 सितंबर को रिटायर होने वाले ब्रिगेडियर या नायक को कोई राशि मिलती है। और फैसले को अमल में लाने के लिए आप पूर्व में समान रैंक पर रिटायर होने वाले सारे लोगों को समान पेंशन के स्तर पर ले आएंगे। आप तब क्या करेंगे जब अन्य लोग उसी रैंक पर आने वाले महीनों व वर्षों में रिटायर होंगे, वे तो लाखों होंगे। क्या आप तब पूर्व में रिटायर होने वालों की पेंशन में उसके अनुसार संशोधन करेंगे और यदि हां तो ऐसा कितने अंतराल बाद होगा? यह दलील भी वाजिब है, लेकिन चुनाव के पहले स्पष्ट शब्दों में वादा किया गया था और सत्ता में आने के 15 माह बाद भी किसी ने ये मुद्दे समझाने की कोशिश नहीं की। सरकार चाहेगी कि आज जो भी समझौता हो, उसके आधार पर पेंशन फिक्सेशन हो जाए और बाद में आने वाले वेतन आयोग भविष्य के पेंशन संशोधन तय करें। पूर्व सैनिकों को यह मंजूर नहीं है। इस वजह से भी मामला जटिल हो गया है कि पूर्व सैनिकों का कोई मजबूत संगठन व स्पष्ट नेतृत्व नहीं है, जो समझौते को मंजूरी दे तो सबको या ज्यादातर को वह मंजूर हो जाए।
अब अगले सबसे महत्वपूर्ण तथ्य की ओर चलें। भाजपा में कोई इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि आम चुनाव के पहले उन्होंने भारतीय सैनिक का जैसा राजनीतिकरण किया, वैसा किसी दल ने पहले कभी नहीं किया। उन्होंने न सिर्फ यूपीए सरकार को कमजोर बताया बल्कि यह भी बताया कि वह सैनिकों के अनुकूल नहीं है। अपने चुनाव अभियान में उन्होंने राष्ट्रवाद को नए सैन्यवाद से जोड़कर इसे और आगे बढ़ाया। भाजपा के चुनाव अभियान का मूल स्वर हमारे इतिहास में सबसे ज्यादा सैन्यवादी और युद्धोन्मादी था। चुनाव के ठीक पहले कई वरिष्ठ और हाल में रिटायर हुए सैनिक भाजपा में शामिल हुए। उसी तरह राष्ट्रीय सुरक्षा संगठनों, खुफिया एजेंसियों (रॉ प्रमुख सहित) से कई शीर्ष पूर्व अधिकारी व केंद्रीय गृह सचिव पार्टी में शामिल हुए। यह ऐसा चुनाव अभियान था, जो राष्ट्रीय सुरक्षा और इस मिथ्या प्रचार पर अाधारित था कि पूर्ववर्ती सरकार ने इसकी उपेक्षा की और सुरक्षा सुनिश्चित करने वालों, खासतौर पर सशस्त्र बलों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। सशस्त्र बलों ने भाजपा को जबर्दस्त समर्थन दिया और पूर्व सैनिक-अफसर पार्टी के सबसे मुखर समर्थक हो गए। किंतु अब जब इन वादों की कीमत चुकाने की नौबत आ गई है तो भाजपा नेता मुकर रहे हैं।
अब उनके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है कि वह इसे किसी नतीजे पर पहुंचाए। अब और वार्ता की जरूरत नहीं है। वे सरकार में हैं। उन्हें तय करना चाहिए कि क्या सबसे अच्छा है और अपने सर्वश्रेष्ठ नागरिकों को क्या देना देश के लिए मुमकिन है। फैसले से कई लोग नाखुश होंगे पर हर वेतन आयोग की सिफारिशों पर भी बहुत से लोग नाखुश होते हैं। इसके बाद सरकार को मीडिया के माध्यम से सैन्य समुदाय को पेंशन के नए नियमों के ब्योरे समझाने चाहिए। साफगोई से बातें न रखना सबसे खतरनाक तरीका है। और याद रखें, देश ने नरेंद्र मोदी को जबर्दस्त समर्थन इसलिए दिया, क्योंकि उन्होंने निर्णायक सरकार का वादा किया था। सोमवार को संयुक्त अरब अमीरात में मोदी ने शिकायत की कि उन्हें विरासत में आलसी, सुस्त, अनिर्णय में पड़ी व्यवस्था मिली और वे इसे बदलने वाले हैं। उन्हें ‘वन रैंक, वन पेंशन’ पर फैसले से शुरुआत कर नतीजों का सामना करना चाहिए। अब देरी हुई तो सेवारत सैनिकों में भी नाराजगी फैल जाएगी।