शीर्ष राजनयिकों और परिंदों में क्या रिश्ता होता है? पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी की 851 पृष्ठों की किताब ‘नीदर अ हॉक नॉर अ डव: ऐन इनसाइडर्स अकाउंट ऑफ पाकिस्तान्स फॉरेन पॉलिसी’ (वाइकिंग/पेंगुइन से प्रकाशित) जब आधी खत्म हो जाती है तो एकाएक नटवर सिंह प्रकट होते हैं, जो संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की पहली सरकार में विदेश मंत्री थे। आपको वह वाकया याद आ जाता है, जब नटवर सिंह से किसी पत्रकार ने पूछा था कि वह गरम मिजाज (हॉक यानी बाज) हैं या नरम मिजाज (डव यानी कबूतर) और जवाब में नटवर ने ही पूछ डाला कि वह विदेश मंत्रालय चला रहे हैं पक्षी अभयारण्य। वाकया वाकई मजेदार था।
कसूरी के लिए चुनौती यह है कि उन्होंने उस सवाल को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया है। उनका यह दावा करना शायद ही किसी के गले उतरे कि पाकिस्तान का विदेश मंत्री एक खास विचारधारा पर चलने वाले अपने देश की विदेश नीति की दिशा तय कर सकता है अथवा नीति के मामले में तय कर सकता है कि आक्रामक रहना है, नरम रहना है या बीच का रास्ता अख्तियार करना है। कसूरी मेरे दोस्त हैं, बेहद बुद्घिमान भी हैं और मेजबानी करने में उनका कोई सानी नहीं (1985 में बतौर रिपोर्टर अपनी पहली पाकिस्तान यात्रा के दौरान कसूरी साहब के घर मेरे आगे लजीज पकवान परोसे गए थे), लेकिन अगर मैं भलमनसाहत छोड़ दूं और कुछ बदमिजाजी से बोलूं तो उनका यह दावा चीजों को बेहद आसान बताने की कोशिश सरीखा है, जल्दबाजी भरा है और कुछ हद तक लापरवाही भरा भी है।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि कश्मीर के बरअक्स तय होने वाले भारत और पाकिस्तान के रिश्तों का किसी सरकार के पांच साल के कार्यकाल में सुधरना और स्थिर हो जाना नामुमकिन है, बेशक उस सरकार को पूर्ण बहुमत हासिल हो, जो संप्रग-1 के पास नहीं था। पाकिस्तान में किसी सैन्य तानाशाह की हुकूमत में तो रिश्ते नहीं सुधर सकते क्योंकि जिस दिन उसे कत्ल करके, देश निकाला देकर या कैद करके हुकूमत उसके हाथ से ली जाएगी (जैसा पाकिस्तान का इतिहास है), उसके वायदे उसी दिन भुलाए ही नहीं जाएंगे बल्कि खारिज कर दिए जाएंगे और उनके ठीक उलट रास्ते पर काम होने लगेगा। इस बात को मुशर्रफ ने भी पूरी तरह सही साबित किया है, जिन्हें देश निकाला दिया गया, कैद (घर में नजरबंदी) किया गया और जो अपने ही आतंकवादियों के हाथ कत्ल होने से बाल-बाल बचे।
ऐसे सेनाध्यक्ष की बात को आप कितनी गंभीरता से लेंगे, जिसने अमन की बात करने वाले अपने प्रधानमंत्री से छिपाकर करगिल की लड़ाई यह मानते हुए छेड़ी कि भारत जवाबी हमला करने के बजाय शांति की भीख मांगेगा। बाद में राजनेता बने शख्स को कितनी गंभीरता से लेंगे, जो निर्वासन से इसीलिए वापस आ गया क्योंकि अपने फेसबुक पेज पर ‘लाइक्स’ की संख्या देखकर उसे यकीन हो गया था कि उसके देश के लोग उसे मोहब्बत करते हैं, उसकी कमी महसूस करते हैं और उसे वापस बुलाने के लिए बेचैन हैं। उन पर अभी तक देशद्रोह का मुकदमा नहीं चला है क्योंकि वहां की सेना और खुद जनरल राहिल शरीफ उन्हें बचा रहे हैं, जिनके 1971 की जंग में शहीद भाई मेजर शब्बीर शरीफ (मरणोपरांत निशान-ए-हैदर से सम्मानित) मुशर्रफ के साथ पढ़े थे।
मेरी सबसे बड़ी असहमति कसूरी के उस दावे से है कि चाहे उन्होंने शांति से काम लिया हो या आक्रामकता दिखाई हो, विदेश नीति उन्होंने ही तय की थी। पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह हमेशा सौम्य और आम तौर पर विदेश में पढ़ाई करने वालों को ही विदेश मंत्री या वरिष्ठï राजनयिक बनाते रहे हैं ताकि उनका एजेंडा पूरा हो सके। यह सिलसिला जनरल अय्यूब ने शुरू किया था, जिन्होंने जुल्फिकार अली भुट्टïो को यह कुर्सी दी थी। उसके बाद कभी अब्दुल सत्तार तो कभी सरताज अजीज और कसूरी भी आए, जिन्होंने कोई बदलाव नहीं किया बल्कि वे सेना और खुफिया तथा अफसरशाही प्रतिष्ठïान की बताई नीति पर ही चलते रहे।
इन संस्थाओं की पकड़ इतनी मजबूत है कि उन्होंने न केवल चुने हुए प्रधानमंत्रियों (चाहे भुट्टो हों या नवाज शरीफ) को धता बता दिया बल्कि उन सेनाध्यक्षों को भी ठीक कर दिया, जो रास्ता भटक रहे थे। कसूरी बताते हैं कि मुशर्रफ के कहने पर वह सीमा में बदलाव किए बगैर ही भारत के साथ कश्मीर समस्या सुलझा रहे थे और सेना को भी पूरी तरह भरोसे में लिया गया था। वह उन बैठकों का भी ब्योरा देते हैं, जिनमें मुशर्रफ के सेनाध्यक्ष अशफाक परवेज कयानी, आईएसआई प्रमुख शुजा पाशा और अन्य प्रमुख सैन्य अधिकारी मौजूद रहते थे। लेकिन बैठकों की तारीखें देखने पर आपको पता चल जाएगा कि जब बातचीत सबसे अहम चरण में थी, उसी वक्त ‘कोई’ मुंबई में 26 नवंबर के हमलों की योजना बना रहा था।
अगर आप इस बात पर यकीन करने को तैयार हैं कि यह कुछ नामुरादों की कारगुजारी भर थी और उन पर सेना और आईएसआई का कोई नियंत्रण नहीं था तो मुझे माफ कर दीजिए, मैं यह नहीं मान सकता। जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और शरीफ की बैठक हो रही थी, उस वक्त मुशर्रफ करगिल की तैयारी कर रहे थे। रॉ के पूर्व प्रमुख आनंद वर्मा ने आईएसआई के मुखिया लेफ्टिनेंट जनरल हामिद गुल की मौत पर द हिंदू में शानदार लेख (28 अगस्त 2015 को प्रकाशित) लिखा। उसमें उन्होंने बताया कि दोनों पक्ष 1980 के दशक के उत्तराद्र्घ में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक के कहने पर कूटनीतिक बातचीत कर रहे थे। याद कीजिए, यही वह वक्त था, जब रहस्यमयी परिस्थितियों में जिया का कत्ल हो गया, गुल अपनी बात से मुकर गए, अफगानिस्तान में लड़ाई तेज कर दी गई, भारत के पंजाब में आतंकवाद ने (जून 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार और मई 1988 के ऑपरेशन ब्लैक थंडर के बाद) तीसरी बार सिर उठा लिया, जिसके पीछे खालिस्तानियों और आईएसआई का हाथ था। खुशकिस्मती से आतंकवाद का वह आखिरी दौर था। जिया की रहस्यमय मौत के बाद 1989 में ही कश्मीर में भी आतंक ने सिर उठा लिया। अब अगर 26 नवंबर 2008 के हमले की योजना उसी वक्त बनाई गई, जब पाकिस्तान के प्रमुख वार्ताकार समाधान मिलने का दावा कर रहे थे तो पूरी तस्वीर आपके सामने साफ हो सकती है। कसूरी के खुलासे पर जो चर्चा हुई, उसमें किताब के कुछ अच्छे हिस्से भुला दिए गए। उनमें बेहद मजेदार मुशर्रफ का भाषण है, जो उन्होंने 2005 में संयुक्त राष्टï्र महासभा में दिया था। उस समय दोनों देशों के संबंधों में सुधार का ऐतिहासिक दौर था। कसूरी कबूल करते हैं कि उन्हें भी उतना ही ताज्जुब हुआ, जितना भारतीय राजनयिकों को हुआ। तो क्या मुशर्रफ बचकर भाग रहे थे?
कसूरी कहते हैं कि मुशर्रफ मुकर नहीं रहे थे बल्कि किसी और का लिखा हुआ पढ़ भर रहे थे। वह कहते हैं कि भाषण मुनीर अकरम ने लिखा था, जो सौम्य और तुनकमिजाज पाकिस्तानी राजनयिक थे (एक बार उन्होंने भारत को एशिया का घटिया मुल्क और तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री सलमान खुर्शीद को झूठमूठ का मुसलमान कह दिया था। उनके छोटे भाई जमीर दिल्ली में मशहूर राजनयिक थे और मेरे पड़ोसी भी थे)। मुनीर उस वक्त संयुक्त राष्टï्र में पाकिस्तान के स्थायी प्रतिनिधि थे। आप यकीन करें या न करें, लेकिन कसूरी का यही कहना है कि भाषण पूरी तरह मुनीर का था और विदेश मंत्री होने के बावजूद न तो उनके पास और न ही मुशर्रफ या उनके किसी सहयोगी के पास उसे पढऩे का वक्त था क्योंकि सब बेहद व्यस्त थे। इसलिए मुशर्रफ को भाषण का अंदाजा तभी लगा, जब वह मंच पर खड़े उसे पढ़ रहे थे।
इससे कई बातें पता लगती हैं। हमारा विदेश मंत्री एस एम कृष्णा पर उस वक्त हंसना गलत था, जब उन्होंने ‘बेखयाली’ में पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण उठा लिया और पढऩा शुरू कर दिया। दूसरी बात कि मुशर्रफ और उनके सहयोगी नालायक चाहे नहीं थे, लेकिन आलसी और लापरवाह जरूर थे। तीसरी बात कि सेना का एक ताकतवर शख्स सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठा था, लेकिन सत्ता की डोर किसी दूसरी ताकत के हाथ में थी और उसी हाथ ने भारत के बारे में नीति की पटकथा लिखी थी। अगर ऐसा नहीं था तो मुनीर अकरम को उसी वक्त बर्खास्त कर दिया जाता और सजा दी जाती। अगर ऐसा ही था तो कसूरी हमें बता नहीं रहे हैं। भारत और पाकिस्तान के रिश्तों के बारे में सच बेहद कीमती होता है। इस मामले में कसूरी ने हमारे सामने जो पेश किया है, उसका नाम असल में ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ सिंगिंग, सिंपलिस्टिक केनरी’ होना चाहिए। लेकिन इसे पढ़कर हम में से कई को बदलाव का भरोसा नहीं होगा बल्कि पुराने भद्दे खयाल सही साबित होते दिखेंगे।