यदि मैं आपसे हमारे देश के ऐसे युद्ध का नाम बताने को कहूं जिसे बहुत कम याद किया जाता है या जो सबसे अलोकप्रिय युद्ध है तो आप क्या कहेंगे? नहीं, यह युद्ध चीन के खिलाफ 1962 में लड़ा गया युद्ध नहीं है। उस युद्ध के नतीजे विनाशकारी थे, लेकिन हम उन सैनिकों को याद करते हैं, सम्मान देते हैं, जिन्होंने वह युद्ध लड़ा और उसमें सर्वोच्च बलिदान दिया।
एक ही ऐसा युद्ध है, जिसे हम याद भी नहीं करना चाहते। हम इसमें परमवीर चक्र से सम्मानितों सहित सारे महान नायकों के नाम भूल गए हैं। हमारी पूरी व्यवस्था -राजनीतिक, सैन्य, बुद्धिजीवी जगत और हमारा परिवेश- ऐसे जताती है जैसे वह युद्ध हुआ ही न हो। यह वह युद्ध है, जो भारतीय सेना ने शांति रक्षक सेना की भूमिका में श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ 1987 में युद्ध शुरू किया जब राजीव गांधी ने उसे वहां भेजा। यह 1990 तक चला, जब वीपी सिंह ने सेना को वापस बुलाने की प्रक्रिया शुरू की। यह बहुत लंबा युद्ध था, कोई छोटी-मोटी लड़ाई नहीं थी। इसके तहत सेना के अग्रिम मोर्चे की तीन संपूर्ण डिवीजन जाफना प्रायद्वीप, बट्टीकलोआ और त्रिंकोमाली में तैनात की गई थीं। इस युद्ध ने बहुत क्रूर बलिदान लिया। हमारे 1200 सैनिक शहीद और कई हजार घायल हुए।
असली त्रासदी तो यह थी कि हमारी सेना न सिर्फ लिट्टे से लड़ रही थी, जो कल्पना से कहीं अधिक शातिर और हथियारों से बेहतर ढंग से लैस शत्रु था, बल्कि वह जटिल जाल में फंस गई थी, जिसमें भारत-श्रीलंका, उनके राजनीतिक दल, सैन्य बल व खुफिया एजेंसियां शािमल थीं और जो प्राय: परस्पर अविश्वास और विपरीत उद्देश्यों के लिए काम करते नज़र आते थे। भारतीय सेना को जल्दी ही मालूम हो गया कि हमारी खुफिया एजेंसियां और यहां तक कि राजनीतिक नेतृत्व भी नहीं चाहता कि लिट्टे सुप्रीमो प्रभाकरण मारा या पकड़ा जाए। कई लोगों को वह तब भी कीमती लगता था। उसे और उसके लोगों को हमारी खुफिया एजेंसियों ने ही प्रशिक्षित और तैयार किया था। उन्हें लगता था कि वह अब भी उपयोगी है।
स्थिति तब और जटिल हो गई जब जयवर्द्धने के बाद प्रेमदासा श्रीलंका के राष्ट्रपति बने। वे अपने देश में भारत की मौजूदगी से नफरत करते थे। उन्होंने जयवर्द्धने पर देश की सम्प्रभुता समर्पित करने का आरोप लगाया। उन्होंने आईपीकेएफ के खिलाफ प्रभाकरण के साथ सक्रियता से साठगांठ की। राजीव गांधी की हत्या के संबंध में जब मैं कोलंबो गया तो तब विपक्ष के नेता और सर्वाधिक काबिल रक्षा (बाह्य व आंतरिक दोनों) मंत्री रहे ललित अथुलतमुथली ने भी मुझे बताया कि उत्तर में जब अाईपीकेएफ लड़ रही थी और बलिदान दे रही थी तो प्रेमदासा लिट्टे को हथियार व गोला-बारूद मुहैया करा रहे थे। विडंबना यह थी कि यह आपूर्ति उन टाटा ट्रकों में की गई, जो भारत सरकार ने श्रीलंका को तोहफे में दिए थे। कुछ वर्षों बाद चंद्रिका कुमारतुंगे ने आधिकारिक रूप से इसकी पुष्टि की, जिन्होंने राष्ट्रपति का पद संभाला था। भारतीय सेना बहुत ही खूनी दलदल में फंस गई थी। जब वह उत्तर में छापामार हमलों, इलेक्ट्रॉनिक विस्फोटकों और एेसे तकनीकी व रणनीतिक हथियारों से साहस के साथ मुकाबला कर रही थी, जिनका उसने परंपरागत या अपरंपरागत युद्ध में कभी सामना नहीं किया था अौर उसी वक्त कोलंबो के मुख्य राजमार्ग पर (प्रेमदासा सरकार के उकसाने पर) पोस्टर लग गए थे, जिनमें ‘इनोसेंट पीपल किलिंग फोर्स’ (आईपीकेएफ का विकृत रूप) की वापसी की मांग गई थी।
इस बीच, दिल्ली में एक बड़ा राजनीतिक बदलाव हुआ। राजीव गांधी 1989 की शीत ऋतु में चुनाव हार गए और वीपी सिंह चुनावी गठबंधन के नेता के रूप में प्रधानमंत्री बने। गठबंधन में द्रमुक पार्टी भी सहभागी थी। द्रमुक अौर इसके नेता करुणानिधि ने आईपीकेएफ के प्रति अपनी नापसंदगी कभी छिपाई नहीं। राजीव गांधी के लंका समझौते को एमजीआर का आशीर्वाद प्राप्त था (जिनका निधन दिसंबर 1987 में हो गया, जब लड़ाई शुरुआती चरण में चरम पर थी)। उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी किसी भी हालत में उनकी नीतियों को समर्थन देने को तैयार नहीं थे। यह हमारे इतिहास का एक और ऐसा अध्याय है, जिसका कमजोर चित्रण हुआ है। यदि आप नई पीढ़ी के हैं तो इसके कुछ ब्योरो से परिचित होंगे अगर आपने शूजित सरकार की अद्भुत फिल्म ‘मद्रास कैफे’ देखी हो, जिसने खूनी साजिश को जीवंत बनाने का महान काम किया है।
श्रीलंका में प्रेमदासा और भारत में वीपी सिंह के रहते अाईपीकेएफ की भूमिका पूरी तरह अस्वीकार्य हो गई। फिर भारतीय सेना ने सारे श्रीलंकाइयों को उनके हश्र पर छोड़कर वापसी शुरू की। सैनिकों की पहली खेप जहाज से चेन्नई बंदरगाह पहुंची। हमारे राष्ट्रीय और खासतौर पर सैन्य इतिहास का यह सबसे दुखद पल था कि मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने सार्वजनिक रूप से कहा कि वे तमिल भाइयों के हत्यारों का स्वागत नहीं कर सकते। इस प्रकार आईपीकेएफ, तीनों डिवीजनों की न तो कोई अगवानी हुई और न उसकी बहादुरी के गीत गाए गए। वरिष्ठ अधिकारियों ने इसे ऐसे खराब युद्ध के रूप में खारिज कर दिया, जिसे कोई याद नहीं रखना चाहता।
राजनीतिक रूप से भारत में गठबंधन युग आया और एक द्रविड पार्टी, द्रमुक या अन्नाद्रमुक केंद्र में सरकार बनाने के लिए जरूरी हो गई। ऐसे में हमारी केंद्र सरकारें ऐसे दिखाने लगीं जैसे आईपीकेएफ का संघर्ष कभी हुआ ही नहीं था। युद्ध और आईपीकेएफ सैनिकों के बलिदान को सुविधाजनक रूप से भुला दिया गया। फिर महिंदा राजपक्षे श्रीलंका में सत्तारूढ़ हुए। उन्होंने आईपीकेएफ सैनिकों की याद में दिल को छू लेने वाला स्मारक बनवाया। इसमें एक अमर ज्योति, जवान की प्रतिकृति, अशोक चिह्न वाले चार स्तंभ। स्मारक पर लिखा है : ‘उनके कर्म पराक्रम से भरे थे, उनकी याद अमर रहे।’ जगह भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। इसे नए संसद भवन के पास राजधानी के नए इलाके में उस क्षेत्र में निर्मित किया गया, जो जयवर्द्धने के नाम पर है। दुख की बात तो यह है कि बरसों तक भारतीय नेता द्रमुक/अन्नाद्रमुक के नाराज होने के भय से वहां जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। यहां तक कि कोलंबो यात्रा पर आए डॉ. मनमोहन सिंह ने भी वहां जाना टाल दिया। अब जाकर नरेंद्र मोदी के वहां श्रद्धांजलि देने के बाद सारी भारतीय हस्तियों ने श्रीलंका यात्रा में आईपीकेएफ स्मारक की भेंट को महत्वपर्ण स्थान दिया है।
पिछले हफ्ते कोलंबो गया तो मैं भी स्मारक पर गया। रिपोर्टर के रूप में युद्ध को कवर करने की कई यादें ताजा हो गईं। यह अहसास भी फिर ताजा हुआ कि राजनीति कितनी सनकभरी तथा स्वार्थी हो सकती है और आईपीकेएफ सैनिकों जैसे सर्वाधिक सम्मानित लोग कैसे इसके शिकार हो सकते हैं। यदि आप कोलंबो जाएं तो एक चक्कर स्मारक का भी लगाएं और सिर झुकाकर एक मिनट खड़े रहें। अापका दिल भर आएगा।