साहित्यिक चोरी की खोजबीन में लगे रहने वाले लोग अगर इस सप्ताह का राष्ट्र की बात स्तंभ पढ़ेंगे तो उनकी आंखें चमक उठेंगी। इस स्तंभ के पुराने पाठकों को भी इस लेख का शीर्षक और कुछ हिस्सा जाना-पहचाना लगेगा। दरअसल कुछ वर्ष पहले भी हमने अपने स्तंभ में कमोबेश इसी शीर्षक और इंट्रो का इस्तेमाल किया था। बहरहाल, इस आधार पर कम से कम आलसी और अपने ही लिखे का दोबारा इस्तेमाल करने वाला तो करार दिया ही जा सकता है। अगर मैंने इंट्रो में संस्थान में तीन शब्द और जोड़ दिए होते ‘आरबीआई की तरह’ तो शायद यह कहीं अधिक सुरक्षित होता।
कुछ साल पहले इस मूल आलेख को लिखने की चाह न्यायमूर्ति जे एस वर्मा की कही एक पंक्ति से उपजी थी। उन्होंने केंद्रीय निर्वाचन आयुक्त कार्यालय के अधिकारी के जे राव की पुस्तक ‘द कोबरा डांसर’ के लोकार्पण के अवसर पर यह बात कही थी। राव वह अधिकारी थे जिन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद 12,000 रुपये मासिक वेतन पर वापसी की और बिहार में सबसे साफ-सुथरे चुनाव कराए जिनमें लालू प्रसाद के परिवार के शासन का अंत हुआ। वर्मा, तत्कालीन मुय निर्वाचन आयुक्त एस वाई कुरैशी और मैं इस पुस्तक पर परिचर्चा के पैनल में शामिल थे। मैंने जस्टिस वर्मा से पूछा कि क्या केवल एक व्यक्ति अल्पकाल में किसी संस्थान को बदल सकता है?
वर्मा ने कहा कि यह कठिन लेकिन संभव है। उन्होंने कहा कि किसी एक व्यक्ति में अगर दो गुण हों तो वह किसी संस्थान को बदल सकता है और उसे हमारे पूर्वजों की आकांक्षाओं के अनुरूप बना सकता है। न्यायमूर्ति वर्मा ने जो सिद्घांत रखा वह खुद उसका उदाहरण थे। उन्होंने देश के दो महान संस्थानों सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को आगे बढ़ाया। तीन दशक पहले एक अन्य न्यायाधीश ने हम नागरिकों को आश्वस्त किया था कि सर्वोच्च न्यायालय हमेशा हमारे अधिकारों की रक्षा करने में विफल नहीं होगा। यह उन दिनों की बात है जब इंदिरा गांधी का राज था। ऐसा करने वाले न्यायाधीश थे न्यायमूर्ति एच आर खन्ना।
ऐसे अन्य लोग भी हो चुके हैं: टी एन शेषन ने निर्वाचन आयोग को कागजी शेर से सही मायनों में एक ताकतवर संस्थान में बदल दिया। उन्होंने इसे इतना मजबूत बनाया कि आज दो दशक बाद भी राजनीतिक छेड़छाड़ इसे प्रभावित नहीं कर सकी है। शेषन को इस काम में अपने जैसे जी मजबूत इच्छाशक्ति वाले जे एम लिंगदोह की मदद भी मिली थी। अगर सीबीआई या सीवीसी (मुख्य सतर्कता आयोग) में भी ऐसा ही कोई व्यक्ति उभर आता तो क्या होता? याद कीजिए 2010 के मध्य में जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा हो रहा था उस वक्त बड़े घोटालों ने जनता को खिन्न कर रखा था और सामाजिक सक्रियता का बोलबाला था। उस वक्त उत्तर कोरियाई शैली के जन लोकपाल जैसे कुछ बुरे विचार भी चर्चा में थे। अगर कोई ईमानदार पुलिस अधिकारी जिसके पास न कुछ छिपाने को हो, न ही कोई लालच हो, वह या कोई वैसा ही मुख्य सतर्कता आयुक्त आकर इन संस्थानों को इनकी असल ताकत मुहैया करा दे तो नाना प्रकार के भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों या हजारों नई जेलों की कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी।
सीबीआई की बात करें तो हर नए निदेशक के अधीन उसका स्तर कमजोर होता गया है। सीवीसी की बात करें तो आपको इस भ्रष्टाचार विरोधी संस्थान के दो प्रमुखों तक के नाम याद नहीं होंगे। बल्कि मैं तो कहूंगा कि हममें से अधिकांश लोगों को इस संस्थान के मौजूदा प्रमुख तक का नाम पता नहीं होगा। संभव है हमने उनका नाम कांग्रेस और आप द्वारा की गई प्रधानमंत्री की आलोचना में सुना हो जिनमें कहा गया कि यही वह अधिकारी हैं जिन्होंने सहारा/बिरला की विवादास्पद डायरियों में उल्लिखित मामलों की आयकर जांच की थी। कह सकते हैं कि हमारे अधिकांश संस्थानों का एक सा हश्र है। वर्मा के बाद देश के सबसे जाने पहचाने मुख्य न्यायाधीश हुए न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा। उनको भी सेवानिवृत्ति के बाद बीसीसीआई में सुधार करने वाली समिति की अध्यक्षता के लिए याद किया जाता है।
आर्थिक सुधारों की शुरुआत के 25 वर्ष बाद हमने कई नए, ताकतवर और महत्त्वपूर्ण संस्थानों का उदय होते हुए भी देखा। इनमें से प्रत्येक को न्यायमूर्ति वर्मा के शब्दों में उस ‘एक व्यक्ति’ की प्रतीक्षा है। यू के सिन्हा नेतृत्व में सेबी ने हालिया अतीत में कुछ क्षमता दिखाई। उसने सहारा समूह से कहा कि वह संस्थान की क्षमताओं को कम करके न आंके। सहारा की ताकत प्रत्यक्ष है। सबने देखा कि कैसे सहारा प्रमुख द्वारा तिहाड़ जेल में लिखी गई एक किताब के लोकार्पण के अवसर पर भाजपा और यहां तक कि कांग्रेस (गुलाम नबी आजाद) के प्रमुख नेता पहुंचे। यह उसी दिन की बात है जिस दिन राहुल गांधी ने आयकर छापे में मिली डायरियों के आधार पर प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया था कि वह सहारा से रिश्वत ले चुके हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक हमारा सबसे पुराना, अहम और प्रतिष्ठिïत संस्थान है। मुंबई में आरबीआई के मुख्यालय में गवर्नर के कक्ष में अगर आप पुराने गवर्नरों की तस्वीरों पर नजर डालें तो देश का आर्थिक इतिहास आपकी आंखों के सामने से गुजरता है। आरबीआई न्यायपालिका या निर्वाचन आयोग या कहें सीवीसी अथवा सीएजी की तरह नहीं बना है, न ही उनकी तरह स्वायत्त है। यह वित्त मंत्रालय के प्रति जवाबदेह है और उसके जरिये संसद को। फिर भी एक के बाद एक सरकारों ने उसकी स्वायत्तता का सम्मान किया है। कुछ प्रतिकूल स्थितियां बनीं लेकिन राजनेताओं ने हालात संभल जाने दिए।
मौजूदा गवर्नर ऊर्जित पटेल के नेतृत्व में जब संस्थान ने अपना सबसे बड़ा फैसला लिया उस दौरान तीन महीनों तक पटेल शायद ही सक्रिय नजर आए। नोटबंदी में आरबीआई की क्या भूमिका रही यह बहस का विषय है। इस मामले में सच के कई अलग-अलग संस्करण सुनने को मिल सकते हैं। बहरहाल आधिकारिक तथ्य यही है कि नोटबंदी का निर्णय आरबीआई बोर्ड की अनुशंसा पर लिया गया। चूंकि मूल विचार गड़बड़ी करने वालों को फंसाने का था इसलिए गोपनीयता बरती गई। लेकिन अब गोपनीयता खत्म होने के छह सप्ताह बाद भी आरबीआई को संबंधित चर्चा के बिंदु सार्वजनिक क्यों नहीं करने चाहिए? ये कोई गोपनीय बिंदु नहीं हैं, इन्हें आरटीआई से भी हासिल किया जा सकता है। लेकिन आरबीआई अपने स्तर पर पारदर्शिता क्यों नहीं दिखाता?
आरबीआई की वेबसाइट पर उसके लक्ष्य को लेकर एक संक्षिप्त वक्तव्य प्रकाशित है जिसमें कहा गया है, ‘बैंक नोट के मसले के नियमन और देश में मौद्रिक स्थिरता बरकरार रखने के लिए रिजर्व तैयार रखना…’ मुद्रा इसकी मुख्य जवाबदेही है। आठ नवंबर के बाद जो गोपनीयता और चुप्पी देखने को मिली और बाद में नियमों में बदलाव को लेकर जो हुआ उससे इसकी छवि और खराब हुई है। बैंक जमा के साप्ताहिक आंकड़े पेश करने के व्यवहार का स्थगन, 10 दिसंबर तक हुए जमा के आंकड़े वेबसाइट से बिना स्पष्टीकरण के हटाना इस संस्थान की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा रहा। पटेल अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री हैं और उनको सबका समर्थन है। जनवरी 2013 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने उनको रिजर्व बैंक का डिप्टी गवर्नर बनाया था। अगर वह नोटबंदी से सहमत हैं तो उनको सरकार से उलझने की आवश्यकता नहीं। उनको केवल यह कहना है कि आरबीआई एक प्रतिष्ठित और पारदर्शी संस्थान है जिसके कदम, आंकड़ों के साथ समीक्षा और बहस के लिए पेश हैं। इसके बाद उनको जरूरी आंकड़े जारी करने चाहिए, उनका विश्लेषण और अनुमान पेश करने चाहिए। आरबीआई कोई गोपनीय सोसाइटी या खुफिया संगठन नहीं है। इतना स्पष्टीकरण पर्याप्त है। ऊर्जित पटेल के पास एक मौका है कि वह बिना दागदार अतीत या लालच वाले व्यक्ति के रूप में संस्थान को एक भविष्य दे सकें। कम से कम संस्थान के कद की रक्षा तो वह कर ही सकते हैं।