उत्तर प्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनाव में जो कुछ एकदम स्पष्ट नजर आ रहा है वह पिछले एक दशक की खबरों और उनकी रिपोर्टिंग से एकदम अलग है। इस बार हमें आकांक्षाओं के दीदार हो रहे हैं। ठीक बिहार तथा देश के अन्य हिस्सों के तर्ज पर। युवाओं में खासतौर पर आशावाद, महत्त्वाकांक्षा और आत्मविश्वास देखने को मिला। विभिन्न परिवार समृद्घ हुए हैं और बाजार में तेजी आई है। हिंदी प्रदेश में निजी स्कूली शिक्षा ने गति पकड़ी तो दक्षिण भारत ने ब्रांडेड चिकन के दीदार किए। पंजाब में प्रवासियों की संख्या बढ़ी और यहां तक कि उम्मीद हार चुका बिहार भी नीतीश कुमार के पहले कार्यकाल में आगे बढ़ा।
यदि उत्तर प्रदेश कोई संकेत है तो बदलाव शुरू हो गया है। जिस आकांक्षा के बल पर संप्रग ने 2009 में सत्ता में वापसी की थी, जिसके दम पर अखिलेश यादव ने पिछले चुनाव में जीत हासिल की, जिसने वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी को जबरदस्त जीत दिलाई और कई अन्य बढिय़ा प्रदर्शन करने वाले मुख्यमंत्रियों को दोबारा-तिबारा जीत दिलाई, वह अब धूमिल हो रही है। उस आकांक्षा का एक हिस्सा हड़बड़ी के रूप में प्रतिफलित हो रहा है। हम दोबारा पहचान की राजनीति के दौर में जा रहे हैं जो हमें दोबारा धीमे विकास के दौर में ले जा रही है। पिछले चार साल के दौरान अर्थव्यवस्था में आए ठहराव को इसी बात से समझा जा सकता है। इस दौरान अर्थव्यवस्था 6 फीसदी के दायरे में रही। आशावाद ने अपनी पहचान को त्यागने का साहस दिया था जो अब कमजोर पड़ रहा है। हम पुराने दिनों की ओर वापसी कर रहे हैं। दिल्ली से निकलकर पश्चिमी जाट बहुत इलाके, बुंदेलखंड, इटावा में यादवों के गढ़, कानपुर और लखनऊ आदि से गुजरते हुए जब मैं बदलते मिजाज को भांपने का प्रयास कर रहा था तब मुझे बाराबंकी के निकट जैदपुर में इस बात का अहसास हुआ। करीब 20 वर्ष के अताउर रहमान अंसारी मुझे एक रंगीन चमकता हुआ बिजनेस कार्ड देते हैं। वह मुझे अपने काम के बारे में विस्तार से बताते हैं।
उनका स्टार ऑनलाइन सेंटर और जन सेवा केंद्र महज एक माह पुराना है। कार्ड उनके काम के बारे में बताता है। कार्ड के मुताबिक वहां हर वो चीज मिलेगी जो किराना दुकान पर नहीं मिलती। यानी रेल और हवाई टिकट, पैन कार्ड, आधार कार्ड, ई भुगतान, जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र, राजस्व रिकॉर्ड की प्रतियां, जीवन बीमा, पासपोर्ट, विश्वविद्यालय परीक्षा और रोजगार के फॉर्म, फोन रीचार्ज, मोबाइल में ई वॉलेट ऐप डालना आदि आदि। यानी इंटरनेट से जुड़ी हर चीज।
अताउर बीएसई द्वितीय वर्ष के छात्र हैं। अंसारी बुनकर समुदाय से आते हैं। नोटबंदी के झटके ने उनके पुश्तैनी कारोबार को जबरदस्त चोट पहुंचाई। रोजगार का भी लगातार अभाव बना हुआ है, इसलिए बुनकर परिवारों ने इस परेशानी में ही अवसर तलाशने की ठानी। उन्होंने सोचा कि क्यों न नोटबंदी से उपजे संकट को ही कारोबार बनाया जाए। इस प्रकार डिजिटलीकरण की अवधारणा के साथ स्टार ऑनलाइन सेंटर सामने आया। वह रिलायंस जियो की मदद से काम कर रहे हैं। उनके कार्यालय की दीवारों पर ई-वॉलेट के तमाम पोस्टर लगे हैं। बिजली की चुनौती बरकरार है। इसलिए उन्होंने दुकान के सामने एक सौर ऊर्जा संयंत्र लगाया है जिससे उनको दिन में 300 वॉट बिजली मिलती है और उनके एलईडी बल्ब और पंखा आराम से चलते हैं। यह छोटा सा सौर ऊर्जा संयंत्र बिजली संकट से जूझ रहे उत्तर प्रदेश के लिए बड़ी राहत है। इसकी मदद से फोन चार्ज होते हैं, मोटर बनती है। यहां तक कि हज्जाम की दुकान तक को यह रोशन करता है। लोगों ने हर कमी में अवसर तलाश कर लिया है। स्टार ऑनलाइन सेंटर हमें बताता है कि इस इलाके के साथ दिक्कत क्या है: शिथिल प्रशासन, आर्थिक वृद्घि की कमी, बेरोजगारी, आशावाद का क्षीण होना और कुछ कर गुजरने की हड़बड़ी। इसके अलावा यहां शिक्षित युवाओं के रूप में बेहतर बातें भी हैं। ये युवा समस्याओं में भी अवसर तलाश कर रहे हैं।
अब केवल अशिक्षा, निराशा और अफ्रीकी महाद्वीप के गरीब देशों से भी बुरे सामाजिक संकेतक इसकी पहचान नहीं रह गए हैं। लोग शिक्षा के सहारे स्थिति सुधारने की बात सोच रहे हैं। उन्होंने अपने बच्चों को महंगे निजी कॉलेजों में पढ़ाने के लिए कर्ज लिया, जमीन बेची। आज वही बच्चे बड़ी-बड़ी डिग्रियां तो ले आए लेकिन उनके लिए रोजगार नहीं है। या फिर वे खराब गुणवत्ता वाली शिक्षा के चलते बेरोजगार हैं। उनके मां-बाप अब तक कर्ज में डूबे हैं।
कुछ बच्चे तो खेतों में काम कर रहे हैं, ठीक अपने मां-बाप की तरह। उनको यह काम पसंद नहीं लेकिन करना पड़ रहा है। बीएससी कर चुके पासी दलित राम शरण को अपने गांव शहजादपुर में आलू की खेती करनी पड़ रही है। एनडीटीवी के वायरल हुए वीडियो में वह शामिल हैं। जहां वह उत्सुकतापूर्वक कह रहे हैं कि आखिर क्यों उनको नरेंद्र मोदी और उनकी शैली पसंद है। उनको लगता है कि उनको शिक्षक का काम ही मिल सकता है। यह उन्हें आरक्षण की मदद से नहीं मिल सकता और उनमें इतना धैर्य नहीं है कि वे बीएड कर लें। उनको लगता है कि जीवन तो यही रहेगा। उनके खेत में सात किशोर युवतियां स्कूल से छुट्टïी लेकर रोजदारी पर काम कर रही हैं। वे भी पासी दलित हैं। हालांकि उनको मताधिकार नहीं है लेकिन पूछने पर उनकी आंख चमक जाती है और वे मोदी का नाम लेती हैं। जाहिर है हमें 2019 की प्रतीक्षा करनी होगी।
युवाओं का मोह भंग हो चला है, वे बोर हो रहे हैं, नाराज हैं और विद्रोही मिजाज में हैं। एक अन्य गांव में ठाकुर (राजपूत) समुदाय के जनक सिंह से मुलाकात होती है जो एमपीएड कर चुके हैं। वह बेरोजगार हैं और अपने खेत और छोटी सी किराना दुकान की देखभाल करते हैं। वह तीन बार सेना की भर्ती परेड में शामिल हुए लेकिन नाकाम रहे। आखिर स्नातकोत्तर किया हुआ व्यक्ति सेना में क्यों जाना चाहेगा? एक ऐसे प्रदेश में यह सवाल भला कौन पूछेगा जहां 20 लाख लोग भृत्य या सुरक्षा गार्ड के कुछ सौ पदों के लिए आवेदन करते हों। इनमें अधिकांश स्नातक और स्नातकोत्तर और यहां तक कि पीएचडी भी थे। धीमी वृद्घि दर और खराब शिक्षा हमें एक जननांकीय त्राासदी की ओर धकेल रहे हैं। अगर आपको इसमें संदेह हो तो उत्तर प्रदेश की यात्रा कर लीजिए।
हर ओर यही परिदृश्य है। लखनऊ में अखिलेश यादव की टीम द्वारा चलाए जाने वाले एक कॉल सेंटर की एक शिफ्ट ब्यूटी सिंह चलाती हैं। वह अमेठी के एक राजपूत घराने से ताल्लुक रखती हैं। वह आत्मविश्वास से भरी हुई हैं, पूरी तरह नियंत्रित नजर आती हैं और इतनी सावधान हैं कि किसी भी तरह मेरी बातों के जाल में न उलझें। उनको इस अल्पकालिक काम के लिए हर माह 11,000 रुपये का भुगतान किया जाता है। उन्होंने भी स्नातकोत्तर कर रखा है। उत्तर प्रदेश में यह एक बड़ा बदलाव है या कहें कई मायनों में बदलाव की कमी। शिक्षा है लेकिन रोजगार नहीं, डिग्री उम्मीद जगाती है लेकिन रोजगार नहीं देती और इसलिए हताशा जन्म लेती है। नए उद्यम सामने नहीं आ रहे हैं, प्रदेश के पारंपरिक स्थानीय कुटीर उद्योग जहां पीतल के बर्तन से लेकर चूडिय़ां बनाने, चमड़े से लेकर ताले, रेशम और जरी आदि का काम होता था लेकिन विमुद्रीकरण ने इसे जबरदस्त झटका दिया है। नाराज और बोर हो रहे युवा शहरों को आग के हवाले नहीं कर रहे, नक्सली नहीं बन रहे, तोडफ़ोड़ नहीं कर रहे या पंजाब की तरह नशे की लत के शिकार नहीं हो रहे तो इसकी एक वजह यह है कि इस नाउम्मीद हो चुके राज्य में इस्तीफे आसानी से होते हैं और यहां विरेचन हो जाता है। इसके अलावा देश को तमाम सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर नीचे खींचने वाले इस राज्य का लोकतंत्र में यकीन बना हुआ है। इस चुनाव के तीन अहम गुण हैं।
पहला, किसी को किसी से उम्मीद नहीं है। दूसरा, मतदाताओं के मन में ऐसी कोई प्रेरणा नहीं है कि वे अपने पारंपरिक जाति आधारित मतदान के तरीके को बदलें। जाहिर है उत्तर प्रदेश अपनी पहचान आधारित राजनीति की ओर लौट रहा है। तीसरी बात, कुछ लोग जो इस प्रक्रिया से अभी बाहर हैं वे मोदी पर अधिक ध्यान दे रहे हैं बजाय कि उनके युवा प्रतिद्वंद्वियों मसलन अखिलेश, राहुल या कहें मायावती के। हमें अब तक यह नहीं पता कि क्या उनकी मत संख्या इतनी होगी कि इस चुनाव को अपनी ओर झुका सके। अगर नहीं तो शायद इसलिए कि उनमें से कई इस बार मतदान की उम्र के ही नहीं हैं। ठीक शहजादपुर की सात युवा लड़कियों की तरह। सन 2019 में जब वे मतदान योग्य होंगे तो यह गतिरोध टूट जाएगा।