अरुणाचल प्रदेश में आरएसएस की हिंदूकरण की नीति नेहरू की तत्कालीन नेफा के हिंदीकरण की नीति पर ही आधारित है
नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) का जिक्र करें तो नेहरू को लेकर कुछ ऐसे किस्से हैं जो इतिहास में दर्ज नहीं हैं लेकिन अगर आप पूर्वोत्तर में कुछ समय बिताएं तो आपको पुराने लोगों से उनके बारे में सुनने को मिलेगा। अक्टूबर 1952 में नेहरू ने अपातानी जनजाति के इलाके का दौरा किया। युवा इंदिरा भी उनके साथ थीं। अपातानी के मुखिया ने उनका स्वागत किया और इंदिरा के प्रति लगाव जाहिर किया। उन्होंने नेहरू से कहा कि आप अपने समाज के मुखिया हैं और मैं अपने समाज का। आप अपनी बेटी का विवाह मुझसे क्यों नहीं कर देते? बदले में मैं आपको ढेर सारा वधू मूल्य दूंगा। जानकारी के मुताबिक इस पेशकश में सौ मिथुन (भैंस जैसा जानवर जिसकी बलि दी जाती है और मांस के लिए तथा व्यापार में जिसका उपयोग किया जाता है। राज भवन के समक्ष एक मिथुन की बलि ने मौजूदा राज्यपाल को इतना नाराज कर दिया कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया) शामिल थे। नेहरू ने मुस्कराते हुए कहा कि वह इस पेशकश से बहुत प्रभावित हुए हैं लेकिन वह अपनी बेटी की शादी पहले ही किसी और से कर चुके हैं। उन्होंने इस बात पर खेद भी जताया कि वे अपातानी प्रमुख से पहले नहीं मिल सके। शायद मौजूदा राज्यपाल राजखोवा के उलट नेहरू जानते थे कि मिथुन की बलि अरुणाचल की जनजाति द्वारा किसी मेहमान का सर्वोच्च सम्मान है न कि अपमान। यह किस्सा लोककथाओं में अलंकृत हो चुका है।
तथ्य यही है कि नेहरू को पूर्वोत्तर से प्रेम था और जरूरी नहीं कि उनको पता ही था कि वहां की समस्याओं से किस तरह निपटना है। इस प्रक्रिया में वह कुछ समस्याओं से निपटे जबकि कुछ अन्य को उन्होंने जटिल बना दिया। इस दौरान उन्होंने इस क्षेत्र को शेष देश के साथ जोडऩे, उस पर शासन और उसके संरक्षण की पृष्ठभूमि तैयार की। सर्वप्रथम उन्होंने क्षेत्र की जातीय विविधता को व्यापक राजनीतिक अवसर मुहैया कराया। भले ही इस क्रम में 10 लाख तक की आबादी वाले राज्यों का गठन करना पड़ा। नगालैंड, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश इसके उदाहरण हैं। उससे पहले जहां राज्य भाषायी आधार पर बने थे, वहीं यहां जातीयता का ध्यान रखा गया। दूसरे को मैं अशांति से निपटने का सिद्घांत कहता हूं। उस वक्त असल में आने वाले नगा हिल्स जिले में अशांति का माहौल बन गया और नेहरू को सेना भेजनी पड़ी। हालात इतने तनावपूर्ण हो गए थे कि विद्रोहियों ने वायुसेना के एक डकोटा विमान को मार गिराया था और विमान चालकों को बंदी बना लिया था। लेकिन नेहरू ने कभी निर्वासित फिजो के नेतृत्व वाले विद्रोहियों से बातचीत बंद नहीं की। आखिरकार यह सिद्घांत निकलकर आया कि सरकार विद्रोहों से बहुत निर्मम तरीके से निपटेगी लेकिन बातचीत का रास्ता कभी बंद नहीं होगा। एक वक्त आएगा जब विद्रोहियों को लगेगा कि वे कभी जीत नहीं पाएंगे।
उस वक्त राजनीतिक सौदेबाजी की स्थिति बनेगी। बीते दशकों के दौरान सभी प्रमुख समूहों ने राजनीतिक शक्ति के बदले शांति स्थापना में सहयोग किया। सरकार को अत्यंत लचीला रुख अपनाना पड़ा और कुछ नगा समस्याओं से निपटने के लिए संवैधानिक मोर्चे पर भी रचनात्मकता दिखानी पड़ी। इसमें संविधान के अनुच्छेद 370 और 371 ए (1) के प्रावधान शामिल रहे।तीसरा सिद्घांत पूर्वोत्तर के सर्वाधिक दूरदराज और व्यापक क्षेत्र में उत्पन्न हुआ जो हिमालय में तिब्बत (चीन) के समांतर भूटान से लेकर म्यांमार तक फैला था। ब्रितानियों ने भी इसके लिए विशिष्टï व्यवस्था कर रखी थी। यहां वधू मूल्य से लेकर रक्त मूल्य (जान का मुआवजा) जैसी जनजातीय प्रथाओं को लागू रखा गया। इसे नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) का नाम दिया गया। यहां करीब 84,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 15 लाख लोगों की आबादी थी लेकिन इस सप्ताह उठी समस्याओं के पहले वहां से कभी अलगाव या हिंसा की कोई चुनौती सामने नहीं आई। लेकिन चीन ने उस पर दावा ठोकने के बाद सन 1962 में आक्रमण कर दिया था। नेहरू ने मुख्य आईएएस के बजाय पूर्वोत्तर के लिए एक अलग कैडर बनाया था: इंडियन फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस। आईएफएएस के अधिकांश अधिकारी बहुत रोमांचक तबियत के थे। इसके बारे में मेरी अधिकांश जानकारी का स्रोत नरी रुस्तमजी हैं जो सन 1981-83 के दौरान अक्सर शिलॉन्ग में मेरे घर आया करते थे। उस वक्त वह इंपेरिल्ड फ्रंटियर्स: इंडियाज नॉर्थईस्टर्न बॉर्डरलैंड (ओयूपी, 1983) नामक शानदार किताब लिख रहे थे। वह कहते थे कि नेहरू जनजातियों को बेहतर ढंग से समझना चाहते थे और उन्होंने स्वशिक्षित अंग्रेज मानवजाति विज्ञानी वेरियन एल्विन से संपर्क किया।
एल्विन ने जनजातीय भारत को लेकर खासा काम किया था। वह भारतीय नागरिक बन गए थे और जनजातीय मसलों पर नेहरू के सलाहकार थे। एल्विन के रुख का सबसे अहम हिस्सा यह था कि वह जनजातीय लोगों को बाहरी प्रभाव से, खासतौर पर मुख्यभूमि के लोगों की इस भावना से बचाने के हिमायती थे कि इन लोगों को सुसंस्कृत करने की आवश्यकता है। इसकी वजह यह थी कि उनके पास निहायत खूबसूरत संस्कृति और रीति रिवाज पहले से थे। उन्होंने इसे अपने लेखन में विस्तार से चित्रित किया। रुस्तम जी इसे धीमी जल्दबाजी कहते थे। नेहरू ने इसे बढ़ावा दिया। रुस्तम जी को यह समझ आने लगा था कि यह सोच पुराना हो रहा है क्योंकि बदलाव अपरिहार्य हो चला था। नेहरू नेफा में चीन को लेकर भी भ्रमित थे। अगर चीन समर्थित नगालैंड के अलगाववादी नेफा पहुंच जाते तो? इसके पूर्वी छोर पर यानी तिरप इलाके में अरुणाचल की सीमा नगालैंड से लगी हुई है। चीन आसानी से वहां से प्रवेश कर सकता था। नेहरू इस बात को लेकर भी काफी क्षुब्ध रहते थे कि नगाओं की ओर विदेशी पादरी उनसे बात करते थे। ऐसे में फैसला किया गया कि ईसाई प्रचारकों को अरुणाचल प्रदेश (जिसका गठन होना था) से बाहर रखा जाए। वहां की जनजातियों को हिंदी भाषी शिक्षा के जरिये राष्ट्र की मुख्य धारा में लाया गया।
अरुणाचल पूर्वोत्तर का इकलौता हिंदीभाषी राज्य है। आप किरण रिजिजू से हिंदी में बात कर सकते हैं। मैं उस किस्से पर पूरा यकीन करता हूं कि इंदिरा ने नानाजी देशमुख से कहा था कि वह अरुणाचल प्रदेश में चर्च नहीं चाहती हैं और उसके बजाय हिंदू मिशनरीज चलेंगे। तब वहां रामकृष्ण मिशन और आरएसएस की स्थापना हुई। सन 1978 में जब केंद्र में जनता पार्टी का शासन था, तब अरुणाचल प्रदेश की विधानसभा ने धार्मिक स्वतंत्रता का अधिनियम पारित किया और धर्मांतरण लगभग असंभव हो गया। चर्च ने इसका विरोध भी किया। कुछ अन्य जटिलताएं भी पैदा हुईं। उदाहरण के लिए नगालैंड विधानसभा ने इस कानून की निंदा करता हुआ एक प्रस्ताव पारित किया। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पी के थुंगन ने इसे राज्य के अंदरूनी मामलों में दखल करार दिया। यह कानून कांग्रेस और आरएसएस के बीच व्यापक सैद्घांतिक सहमति के कारण बचा रहा। यही वजह है कि दिल्ली में सत्ता परिवर्तन के बावजूद अरुणाचल प्रदेश में यह सिलसिला जारी रहा। गेगॉन्ग अपांग ने कांग्रेस में वापसी से पहले संयुक्त मोर्चा और भाजपा के साथ साझेदारी में कांग्रेस की ही भूमिका निभाई । भाजपा के उदय के साथ यह सिलसिला कमजोर पड़ रहा है।
आरएसएस को इस क्षेत्र से विशेष लगाव है क्योंकि इसके प्रमुख विचारकों ने अपना जीवन यहां होम किया है। अरुणाचल की जनजातियों में से जहां कुछ बौद्घ और कुछ वैष्णव हैं, वहीं अधिकांश अतीत में जीववादी रही हैं। सबसे बड़ी जनजाति अदीस (गेगॉन्ग अपांग), यिशि (नोबाम तुकी) और अपातानी (पूर्व मुख्यमंत्री टोमो रीबा) सूर्य और चंद्र की उपासक हैं। आरएसएस की नजर में यह भला जीववाद कैसे हुआ? ङ्क्षहदू तो हमेशा से ग्रहों की पूजा करते रहे हैं। इन दिनों एक शनि मंदिर सुर्खियों में है। इन तमाम दशकों में कांग्रेस ने धीमी गति से अरुणाचल प्रदेश की जनजातियों के हिंदीकरण और देसीकरण का काम किया है। आरएसएस अब अरुणाचल में कांग्रेस की बी टीम नहीं रही। वह हिंदूकरण को तेज करना चाहती है। अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल का अधैर्य और असम और त्रिपुरा के राज्यपालों के कुछ बयानों को इस दृष्टि से देखा जा सकता है। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि तुकी यिशि समुदाय के होने के बावजूद उन दुर्लभ अरुणचालियों में से एक हैं जो ईसाई हैं।