विमुद्रीकरण या नोटबंदी 2019 के लिए मोदी का ‘आर या पार’ वाला दांव है। विपक्षी नेताओं को इसमें मौका दिख रहा है और वे इसे आसानी से कांग्रेस के हाथ में नहीं जाने देंगे
हमारे सबसे चर्चित विपक्षी नेताओं की हाल की हरकतों पर क्या कहा जा सकता है? ममता बनर्जी ने अचानक केंद्र के साथ जंग क्यों छेड़ दी है? अरविंद केजरीवाल ऐसे क्यों कर रहे हैं, जैसे अब उन्हें पंजाब की जगह दिल्ली में और सोशल मीडिया पर ही लड़ाई लडऩी है, उसी सोशल मीडिया पर, जिसका इस्तेमाल वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी ज्यादा असरदार तरीके से करते हैं? मनमोहन सिंह के तेवर राज्य सभा में अचानक क्यों चढ़ गए और राहुल गांधी आजकल लगातार दिल्ली में क्यों नजर आ रहे हैं? और आखिरी सवाल यह है कि बिहार में अपने सहयोगियों से उलट विमुद्रीकरण का समर्थन करने के पीछे नीतीश कुमार की मंशा क्या है? उनमें से कोई भी बिना सोचे-समझे यह सब नहीं कर रहा है। असल में मौसम सियासी है, इसीलिए सियासी अंगीठी गर्म हो रही है।
राजनीति में अब एक बात लगभग तय हो गई है… प्रधानमंत्री अपने पहले कार्यकाल में कोई अहम और जोखिम भरा कदम उठाते हैं। यह कदम आम तौर पर आधा कार्यकाल पूरा होते-होते किसी भी वक्त उठाया जा सकता है। यह कामयाब भी हो सकता है और नाकाम भी, लेकिन यह बाद के वर्षों की राजनीति को परिभाषित भी करता है और उस पर हावी भी रहता है। अटल बिहारी वाजपेयी का पोकरण-2 और मनमोहन सिंह का परमाणु सौदा सफलता के उदाहरण हैं। दोनों को दोबारा सत्ता हासिल हुई। नाकामी के नमूने राजीव गांधी के थे – शाहबानो मामले में मुस्लिम रूढि़वादियों का तुष्टीकरण और श्रीलंका में शांति सेना वाली भूल। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के विश्वनाथ प्रताप सिंह के फैसले ने उनका राजनीतिक करियर तो तबाह कर दिया, लेकिन देश की राजनीति बिल्कुल बदल दी। अब नरसिंह राव के अयोध्या, राजीव के बोफोर्स और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के इंडिया शाइनिंग जैसे गलत फैसले नहीं हो रहे हैं बल्कि बड़ा सियासी फायदा उठाने के मकसद से सोच-विचारकर साहस भरे कदम उठाए जा रहे हैं।
नरेंद्र मोदी का विमुद्रीकरण का फैसला जोखिम के इम्तिहान में कामयाब रहा है। इसका असर उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि 2019 में भी नजर आएगा और अगर यह बहुत ज्यादा कामयाब रहा तो बाद तक इसकी धमक सुनाई देती रहेगी। 2014 के बाद के भारत की राजनीतिक अब विमुद्रीकरण से पहले और विमुद्रीकरण के बाद की राजनीति के रूप में परिभाषित की जाएगी। यह बात सबसे पहले विपक्ष के प्रमुख नेताओं ने समझ ली है। उन्हें लगने लगा है कि इस कदम के साथ ही मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति को खोल दिया है। अगर आर्थिक राष्ट्रवाद के छौंक के साथ काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ यह लड़ाई 2019 तक उनकी राजनीति का आधार बनी रहेगी तो इसी मोर्चे पर उनसे लड़ाई करनी होगी। इसीलिए केजरीवाल ने इसे 8 लाख करोड़ रुपये का घोटाला कहा तो कांग्रेस ने इसे एक और ‘फेयर ऐंड लवली’ या ‘पे टु मोदी’ (पेटीएम पर व्यंग्य) तमाशा कहा, दीदी ने पहले इसे पूरी तरह वापस लेने की मांग की और बाद में केंद्र पर उनसे सत्ता छीनने के लिए सेना का इस्तेमाल करने का आरोप लगा दिया। अलबत्ता नीतीश सबसे धैर्यवान और कौटिल्य के बताए रास्ते पर चलने वाले लगे। उन्होंने विमुद्रीकरण का पूरी तरह समर्थन किया बशर्ते वह भ्रष्टाचार और काले धन का खात्मा करे। यह ‘शर्त’ महत्त्वपूर्ण है, जिसका मतलब वह उसी सूरत में बताएंगे अगर यह कदम पूरी तरह विफल साबित होता है।
कौटिल्य जैसे क्यों? आपने सुना होगा कि शत्रुओं द्वारा पाटलिपुत्र (आज का पटना) के सिंहासन से वंचित और निर्वासित किया गया किशोर चंद्रगुप्त फटी धोती पहने हुए एक गरीब ब्राह्मण से टकराया, जो बबूल के पेड़ की जड़ों में दूध डाल रहा था? उसने कहा कि उसकी धोती पेड़ में फंसकर फट गई, इसलिए वह बदला ले रहा है। चंद्रगुप्त ने ब्राह्मण को अपनी तलवार देते हुए कहा कि आप इसे काट ही क्यों नहीं देते। ब्राह्मण ने कहा कि इसे काट दिया तो फिर उग आएगा। इसीलिए वह इसकी जड़ में मीठा दूध डाल रहा है ताकि इसकी जड़ में चींटियां और दीमक लग जाएं और उसे खा जाएं। निर्वासित राजकुमार समझ गया कि सिंहासन हासिल करने में मदद करने वाले दिमाग की तलाश पूरी हो गई है और इसके साथ ही इतिहास को चाणक्य या कौटिल्य मिल गए। नीतीश अभी पटना के क्षत्रप हैं, लेकिन उनकी नजर दिल्ली पर लगी है। उन्हें लगता है कि मोदी बहुत खतरनाक रास्ते पर चल पड़े हैं, लेकिन गरीब उनके साथ हैं। इसलिए विरोध मत करो, मोदी की नाकामी और लोगों की नाराजगी का इंतजार करो। उसके बाद मोदी पर गलत फैसला लेने या अक्षम होने का आरोप आसानी से लगाया जा सकेगा।
विपक्षी खेमे के भीतर ही कड़ा मुकाबला शुरू हो गया है। आम तौर पर भारत में दो पार्टियों वाली राजनीति नहीं रही है। अतीत में कांग्रेस और गांधी परिवार हो या अब भाजपा और मोदी हों, हमारी राजनीति सत्तारूढ़ दल के साथ या उसके खिलाफ ही है। अब लड़ाई इस बात की है कि 2019 में मोदी के खिलाफ दावेदार किसे माना जाएगा।
अतीत के मुकाबले बड़ा परिवर्तन यह है कि सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता अब कहीं से दावेदार नहीं दिख रहे। सबसे बड़ा विपक्ष अब वास्तव में बड़ा नहीं रह गया और अपने नेतृत्व को लेकर उसमें ऊहापोह भी है। उसे यही नहीं पता कि राहुल को अध्यक्ष कब बनाना है या अमरिंदर सिंह को पंजाब में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कब घोषित करना है। इस पार्टी की लोकसभा में महज 45 सीट हैं और केवल कर्नाटक में उसकी सरकार बची है। इससे बाकी को यकीन हो गया है कि उनके लिए मोदी के खिलाफ दावेदार बनने की अच्छी संभावना हैं। यही वजह है कि केजरीवाल सीधे मोदी पर हमला करते हैं और पंजाब के बजाय गुजरात में समय और ऊर्जा खपाते हैं। इसीलिए ममता जीएसटी का रास्ता रोकने की धमकी दे रही हैं और कसम खा रही हैं कि मोदी को सत्ता ही नहीं बल्कि राजनीति से भी बाहर कर देंगी। साथ ही वह खुद को मोदी की राजनीति की असली शिकार भी बता रही हैं। इसीलिए यह कानाफूसी भी सही लग रही है कि वह अपनी हिंदी मांज रही हैं।
मोदी बहुत लोकप्रिय हैं, लेकिन उनके नाम से धु्रवीकरण भी होता है और अच्छा खासा वोट बैंक उनके खिलाफ भी है। लेकिन दिक्कत वही है कि विपक्ष एकजुट नहीं है। विपक्ष का झंडा बुलंद करने वाला कोई एक ही नेता होना चाहिए। 1989 में वीपी सिंह थे। उनका न तो वोट बैंक था और न ही अपनी कोई पार्टी। उन्होंने बोफोर्स का खुलासा करने वाले अपने नैतिक बल के दम पर यह कमी पूरी कर दी। लालकृष्ण आडवाणी ने वाजपेयी के साये में राजग खड़ा कर दिया और सोनिया गांधी संप्रग की निर्विवाद नेता थीं। नीतीश, ममता और केजरीवाल को लगता है कि वह जगह अब खाली है। उनका आज का रुख उसी की वजह से है। कांग्रेस का सूरज डूबता माना जा रहा है। 2014 में भी जो 10.7 करोड़ मतदाता उसके साथ थे, अब उन्हीं को लुभाने की कोशिश चल रही है।