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Wednesday, November 6, 2024
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अनशन की सियासत और शागिर्दों की दावत

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इरोम शर्मिला की कहानी में आया मोड़ आखिर हमें 1960 के दशक की देवांनद की ‘गाइड’ फिल्म की याद क्यों दिला रहा है? दरअसल यह फिल्म इसलिए पसंद आती है क्योंकि हम लोग 1960 के दशक में ही पले-बढ़े हैं। वह परेशानियों से भरा समय था और उस समय आमरण अनशन की राजनीति का काफी इस्तेमाल हुआ था। आर के नारायण के उपन्यास पर आधारित फिल्म गाइड में नायक धोखाधड़ी के आरोप में जेल जाने के बाद जब बाहर आता है तो वह सूखे से बेहाल एक गांव के मंदिर में शरण लेता है। गांववालों को लगता है कि इस युवा साधु को दैवीय शक्ति ने उनके गांव में बारिश के लिए ही भेजा है। लेकिन इंद्रदेव को प्रसन्न करने के लिए उस साधु को आमरण अनशन करना होगा। नायक राजू का किरदार निभा रहे देवानंद लोगों को यह समझाते हैं कि वह साधु नहीं बल्कि अपराधी हैं लेकिन कोई भी सुनने को तैयार नहीं होता है। इस अनशन की व्यर्थता का अहसास करने वाला राजू जीना चाहता है, यहां तक कि सामने रखे प्रसाद को चुराने की भी कोशिश करता है लेकिन वह इससे बच नहीं पाता है।

उस फिल्म के अंतिम दृश्यों में अनशन कर रहा नायक मौत के कगार पर पहुंच जाता है और उसी समय वह खुद से संवाद करता है। वह कहता है कि बादलों पर आखिर मेरे अनशन से क्या फर्क पडऩे वाला है? लेकिन उसे यह अहसास भी है कि उसके पलायन से गांववालों के दिल टूट जाएंगे। लिहाजा वह मौत का विकल्प चुन लेता है। बहरहाल, उसी समय बारिश होने लगती है और लोगों को आस्था भी सही लगने लगती है।

यह एक फिल्म थी और वो भी आधी सदी पहले आई थी। अब समय बदल गया है। लेकिन कुछ लोग हालात के शिकार होकर या निजी अहम और सामाजिक दबाव में आकर या सितारा बनने की चाहत में अपनी जिंदगी खतरे में डालने वाले आमरण अनशन का सहारा लेते रहे हैं। यह लोकतांत्रिक विरोध का सबसे ज्यादा आत्मघाती तरीका है जिसे अण्णा हजारे अनशन का नाम देते हैं। हालांकि अब कोई भी अपनी जान नहीं देना चाहता है। न तो आपके लिए और न ही आपके मकसद के लिए, एक नायक के तौर पर आप मुझे कितना भी महिमामंडित क्यों न करें? मुझे नाम और शोहरत पसंद है लेकिन मैं तो थोड़े कमतर पुरस्कार से भी संतोष कर लूंगा। कहा जाता है कि एक जीवित महावीर चक्र विजेता सैनिक परमवीर चक्र विजेता शहीद से कहीं बेहतर है। आखिर जान है तो जहान है।

शर्मिला के मन में भी इसी तरह के खयाल आए होंगे। बिखरे बालों वाली इस महिला के नथुनों में प्लास्टिक के पाइप लगे होते थे और चेहरा भी थोड़ा विकृत दिखता था, बावजूद वह एक मकसद के लिए जूझने वाले शुभंकर के तौर पर मशहूर हो गई थीं। लेकिन उनसे भी ज्यादा बड़ा मकसद वह उनके लिए बन गईं जो उनके नाम पर करियर बनाने में लगे हुए थे। सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं से लेकर मीडिया कंपनियों और टीवी चैनलों तक को शर्मिला की ही दरकार थी। लेकिन अब मीडिया के लिए भी शर्मिला की खास उपयोगिता नहीं रह गई है क्योंकि ब्रांड तो अपने पुराने रूप में ही कायम रहते हैं। इसका मतलब है कि एक ब्रांड के तौर पर शर्मिला की कीमत तभी तक थी जब तक वो अपनी जान देने पर तुली हुई थीं। अब वह चुनाव लड़कर मुख्यमंत्री बनना चाहती हैं ताकि वो मणिपुर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटा सकें। लेकिन क्या उन्हें यह नहीं पता कि मुख्यमंत्री के पास यह कानून हटाने का अधिकार नहीं है। या फिर उन्हें पता है कि पड़ोसी राज्य त्रिपुरा के मुख्यमंत्री अफस्पा हटाने के लिए केंद्र के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। इससे हिंदी पट्टी का एक बड़ा लोकप्रिय नारा झलकता है, ‘फलना-ढिमका तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं।’ हां, इस बीच मेरे लिए डोमिनोज से एक पित्जा, एक्सट्रा चीज और डाइट कोक मंगा देना।

दो हालिया मिसालें लेते हैं। रामलीला मैदान में अण्णा हजारे का विख्यात 12 दिवसीय अनशन खत्म होने के बाद हजारे की हालत इतनी खराब हो गई कि उन्हें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के सबसे बेहतरीन निजी अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा और उसके बाद उन्हें जिंदल नैचुरोकेयर इंस्टीट्यूट भेजा गया, जो भारत के अभिजात्य वर्ग के बीच बहुत लोकप्रिय है। उनसे अनशन के समय उनसे जुड़ों लोगों ने ही कहा कि उनके प्रमुख विश्वस्तों में एक स्वामी अग्निवेश सरकार के साथ ‘सौदेबाजी’ कर रहे थे। अण्णा को दीवार पर लिखी इबारत नजर आ रही थी लेकिन अहम आड़े आ रहा था, लिहाजा वह साल भर बाद जंतर मंतर पर फिर बैठे लेकिन इस दफा उन्होंने जोर दिया कि उनके प्रमुख शागिर्द अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, गोपाल राय भी अनशन पर बैठें। वह अनशन 10 दिन में खत्म हो गया, जिसे हमारे 24वें सेना प्रमुख ने तुड़वाया था जो उसी समय सेवानिवृत्त हुए थे। इसके बाद ज्यादा दिन नहीं गुजरे कि हमने टेलीविजन पर देखा कि अण्णा के रालेगण सिद्घि आश्रम में पूर्व सेना प्रमुख और गोपाल राय में काफी कहासुनी हो गई। तीसरा अनशन मुंबई में हुआ जो और छोटा रहा। इसमें बहुत ही कम लोगों ने शिरकत की और अब तक उन्हें एहसास हो गया था कि उनसे ‘बड़ा त्याग’ कराने में उनके ‘शागिर्दों’ को कोई नुकसान नहीं बल्कि और फायदा है तो उन्होंने खुशी से मुख्यमंत्री के दखल को स्वीकार कर लिया और वापस अपनी जड़ों की और लौट गए। जरा उस दौर में टीवी पर चलने वाली बहस की क्लिप खंगालिए। सभी कार्यकर्ता इस बात पर नाखुश थे कि उन्होंने अनशन खत्म कर दिया और केवल मेधा पाटकर ही इस मामले में ईमानदार रहीं जिन्होंने बिना हिचक यह बात कह भी डाली।

अण्णा ने अपना वजूद बचाए रखा। फिर भी अपने शागिर्दों के लिए काफी कुछ कर दिया। अब वे ऊंचे सरकारी पदों पर हैं, एक ने तो नेस्ले को टक्कर देते हुए कारोबारी साम्राज्य खड़ा कर लिया और एक अन्य भाजपा सरकार में मंत्री हैं। देश के सबसे बड़े लेखाकार, जिनके नुकसान के आंकड़ों में बढ़ते ‘शून्यों’ ने उनके अभियान को ईंधन मुहैया कराया, अब राष्ट्रीय नायक बन गए और इस सरकार में सेवानिवृत्ति के उपरांत कुछ पदों को सुुशोभित कर रहे हैं। मगर किसी के पास भी अण्णा के लिए फुरसत नहीं और यहां तक कि उस विख्यात अनशन की पांचवीं वर्षगांठ पर भी किसी ने उनके पास जाना गवारा नहीं समझा। यहां तक कि किसी ने सत्ता दिलाने के लिए उनका शुक्रिया भी अदा नहीं किया और उनके जन लोकपाल के लिए लडऩे की शपथ भी नहीं ली। अण्णा यह महसूस करके संतुष्टï होंगे कि भाई जान है तो जहान है…..

हमारी आखिरी मिसाल सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर का मौजूदा अनशन है। नहीं पता कि वह कितनी दफा अनशन पर जाने की धमकी दे चुकी हैं और कितने अनशन कर चुकी हैं। इसमें गूगल और विकीपीडिया भी मददगार नहीं होंगे। मगर हर अनशन उन्हें नुकसान पहुंचाने से पहले खत्म हो जाता है। मॉनसून के पहले संकेतों के साथ ही नर्मदा के किनारे किसी भी जगह से उनका नाम उभरने की आवाज सुनाई पड़ती है और अमूमन ऐसा मध्य प्रदेश में ही होता है क्योंकि गुजरात में उनके उतने खैरख्वाह नहीं। अनशन होंगे, जल समाधियां ली जाएंगी और फिर पत्रकारों से बातें होंगी। ऐसा लगता है कि वह इस बात को बखूबी समझती हैं, जिसे समझने में शर्मिला को 16 साल और अण्णा को महीना भर लग गया। लिहाजा शर्मिला, अण्णा और पाटकर के संदेश का एक ही मजमून है कि आप अपनी मुहिम से प्यार करते हैं, आप उसके लिए मरते हो। पुनश्च: चूंकि हमने देव आनंद की गाइड के साथ शुरुआत की थी: नारायण की किताब में अनशन कर रहा गाइड मर जाता है लेकिन वर्षा नहीं होती। देव आनंद ने मुझे बताया था कि उन पर फाइनैंसरों का भारी दबाव था कि अंत में वर्षा आए। आखिर कौन देव आनंद को बिना वजह मरते देखना चाहेगा कि वह मर भी जाएं और वर्षा भी न आए।

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