इस सप्ताह के ‘राष्ट्र की बात’ स्तंभ के शीर्षक को देखकर आप इसे कोई शरारत न समझें। मैं इस तरह के किसी भाव की उत्पत्ति का दावा भी नहीं करना चाहता। दरअसल पंजाब से ताल्लुक रखने वाले लोग मेमरी (स्मृति) को अंग्रेजी में ‘मैमरी’ कहते रहे हैं। मैंने भी पंजाब के बठिंडा के ही एक स्कूल से वर्ष 1966 में छठी कक्षा से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू की थी। दरअसल मैं देश के मशहूर नौकरशाह उपमन्यु चटर्जी की चर्चित किताब ‘द मैमरीज ऑफ द वेल्फेयर स्टेट’ से अपना शीर्षक उधार ले रहा हूं।
इसका बठिंडा और वर्ष 1966 दोनों से ही किसी न किसी तरह का संबंध है। यही वह जगह है जहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को नोटबंदी के अपने फैसले या ‘कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग’ का पुरजोर बचाव किया। वह अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की आधारशिला रखने के मौके पर बोल रहे थे। इस बात के लिए वर्ष 1966 का संदर्भ इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसी साल इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी थीं और इसे ‘समाजवादी’ रंग देने का कार्य आरंभ किया था। उन्हें विरासत में जंग और सूखे से बेजार हो चुका एक देश मिला था और इससे निपटने के लिए उन्होंने हमारे इतिहास की सबसे मुश्किल, सबसे कड़ी और अतार्किक राशन प्रणाली की शुरुआत की थी।
कुछ समय तक तो लोग निर्लिप्त भाव से इसे देखते रहे और पेट भरने लायक राशन से ही संतुष्ट होते रहे। लेकिन दो साल के भीतर ही नौकरशाही ने राशनिंग, नियंत्रण और अपनी शक्तियों में बढ़ोतरी के नए तरीके ईजाद कर इसे काफी दूर कर दिया। जिलों के कलेक्टर को यह अधिकार दिया गया था कि वे शादियों के लिए चीनी, मैदा और सूजी का कोटा तय कर सकते थे। केरोसिन तेल तो पहले से ही राशन प्रणाली का हिस्सा बना हुआ था। इस सूची में सीमेंट भी शामिल था (और सबसे आखिर में हटा)। दरअसल, इस समय केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों में सचिव और अतिरिक्त सचिव के रूप में तैनात अधिकतर अधिकारियों ने उस समय सीमेंट कोटा बांटा होगा। हालत यह थी कि सरकार के बारे में लोगों का नजरिया इस बात से तय होता था कि वहां पर राशन-कोटा प्रणाली किस तरह से काम कर रही है? इसमें कोई अचरज नहीं है कि इंदिरा के खिलाफ जनसंघ का सबसे लोकप्रिय नारा ‘इंदिरा तेरे शासन में, कूड़ा बिक गया राशन में’ हुआ करता था।
इन सबसे बेखबर समाजवादी राज्य का अभियान जारी रहा। वर्ष 1970 तक सस्ते और धूसर रंग वाले सूती कपड़े की बिक्री भी राशन कार्ड के जरिये होती थी। कुछ समय तक स्कूली बच्चों की नोटबुक भी राशन से ही मिलती थीं। इस पूरे अभियान में देश के लोकसेवकों को लगातार ताकत मिलती जा रही थी। मसलन, उन्हें यह तक तय करने का अधिकार था कि आपके बेटे-बेटी की शादी में कितने मेहमान आएंगे और उन्हें आप कितना हलवा परोसेंगे? समाजवादी सरकार ने बाद में यह तय कर दिया कि एक शादी में 25 से ज्यादा मेहमान नहीं आ सकते हैं। यह अलग बात है कि किसी ने भी इस नियम का पालन नहीं किया और इसका नतीजा यह होने लगा कि इंस्पेक्टर मेजबान पर अतिरिक्त मेहमानों की संख्या के एवज में जुर्माना लगाता था। अभाव के दौर से गुजर रही अर्थव्यवस्था का आलम तो यह था कि गर्मियों के दिनों में दूध की सीमित आपूर्ति को देखते हुए खोया, पनीर, बर्फी, गुलाब जामुन और रसगुल्ला पर प्रतिबंध लग जाता था।
समाजवादी शासन ने लोगों को अमीर और गरीब तथा शासक और शासित के बीच की खाई पाटने का सपना दिखाया था। लेकिन नतीजा इसके ठीक उलट था। संपन्न लोग जहां अधिक धनी होते चले गए वहीं बाकी लोग नौकरशाही का उपनिवेश बनकर रह गए। इस दौर में हमने अपनी मुफलिसी पर हंसना भी सीख लिया। जैसे कि, बठिंडा के एक किसान ने तोप के लिए लाइसेंस की अर्जी लगा दी थी। जब कलेक्टर ने उसे बुलाया तो उसने कहा, ‘हुजूर, जब मैंने अपनी बेटी की शादी के समय पांच क्विंटल चीनी मांगी थी तो मुझे 25 किलोग्राम चीनी दी गई थी। इसलिए मैंने सोचा कि पिस्तौल लेनी है तो तोप के लाइसेंस के लिए ही अर्जी लगा दूं।’
बॉलीवुड की फिल्मों में भी अधिकारी नकारात्मक भूमिका में नहीं दिखाई देते थे। मनोज कुमार की देशभक्ति वाली फिल्मों में जमाखोरी, कालाबाजारी करने वाला सूदखोर बुरे आदमी और खलनायक के तौर पर दिखाया जाता था लेकिन वह कभी भद्रलोक का अधिकारी नहीं होता था। वर्ष 1974 की सुपरहिट फिल्म ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ जब प्रदर्शित हुई थी तब महंगाई दर 27 फीसदी के आसमान तक पहुंच चुकी थी। उस फिल्म के एक गाने की पंक्तियों ‘बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई…’ में महंगाई की पीड़ा को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। आज इतने वर्षों बाद जब लोग फिर से लाइन में लगने के लिए मजबूर हैं तो अहसास हो रहा है कि इस बार तो मुद्रा की ही राशनिंग हो गई है। हम अपने ही बैंक खाते से पैसे निकालने के लिए लंबी कतार में लगने के लिए मजबूर हैं।
समाजवादी दौर की राशनिंग प्रणाली ने अत्यधिक भद्र लोगों की श्रेणी बना दी जिसका नतीजा यह हुआ कि समाज में काफी असमानता फैल गई और भ्रष्टाचार एवं कालेधन को भी खूब बढ़ावा मिला। वैसे खुद को कोड़े मारना फैशनपरक हो सकता है। हम यह भी कह सकते हैं कि भारतीय तो होते ही ऐसे हैं, वे आनुवांशिक रूप से बेईमान और भ्रष्ट होते हैं। सच तो यह है कि हम संपूर्ण नहीं हैं लेकिन हमारे राज्य, नेताओं समेत समूची व्यवस्था ने समाजवादी आत्म-विनाश के दौर में हमारे सामने कोई चारा भी नहीं छोड़ा था। वर्ष 1971-83 के दौरान ‘गरीबी हटाओ’ नारे वाले दौर में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में एक फीसदी की भी गिरावट नहीं आई थी। लेकिन उस समाजवादी राज की महिमा इतनी न्यारी है कि अब भी हम उसकी यादों में खोये रहते हैं और इंदिरा गांधी को स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी नेता मानते आए हैं।
गूगल के बाद की पीढ़ी का तो उस दौर से कोई नाता ही नहीं है लेकिन उनके मां-बाप ने वह दौर देखा हुआ है। इसी तरह नौकरशाही को भी पुराना दौर याद है। जब भी किसी तरह की राशनिंग या नियंत्रण की बात आती है तो इन अधिकारियों के मुंह में पानी आने लगता है। इससे पुराने, समाजवादी और कंट्रोल-राज की भी स्मृतियां ताजा हो जाती हैं। ऐसे में व्यवस्था भले ही बड़े नोटों को बंद करने के फैसले से अचरज में पड़ गई लेकिन उसने पुराने तरीके ही फिर आजमाने शुरू कर दिए। जैसे कि पुराने नोट बदलने के लिए आपको अपना पहचान-पत्र लेकर आना होगा। जब लोगों की भीड़ बढऩे लगी तो लोगों की उंगली पर स्याही लगाना शुरू कर दिया। जब नकदी कम होने लगी तो बदले जा सकने वाले नोटों की सीमा ही कर दी। जब इससे भी बात नहीं बनी तो नोट बदलना ही बंद कर दिया जबकि प्रधानमंत्री और रिजर्व बैंक दोनों ने वादा किया था कि 30 दिसंबर तक यह सुविधा बरकरार रहेगी। शादियों के लिए 2.5 लाख रुपये तक निकालने के मामले में भी यही रवैया देखा जा सकता है। आठ नवंबर के बाद नौकरशाही ने हड़बड़ी में जितने भी कदम उठाए हैं उनमें समाजवादी राज की जानी-पहचानी तरकीबों का इस्तेमाल किया गया है।
अगर आपको कोई संदेह है तो अपने पासपोर्ट पर जरा एक नजर डालिए। पासपोर्ट के कुछ अंतिम पन्नों में कई तरह के विवरणों के लिए जगह आवंटित है। यहां पर बैंक का क्लर्क विदेश ले जाने वाली विदेशी मुद्रा की जानकारी मुहर के साथ लिखता है और जब आप लौटकर आते हैं तो बची हुई मुद्रा की जानकारी भी देनी होती है। मतलब यह है कि जब भी आप संदेह में हों या घबराए हुए हों तो अतीत के किसी बेवकूफाना कदम को लागू कर दीजिए। आप देश बदलने के बारे में प्रधानमंत्री मोदी के दृढ़निश्चय को लेकर संदेह नहीं कर सकते हैं लेकिन अगर वह यह उम्मीद करते हैं कि समाजवादी दौर की खुशनुमा यादों से चिपकी नौकरशाही के सहारे इसे हासिल कर लेंगे तो संदेह जरूर होगा।