भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पहले भी देश की सत्ता संभाल चुकी है, लेकिन इस साल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक का विजयादशमी को होने वाला परंपरागत भाषण पहली बार राष्ट्र के नाम संबोधन जैसा लगा। इसकी वजह साफ है। असल में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का संघ से बहुत करीबी नाता नहीं लगता था, लेकिन भाजपा के नेतृत्व वाली मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) एकदम संघ की सरकार है। मगर यह खराब बात नहीं है क्योंकि जनसंघ या भाजपा के हाथ में केंद्र की सत्ता होने पर नई दिल्ली और नागपुर के बीच तनाव का जो बहाना बनाया जाता था, वह अब नहीं चलेगा। अब वाजपेयी जैसा बहाना नहीं बनाया जाएगा कि उनकी नीतियों खास तौर पर आर्थिक नीतियों का संघ विरोध कर रहा है।
नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से हमने ऐसा कोई मतभेद नहीं देखा है क्योंकि हिंदुत्व में अपनी आस्था को मोदी खुद भी नहीं छिपाते। वह तो मानते हैं कि जब गुजरात की सत्ता उन्होंने इतनी अच्छी तरह से संभाली तो केंद्र की सत्ता संभालने में क्या दिक्कत है। इसलिए संघ के प्रति उनका रवैया अलग है। वाजपेयी संघ के नेताओं (जिनमें ज्यादातर बुजुर्ग थे) का निजी तौर पर बहुत सम्मान करते थे और संघ पदाधिकारियों के चहेतों और परिजनों को भाजपा के मंत्रियों तथा मुख्यमंत्रियों से ठेके, कर्ज, सौदे और दूसरे फायदे मिलने देते थे। लेकिन संघ और तत्कालीन सरसंघचालक के एस सुदर्शन के साथ वाजपेयी के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं थे। वह अकेले में संघ पदाधिकारियों पर चुटकुले सुनाते थे, लेकिन उनमें कड़वाहट नहीं स्नेह होता था, जैसे आप अपने दादाजी की नकल उतारते होंगे। वह उन्हें संस्कृति और मानव संसाधन विकास मंत्रालयों में टांग अड़ाने देते थे, जो उन्होंने अपने दोस्त और संघ के पसंदीदा मुरली मनोहर जोशी (जिन्होंने वाकई भौतिक विज्ञान में पीएचडी की है और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के तौर पर पढ़ा भी चुके हैं) के हवाले कर दिया था। लेकिन अर्थव्यवस्था, विदेश नीति और आतंक के खिलाफ अभियान तथा पाकिस्तान के साथ रिश्तों के मामले में वह किसी को नहीं बोलने देते थे। उन्होंने बेहद मुश्किल सालों में भारत की बागडोर संभालते हुए करगिल और संसद पर हमले के बाद के दिनों में पूरे रौब के साथ रणनीतिक संयम बनाए रखा। सरसंघचालक का दशहरा भाषण तब भी पहले पन्ने पर होता था, लेकिन आज जैसी अहमियत नहीं होती थी। इसीलिए जिन लोगों को अब दूरदर्शन पर मोहन भागवत के दशहरा भाषण के सीधे प्रसारण से शिकायत है, वह उसकी खबरिया अहमियत को भूल रहे हैं। नई व्यवस्था राजनीतिक हकीकत है।
संघ की वैचारिक बुनियाद एकदम सीधी है। उसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और ‘गुरुजी’ माधव सदाशिव गोलवलकर और कुछ हद तक विनायक दामोदर सावरकर (हिंदू राष्ट्रवाद का विचार देने वाले) मानते थे कि भारतीय (हिंदू) संस्कृति, दर्शन और विज्ञान दुनिया में सबसे श्रेष्ठï है। गोलवलकर और हेडगेवार बताते थे कि कैसे पश्चिमी ताकतों के अधीन लोग दबे-कुचले और तकलीफों में घिरे हैं, जबकि ‘अतीत’ में दक्षिण-पूर्व एशिया में जिनके पास हम पहुंचे, उन्हें फायदा ही हुआ और उनमें से कुछ (जैसे इंडोनेशिया) बाद में बेशक मुसलमान हो गए, लेकिन उनके नाम और जीवन-शैली आज भी हिंदू हैं।
पश्चिम के प्रति संघ का डर भी अजीबोगरीब है। वह पश्चिम के मूल्यों को नकारता है, उसके मकसद पर शक करता है, लेकिन उसे प्रभावित करने की बालहठ भी करता है। स्वामी विवेकानंद उस वक्त जादुई शख्सियत बन गए, जब उन्होंने शिकागो में अपना मशहूर भाषण दिया और आध्यात्मिक रूप से कंगाल और भौतिक समृद्घि वाले अमेरिकी श्रोताओं को दीवाना बना दिया। हिंदू राष्ट्र से हरेक अल्पसंख्यक को बाहर नहीं कर दिया जाएगा। संघ का राष्ट्रवाद या हिंदुत्व ऐसा होगा, जिसे अल्पसंख्यक भी खुशी से कबूल कर लेंगे और मानने लगेंगे कि किसी इस्लामी या ईसाई देश के बनिस्बत वे हिंदुस्तान (संघ को ‘हिंदुस्थान’ कहना पसंद है) में ज्यादा खुश हैं। इसे भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति का ‘कलाम पैमाना’ कहा जा सकता है। इसमें अल्पसंख्यकों को आंबेडकर के संविधान से भी ज्यादा हिंदुत्व की उदारता का शुक्रिया अदा करना होगा, जो उनके धर्मों से कहीं ज्यादा पुराना है। इस साल के भाषण में आंबेडकर को खूब सम्मान दिया गया। हिंदू धर्म त्यागने और बौद्घ धर्म अपनाने के उनके फैसले को मान लिया गया और इस बात पर भी जोर दिया गया कि पूरे 20 साल सोचने के बाद उन्होंने यह फैसला लिया। लेकिन उनके संविधान की ज्यादा बात नहीं की गई। कुल मिलाकर संघ को पश्चिम का उभार तो पसंद है, लेकिन उसके सांस्कृतिक असर से वह डरता है। वह मानता है कि दर्शन का प्रसार पूर्व से पश्चिम की ओर होना चाहिए। अपनी विदेश यात्राओं पर जनता से जमकर मेल-मुलाकात करने वाले मोदी इस जरूरत को पूरा करते हैं। संघ के पुराने लोग उन्हें कुछ हद तक आधुनिक, जेट पर सवार विवेकानंद मानते होंगे, जो दुनिया भर में अच्छी बातें ले जाएंगे।
संघ के विचारक उस वक्त मुश्किल में पड़ जाते हैं, जब वे 2014 के जनमत का मतलब भी यह निकाल लेते हैं कि उन्हें भारत में सांस्कृतिक बदलाव लाने का अधिकार मिल गया है। मैं सरसंघचालक से कहना चाहता हूं कि विविधता के साथ भी आप भारतीय समाज को एकजुट कर सकते हैं। सभी पर समान रूप से लागू होने वाले एकसमान कानून, एकसमान नीतियों का उनका आह्वान असल में बहुसंख्यकों के प्रभुत्व की बात करता है और यह टिक नहीं सकता। आबादी पर नियंत्रण का उनका विचार पुराना है, गहरे अर्थों वाला है और आपको बताता है कि आपातकाल के खिलाफ लडऩे के बाद भी संघ के लोगों का एक बड़ा तबका संजय गांधी का प्रशंसक था क्योंकि उन्होंने नसबंदी और झुग्गियों के सफाये के अपने अभियान में मुसलमानों को निशाना बनाया था। इसीलिए उनकी पत्नी मेनका गांधी और तुर्कमान गेट से मशहूर हुए अफसरशाह जगमोहन बाद में भाजपा के चहेते बन गए तो अचरज कैसा? कहने की जरूरत नहीं कि संजय के करीबी और वफादार बंसीलाल ने भी इसी वजह से बाद में भाजपा का हाथ थाम लिया।
आबादी नियंत्रण की गुहार आंकड़ों की वजह से नहीं बल्कि मनोविकार की वजह से है। आबादी पर काबू का शिक्षा और संपन्नता से बड़ा जरिया कोई नहीं है। भारत की आबादी बढऩे की दर (करीब 1.4 फीसदी) उम्मीद से ज्यादा कम हुई है और मुसलमानों की वृद्घि भी घट रही है। कमाई बढऩे और लड़कियों के स्कूल जाने से ऐसा खुद-ब-खुद हो रहा है। भारत की विविधता कुछ दशकों में बढ़ गई है। संघवाद बढऩे से राज्यों के नेताओं को संविधान से ज्यादा ताकत मिल रही है, जिसे वे और बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए कई राज्य, खास तौर पर भाजपा शासित राज्य खुद के श्रम और भूमि कानून बना रहे हैं। कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक सीमावर्ती राज्य अपनी जरूरतों के हिसाब से कानून बना रहे हैं। मसलन गोहत्या कश्मीर के रणवीर पैनल कानून के मुताबिक अपराध है। इससे भारत मजबूत हो रहा है, कमजोर नहीं। इसे पलटने का विचार खयाली पुलाव ही होगा। इसलिए विविधता में एकता की बात करने की कोई जरूरत नहीं है। भारत में ज्यादा एकता है। इसलिए मेरी राय में संघ को आधुनिक भारत के मुताबिक ढालने के लिए सरसंघचालक को दो चीजें बदलनी चाहिए – उसका गणवेश और विविधता में एकता का उसका नारा, जिसके बजाय विविधता का आनंद लेने की बात कही जा सकती है।