मुंबई में गुंडागर्दी की ओर शिवसेना की वापसी की प्रेरणा साफतौर पर सत्ता की राजनीति से निकली है। किंतु मेरे प्रिय मित्र सुधींद्र कुलकर्णी को निशाना बनाकर उसने वाकई बहुत बुरी गलती की है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी के राजनीतिक व कूटनीतिक संस्मरण की किताब ‘नीदर अ हॉक नॉर अ डव’ के अंशों के पाठन के साथ विमोचन समारोह आयोजित करने की गुस्ताखी करने पर उनके चेहरे पर कालिख पोत दी गई। कुलकर्णी प्रतिष्ठित आंदोलनकारी, विद्वान और लेखक हैं। वे मराठी माणुस भी हैं और आईआईटी पवई में पढ़े भी हैं। उन्हें वाम और दक्षिणपंथी दोनों ओर से निशाना बनने की आदत है। हालांकि, वे काफी कुछ बर्दाश्त करने में सक्षम और सीधी रीढ़ वाले व्यक्ति हैं। याद करें कि ‘वोटों के लिए नकदी’ प्रकरण में यूपीए द्वारा निशाना बनाए जाने के बाद उन्हें तिहाड़ जेल जाना पड़ा।
यह तब हुआ जब उन्होंने एक न्यूज़ चैनल (सीएनएन-आईबीएन) को स्टिंग ऑपरेशन में भागीदार होेने के लिए राजी किया। इसमें 2008 में परमाणु सौदे पर मत विभाजन की पूर्व संध्या पर कांग्रेस व इसके समर्थकों द्वारा विपक्ष के सांसदों को खरीदने की कोशिश का पर्दाफाश करना था। चैनल तो बच निकला और कुलकर्णी को गिरफ्तार कर जेल में विचाराधीन कैदी की तरह रखा गया। मीडिया की दशा पर मेरे लेखन और चर्चाओं में मैंने कई बार इसे किसी खबर के ‘स्रोत’ के जेल जाने का दुर्लभ उदाहरण बताया। उनसे उन्हीं पत्रकारों ने पल्ला झाड़ लिया, जिनकी वे मदद करने गए थे। मुझे यह भी स्वीकार करना होगा कि तब उस चैनल के संपादक रहे राजदीप सरदेसाई में वह पेशेवर साहस था कि उन्होंने यह गलती सार्वजनिक रूप से और 2014 के चुनाव पर अपनी किताब में स्वीकार की। भाजपा में एक्टिविस्ट के रूप में और वाजपेयी व आडवाणी के नजदीकी तथा विश्वस्त सहयोगी के रूप में भी कुलकर्णी का अपना स्वतंत्र दृष्टिकोण था, जो भाजपा की रूढ़िवादी धारा से भिन्न था। मुझे यह भी बताना चाहिए कि जब मैं इंडियन एक्सप्रेस का संपादक था तो वे संडे ओपिनियन पेज के लिए कॉलम लिखते थे। जब सितंबर 2012 में नई दिल्ली के गांधी स्मृति में उनकी पुस्तक ‘म्यूज़िक ऑफ द स्पिनिंग व्हील : महात्मा गांधीज मैनिफेस्टो फॉर इंटरनेट एज’ के विमोचन के अवसर पर उन्होंने वक्ताअों में मुझे भी चुना तो मैंने खुद को सम्मानित महसूस किया।
वे पक्के गांधीवादी है। हालांकि, मैं तथा कई अन्य समकालीनों को उनके विचार पुराने लगते हैं और उनसे असहमत भी हैं। यदि शिवसेना का इरादा डराने-धमकाने का था तो उन्होंने एकदम गलत व्यक्ति का चुनाव किया। कुलकर्णी ने तो कसूरी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में चेहरे पर कालिख के साथ मौजूद होकर शिवसेना पर वार उलट दिया। उन्होंने देश को याद दिलाया कि शिवसेना ने उन पर तब कालिख फेंकी जब वे तिरंगे का प्रतिनिधित्व करने वाले कपड़े पहने थे। यह विरोधियों को शर्मिंदा करने का बहुत ही नफासतभरा तरीका है। इससे मुझे अपने कॉलेज के जमाने का वाकया याद आया। चौधरी बंसीलाल तब हरियाणा के मुख्यमंत्री थे और विद्युत मंडल यूनियन के प्रदर्शनकारियों ने काले झंडे से उनका स्वागत किया। उन्होंने कहा, ‘आपको लगता है कि काले झंडे देखकर मैं डर जाऊंगा? जब मैं पैदा हुआ था तो मेरी मां 12 गज का काला घाघरा पहने हुए थीं। मैं उससे नहीं घबराया तो कुछ काली झंडियां मुझे अब कैसे डरा सकती हैं?’ लेकिन वह बेबाक हरियाणा था और यह शिष्ट महाराष्ट्र है।
दूसरी तरफ न तो महाराष्ट्र की राजनीति शिष्ट है और न शिवसेना जिस तरह से इसमें अपना स्थान देखती है, वह शिष्ट है। पिछले 15 वर्षों में पार्टी का लगातार पतन हुआ है। यह किसी एक कारण से नहीं हुआ है जैसे बालासाहेब ठाकरे का स्वास्थ्य व उम्र, उनकी जगह लेने में उद्धव की नाकामी, उनके चचेरे भाई राज का सुर्खियां बटोरने वाले नेता के रूप में उदय या भाजपा के प्रभाव का बढ़ना। जाहिर है कि इन सबका मिला-जुला असर हुअा है। परंतु सबसे बड़ा राजनीतिक तथ्य तो बाल ठाकरे द्वारा की गई रणनीतिक महाभूल रही, जिसे शिवसेना का कोई नेता या विचारक सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करेगा।
शिवसेना को हमेशा से स्थानीय ताकत की तरह आगे बढ़ाया गया, जिसका स्थानीय और बाद में नस्ली/भाषाई एजेंडा रहा। कांग्रेस ने शुरुआती उदय में इसकी मदद की (इसकी कुछ झलक अनुराग कश्यप की ‘बॉम्बे वेलवेट’ के उस दौर के सेट में दिखाई देती है)। कांग्रेस के स्थानीय दिग्गजों ने मिल-मालिकों और बिल्डरों से मिलकर वामपंथी-समाजवादियों और तब माफिया (दत्ता सामंत) द्वारा संचालित मजदूर संगठनों को नष्ट करने में शिवसेना का इस्तेमाल किया। बालासाहेब ने तब मराठी भाषा और मराठी माणुस, जैसा कि वहां के जमीनी आदमी को कहा जाता है, की भावना को भुनाया। 1992 में बाबरी विध्वंस के आस-पास के महीनों में जाकर शिवसेना पूरी तरह हिंदू सांप्रदायिक शक्ति के रूप में उभरी। इसने न सिर्फ आरएसएस से स्पर्द्धा की बल्कि उसे हाशिये पर भी कर दिया। वह अब तक उससे बाहर नहीं निकल पाई है।
यह कुछ समय तक बखूबी चला खासतौर पर तब जब समान उद्देश्य के साथ इसने भाजपा से हाथ मिलाया, महाराष्ट्र में और खासतौर पर मुंबई महानगर की अत्यधिक धनी महानगर पालिका में सत्ता हासिल की, जो संरक्षण व संसाधनों के लिए पार्टी की एटीएम बन गई। किंतु वह ‘महाराष्ट्र-वाद’ पर लौटने की बजाय ‘हिंदुत्व-वाद’ की लाइन पर चलती रही। यह घातक भूल थी, क्योंकि जब नरेंद्र मोदी का उदय हुआ तो हिंदुत्व समर्थक को किसी और ताकत को समर्थन देेने की जरूरत नहीं रही। हिंदू एजेंडा पूरी तरह मोदी की भाजपा के पास चला गया, जो गठबंधन में कहीं ज्यादा बड़ी सहयोगी बन गई और इस तरह राज्य के राजनीतिक समीकरण को पूरी तरह उलट दिया। सेना अब जूनियर पार्टनर है और गठबंधन छोड़ने के बाद इसे इसमें लौटने के लिए गिड़गिड़ाना पड़ा। वह भाजपा और इसके मुख्यमंत्री से नफरत करती है। खासतौर पर इसलिए कि इसने मुबंई में राजनीतिक माफिया और दलों (कभी-कभी पर्यायवाची) की अामदनी के पुराने जरिये बंद कर दिए हैं। किंतु वह बृहन्मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन पर नियंत्रण खोने के डर से भाजपा से अलग भी नहीं हो सकती। यह अपना खोया रुतबा और ताकत वापस पाना चाहती है। वह अपनी सुर्खियां और महानगर पर अपनी दादागिरी भी वापस चाहती है, जो पहले इसके पास थी। उसे भरोसा है कि वह अपनी वरिष्ठ सहयोगी भाजपा और उसके मुख्यमंत्री को नीचा देखने पर मजबूर कर ऐसा कर सकती है। मुख्यमंत्री को तो वह बाहरी और जबरन घुस आए व्यक्ति के रूप में देखती है। कुलकर्णी, गुलाम अली, कसूरी तो सिर्फ इस हताशा के परोक्ष शिकार भर हैं।