क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्राओं का इस्तेमाल एक बड़े एजेंडा का निर्माण करने में कर पाएंगे?
एक टैक्सी चालक की जुबानी कुछ चतुराई भरी बात कहलवाना पत्रकारों का बहुत पुराना तरीका है और इस पर हंसी ठिठोली शुरू होते भी देर नहीं लगती। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि टैक्सी चालकों की ओर झुकाव ही खत्म कर दिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि वे हम पत्रकारों के मुकाबले कहीं ज्यादा सुनते और देखते हैं। खासतौर पर अगर वे न्यूयॉर्क के टैक्सी चालक हैं तब और भी ज्यादा। इस सप्ताह उन्हें पोप की यात्रा ही सता रही थी। पोप की यात्रा हर बार परिवहन व्यवस्था को छिन्नभिन्न कर देती है और ऐसे में अगर टैक्सी चालक इससे नफरत करते दिखें तो आश्चर्य नहीं। लेकिन उनके बीच एक और राष्टï्राध्यक्ष का जिक्र हो रहा था जो संयुक्त राष्टï्र महासभा में बोलने के लिए जुटे दुनिया भर के शीर्ष नेताओं में से एक हैं।
नरेंद्र मोदी साल भर में दूसरी बार न्यूयॉर्क की यात्रा पर हैं और इस बार पहले जैसा शोरगुल नहीं है। लेकिन वह तीसरे विदेशी राष्टï्राध्यक्ष हैं जिसके बारे में न्यूयॉर्क में इस सप्ताह खूब चर्चा हुई। ऐसा मोटे तौर पर इसलिए होता है क्योंकि उनके आने पर देसी प्रशंसक खूब माहौल बनाते हैं। उनके आगमन पर रंगीन पोशाक, पगडिय़ां, ढोल, पोस्टर और बैनर जिनमें उनको भारत को आधुनिक बनाने वाला महान नेता बताया जाता है, आदि खूब देखने को मिलते हैं। लेकिन मैनहटन के पूर्वी निचले हिस्से में लघु भारत कहे जाने वाले इलाके में ऐसे भी लोग जुटते हैं जो उनको हत्यारा कहते हैं। मोदी विदेशों में भी उसी तरह का ध्रुवीकरण कर देते हैं जैसा देश में देखने को मिलता है। लेकिन वह न्यूयॉर्क में ऐसे पहले भारतीय नेता हैं जिन पर टैक्सी चालक भी ध्यान देते हैं।
यह बात ध्यान देने लायक है कि केवल एक वर्ष में मोदी दुनिया के सबसे व्यस्त शहर में भी सबसे चर्चित वैश्विक नेताओं में शुमार हो गए हैं, जो किसी राजनीतिक परिवार से नहीं आते, सीमित अंग्रेजी बोलते हैं और शैक्षणिक योग्यता के मामले में भी भारत के कई पूर्व प्रधानमंत्रियों के बराबर नहीं हैं। एक साल पहले तक तो उनको पश्चिम दुनिया में जाने तक की इजाजत नहीं थी। लेकिन टैक्सी चालकों की बात की जाए तो वह उनकी परीक्षा में कामयाब नजर आते हैं।
मुझे सन 1991 में वॉशिंगटन पोस्ट के तत्कालीन मालिक और प्रकाशक डॉन ग्राहम के साथ हुई बातचीत याद आती है। यह बातचीत इसी विषय पर आधारित थी कि पोस्ट समेत तमाम अमेरिकी मीडिया में भारतीय नेताओं को कितनी कम चर्र्चा मिलती है, जबकि इसके बरअक्स पाकिस्तान और बेनजीर भुट्टïो को खूब तवज्जो दी जाती। ऐसा तब था जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने देश की अर्थव्यवस्था के द्वार पश्चिम के लिए खोल दिए थे। (अनभिज्ञता का आलम यह था कि एक साल बाद अमेरिकी संसद के संयुक्त सत्र में उन्हें परिचित कराते वक्त सदन के स्पीकर ने उन्हें नर शर्मा राव कह दिया)। बहरहाल मेरे प्रश्न पर सफाई देते हुए ग्राहम ने कहा, ‘हम अमेरिकियों को उन देशों या समाजों पर ध्यान देने में कठिनाई होती हैं जहां मजबूत नेताओं या वंशों का अभाव होता है।’
पूरे 25 साल बाद मोदी ने उस कमी को दूर किया है। भले ही उनके पास नेहरू या इंदिरा जैसा कद न हो या फिर राजीव गांधी जैसा युवा आकर्षण न हो लेकिन वह अपनी सत्ता, प्रभुता से उसकी भरपाई करते हैं। वह क्षमाशील नहीं हैं। वह बहिर्मुखी और बातूनी हैं किसी भी आम भारतीय की तरह। यही वजह है कि जब मीडिया से बात नहीं कर रहे होते तब भी वह उन पर ध्यान देता है। न केवल रूपर्ट मर्डोक उनसे मिलते हैं बल्कि हम देखते हैं कि चीन में परेशानी झेल रहे बड़े कारोबारियों की दृष्टिï उनकी ओर है और उनसे कतई युवा वैश्विक नेता उनके बेहद अनौपचारिक व्यवहार की ओर खिंच जाते हैं।
मोदी ने प्रवासी भारतीयों का भी बखूबी इस्तेमाल किया। न्यूयॉर्क में बड़ी संख्या में गुजराती हैं। उनमें से अधिकांश कारोबारी, किराना दुकान वाले,मोटेल मालिक, आव्रजन का काम करने वाले वकील आदि हैं। उनकी वजह से भी मोदी चर्चा में हैं। उनकी पिछली अमेरिका यात्रा पर इन लोगों ने मैडिसन स्क्वायर भर दिया था और यह बात खूब चर्चा में रही। लेकिन अब वह प्रौद्योगिकी से जुड़े भारतीयों को अपने पाले में कर रहे हैं। प्रवासी गुजरातियों की तरह वे केवल भाजपा समर्थक नहीं हैं बल्कि बहुत प्रभावशाली भी हैं। यही वजह है कि वह सिलिकन वैली जा रहे हैं और फेसबुक मुख्यालय में समय बिता रहे हैं। ओबामा के बाद मोदी सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने में सबसे सफल नेता हैं।
सवाल यह है कि क्या वह इस वैश्विक प्रभाव का इस्तेमाल घरेलू नीतियों में करेंगे या देश के विदेश नीति से जुड़े हितों पर काम करेंगे। अक्सर यह कहा जाता है कि संयुक्त राष्टï्र महासभा के सालाना आयोजन में आने वाले विभिन्न देशों के नेता जो लंबे-लंबे भाषण देते हैं वे केवल उनके देश के लोगों के लिए होते हैं। मोदी भी यकीनन कुछ हद तक ऐसा ही करेंगे। लेकिन उनके पास यह मौका भी होगा कि वे अपने नए कद को देश की विदेश नीति के हित में इस्तेमाल करें।
भारत और अमेरिका के रिश्ते दो दशक से लगातार बेहतर हुए हैं लेकिन उन्होंने इसे नई गति दे दी है। उनमें कांग्रेसी सरकारों का संकोच और झिझक नदारद है। प्रमुख अमेरिकी नीतिकारों का कहना है कि अमेरिका ने जहां मनमोहन सिंह और वाजपेयी सरकार के साथ आपसी विश्वास के उष्ण रिश्ते का लुत्फ उठाया लेकिन उनमें से कोई भी मोदी जैसा उत्साही, ऊर्जावान और बेहिचक नहीं था। मोदी ने भारतीय नीतिगत प्रतिष्ठïान में पुराने अमेरिका विरोध को समाप्त किया। वह हथियारों के ऑर्डर का इस्तेमाल विदेश नीति के उपाय के रूप में कर रहे हैं। पेरिस में राफेल खरीद घोषणा और यात्रा की पूर्व संध्या पर अमेरिकी हेलीकॉप्टर खरीद घोषणा इसका हिस्सा है।
उन्होंने पाकिस्तान और चीन के साथ दमघोंटू त्रिकोण को तोडऩे की मनमोहन सिंह की नीति में कई बदलाव किए हैं। सिंह पाकिस्तान तक पहुंच बनाना चाहते थे तो मोदी चीन को प्राथमिकता देते हैं। उनकी नई पाकिस्तान नीति की रूपरेखा भी नजर आ रही है। वह पाकिस्तान के चार सबसे बड़े समर्थकों, अमेरिका, चीन, संयुक्त अरब अमीरात और अब सऊदी अरब को उससे दूर करने के लिए प्रयासरत हैं।
नई दिल्ली में बलात्कार के आरोपी सऊदी कूटनयिक या भारतीय श्रमिक की पिटाई का वीडियो सामने आने पर भारत का बहुत शोरगुल न करना यही दर्शाता है। मोदी सऊदी अरब की यात्रा की योजना के लिए कोई खतरा नहीं चाहते। उनके आकलन के मुताबिक उपरोक्त चारों देशों का समर्थन मिलने पर पाकिस्तान को खुदबखुद अपनी नीतियां मध्यम करनी होंगी।
विदेश नीति सब्र का लेकिन मोटे तौर पर रूढि़वादी काम है। इस कोशिश में एक दूसरे से बेहतर ताल्लुकात, बढिय़ा संचार और उभरते भारत की तस्वीर मददगार हो सकती है। उनके आलोचक भी मानेंगे कि मोदी में ये तमाम गुण खूब हैं। उन्हें साबित करना होगा कि वह भावनाओं में नहीं बहते हैं। अब उनके पास अवसर है कि उन्होंने अपनी संवाद प्रतिभा और कड़ी मेहनत से जो माहौल तैयार किया है उसका फायदा उठाते हुए वैश्विक स्तर पर सफलता की नई दास्तान लिखें।