आखिर नीतीश कुमार के मन में क्या है? बिहार मद्यनिषेध और आबकारी अधिनियम 2016 के जरिए उनने शराब के खिलाफ जो राह चुनी है उस पर हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, माओवादी या सेक्युलर कभी कोई नहीं गया। अब अगर कोई व्यक्ति घर में शराब छिपाता है तो उसका पूरा परिवार दोषी होगा। यानी अगर आपकी किशोरवय संतान बिना आपको बताए घर में शराब छिपाती है तो आप भी पकड़े जाएंगे। अगर पुलिस को आपके घर में अंगूर में चीनी या गुड़ मिले हुए प्राप्त होते हैं तो पुलिस को यह मानने का पूरा अधिकार होगा कि आप शराब बना रहे हैं। अगर आप घर के मालिक हैं तो यह आपकी कानूनी जिम्मेदारी होगी कि आप शराब पीने वाले किरायेदार की सूचना पुलिस को दें। जरा सोचिये क्या हो अगर एक मकान मालिक किरायेदार से कहे कि दोगुना किराया चुकाओ वरना मैं तुम्हारी गैरमौजूदगी में घर में शराब की बोतल छिपाकर पुलिस को बुला दूंगा। जिलाधिकारी किसी के अपराध दोहराने पर पूरे गांव पर जुर्माना लगा सकता है। जी हां, यह 19वीं सदी के औपनिवेशिक कानून का 21वीं सदी में किया जा रहा नवाचार है। वह भी ऐसा कानून जिसका प्रयोग शायद ही कभी शराबबंदी के लिए किया गया हो।
अगर आपको लगता है कि न्यायिक विलंब का सहारा लेकर बच जाएंगे तो भूल जाइए। आप बिहार में हत्या करके, जेल से माफिया राज चला के और वहीं से पत्रकारों की हत्या कराके बच सकते हैं लेकिन शराब से जुड़े अपराधों की सुनवाई विशेष अदालतों में होगी। संदेह की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। मुख्यमंत्री के इरादों और उनकी बातों को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह अपने आप में परिपूर्ण मसौदा कानून है। परंतु मेरे जैसे सतत जिज्ञासु कुछ प्रश्न अवश्य करेंगे। जिलाधिकारी को किसी आदतन शराबी को छह माह के लिए तड़ीपार करने का अधिकार होगा। प्रश्न यह है ऐसे व्यक्ति को कहां भेजा जाएगा? पड़ोसी गांव या जिले में? या फिर बिहार उसे मुंबई भेज देगा? बहरहाल, आप अगर एक गरीब बिहारी हैं तो चिंता की कोई बात नहीं। आप बाजार से 100-200 मीटर की दूरी पर आराम से ताड़ी खरीद, बेच और पी सकते हैं। यह कानून वाकई विचित्र है।
हकीकत में नीतीश कुमार एक खास तरीके से सोच रहे हैं। यह भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में नई अवधारणा है। अत्यधिक लोकलुभावनवाद की अवधारणा। आप बहुत वादे करते हैं, अनावश्यक प्रतिबद्घता जताते हैं, असंभव को संभव करने की बात कहते हैं और कहते हैं कि एक बार सत्ता में आने के बाद हम देखेंगे कि क्या कर सकते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह कानून संविधान की कसौटी पर कैसे खरा उतरेगा? किसी नीति निर्देशक तत्त्व के पालन के लिए कुछ करना एक बात है लेकिन दंड संबंधी कानूनों को अपने मन मुताबिक प्रयोग करना अलग बात है। अगर राज्यपाल और फिर राष्ट्रपति ने कानून पर मोहर लगा दी तो ऐसा ही होगा। क्या वे इस कानून को रोकने का साहस करेंगे? ऐसा संभव है अगर उनको लगे कि यह शराब पीने को प्रोत्साहन देता है। केंद्र की भाजपा सरकार शायद न केवल इस कानून को पारित करने को उत्सुक हो बल्कि वह और पुरातन प्रावधान जोड़ सकती है ताकि नीतीश कुमार बचे हुए चार साल उनके क्रियान्वयन में खपा दें।
अत्यधिक लोकलुभावनवाद से होता यह है कि राजनेता बहुत अधिक वादे करते हैं और मतलब निकल जाने के बाद बाकी काम बाद वालों के लिए छोड़ जाते हैं। राजनीति में कोई इतना बेवकूफ नहीं कि एक बुरे लेकिन लोकप्रिय कानून पर अंगुली उठाए। संप्रग ने ऐसा दो तरह से किया। उसने भारत के गरीबों को गरीबी से लेकर निरक्षरता और भूख हर चीज से उबारने का कानून बनाया। वे शायद खराब मौसम, बाढ़, सूखे और क्रिकेट या हॉकी में भारत की हार के खिलाफ कानून बनाने से चूक गए। कांग्रेस की इस राजनीति के बीच अन्ना आंदोलन जनलोकपाल विधेयक की मांग के साथ सामने आया। उन सब को मालूम था कि मौजूदा संविधान के तहत उसका पारित होना असंभव था। क्योंकि इसके तहत तो पड़ोसी एक दूसरे की जासूसी कर सकते थे। इसमें लोकपाल ही जांचकर्ता, अभियोजक और न्यायाधीश होता। जासूसी करने वालों को नकद प्रोत्साहन भी मिलता। इसे कभी पारित होना ही नहीं था। लेकिन अगर आप ऐसा कह देते तो कहा जाता कि आप भ्रष्टों के समर्थक हैं। परिणामस्वरूप इसके कई प्रावधान शिथिल किए गए लेकिन अब भी यह क्रियान्वित नहीं हो सकता है। स्वयंसेवी संगठन भी इसके दायरे में हैं। पूरी व्यवस्था इसे नाकाम करने में लगी है। मेरा मानना है कि समय के साथ प्रधानमंत्री भी इसके दायरे से बाहर होंगे हालंाकि यह तो पहले ही होना चाहिए था। लेकिन लोकप्रियता का दबाव आपको कुछ कहने नहीं देता।
हमारी नवीनतम राजनीतिक ताकत आप ने तो वादों के बाजार में सबको पछाड़ दिया। उसने जन लोकपाल से लेकर दिल्ली में मुफ्त वाईफाई और हर बस में एक सुरक्षा गार्ड और सीसीटीवी का वादा किया। इसके अलावा 100 नए कॉलेज, निजी विद्यालयों से बेहतर सरकारी विद्यालय समेत दर्जनों ऐसे कानून बनाने की बात की गई जिनका पारित होना ही मुश्किल था। नीतीश जानते हैं कि नागरिक समाज के लिए शराब विरोधी कानून को चुनौती देना मुश्किल होगा। महाराष्ट्र डांस बार पर प्रतिबंध के ऐसे ही कानून को चुनौती देने के लिए कम से कम अभिव्यक्ति की आजादी और आजीविका संकट का सहारा लेना पड़ा।
आखिर शराब पीने के अधिकार के पक्ष में कौन बोलेगा? नीतीश कुमार को मालूम है कि इस विधेयक के कानून बनने में अभी वक्त है। इस बीच वे अपने मतदाताओं से कह सकते हैं कि उन्होंने अपना वादा निभाया है। अगर कानून नहीं बन पाता है तो वह दूसरों को दोष देते हुए सन 2019 के राष्ट्रीय चुनाव का एजेंडा तय कर सकते हैं। ज्ञात रहे कि केरल में कांग्रेस और तमिलनाडु में द्रमुक ऐसे ही मूर्खतापूर्ण वादों पर विफल हो चुकी हैं। नीतीश कुमार के पास जाति आधारित वोट नहीं हैं। लालू के पास बिहार में भी और बाहर भी उनसे अधिक मतदाता हैं। समाजवादियों और धर्मनिरपेक्षों की कमी नहीं इसलिए शराबबंदी उनको बढ़त दिलाती है, खासतौर पर महिलाओं के बीच। यही इसकी विशिष्टता है।
बाकी लोगों ने भी इस विचार का अनुसरण किया लेकिन या तो उनको शर्मिंदा होना पड़ा या नुकसान सहना पड़ा या फिर दोनों हुआ। भाजपा ने स्विसबैंक से खरबों डॉलर लाने की बात कही थी जो चुटकुला बन चुकी है। यूरोप के व्हिसलब्लोअरों के बैंकिंग संबंधी खुलासों से काले धन में भारतीयों की कुछ सौ करोड़ की राशि और होने का पता चला है, वह भी कानूनी और घोषित। नतीजा, एक और पुरातन काला धन कानून। यह काफी हद तक पुराने फेरा और अधिक ताकतवर कर प्रशासन की याद दिलाता है।
पुरानी कहावत है कि त्रासदी की राह नेक इरादों से भरी हुई होती है। हमारी राजनीति में अब यह कहना अधिक उचित होगा कि त्रासदी की राह अच्छी तरह आकलित नकारात्मकता, जानबूझकर बोले गए झूठ, अविश्वास के वृहद स्थगन और भविष्य की पीढिय़ों से छीनने पर आधारित है ताकि आप किसी प्रकार सत्ता में आ सकें। यह अधिकतम लोकलुभावनवाद की भारतीय शैली है जो राजनीतिक रूप से सफल भी है। नीतीश कुमार शायद यही सोच रहे हैं।