प्रणब मुखर्जी शायद हमारे सर्वाधिक सुविज्ञ यानी जानकार राजनेता हैं। खेद यह है कि कम से कम हम पत्रकारों के लिए वे सबसे सतर्क रहकर बोलने वाले लोगों में से हैं। उनसे बतियाने का मौका पाने वाले जानते हैं कि उन्होंने इंदिरा गांधी की एक तरह से पूजा की है और आज भी उनके प्रशंसक हैं। अचरज नहीं कि वे बड़ी खुशी से बतातेे हैं कि कैसे इंदिरा गांधी कहती थीं कि एक बार कोई बात प्रणब के पेट में चली जाए, तो फिर बाहर नहीं आती। सिर्फ उनके पाइप से धुआं निकलता है।
इसलिए यह बड़ी बात है कि उन्होंने संस्मरण प्रकाशित करने का फैसला लिया। वे 1980-96 की अवधि को उथल-पुथल भरे वर्ष बताते हैं। पहला खंड पिछले साल आया था, जिसमें इससे पहले के दौर का वर्णन था। इस बार उथल-पुथल भरे दौर का उनका वर्णन 1996 में पीवी नरसिंह राव के शासन के अंत के साथ खत्म होता है और यह उनके पाइप पीने के दिनों का भी अंत है। हालांकि, इससे बड़ी उथल-पुथल तो कांग्रेस ने इसके बाद देखी। 13 दिन की एनडीए सरकार, संयुक्त मोर्चा सरकार के दो अल्पावधि प्रधानमंत्री, सीताराम केसरी का दौर और फिर सोनिया गांधी का उत्थान। 1997-2013 के उस दौर के लिए आपको कुछ वर्ष और इंतजार करना होगा। एक ऐसे समाज में जहां सार्वजिनक शख्सियतों की ईमानदार जीवनियों पर स्याही के हमले होते हैं तथा पाबंदी लगती है, जहां ज्यादातर राजनेता लिखते नहीं या लिख नहीं सकते, आत्मकथा चाहे जितनी अधूरी क्यों न हो, मूल्यवान होती है। जिस दौर की बात की गई है, 1980-96, वह भी कोई कम उथल-पुथल भरा नहीं था। यह संजय गांधी की मौत के साथ शुरू हुआ, जिसने कांग्रेस की राजनीति और सत्ता के आंतरिक समीकरण नाटकीय रूप से बदल दिए। राजनीति में लाए गए राजीव, संजय की तुलना में जरा भी राजनीतिक तेवर वाले नहीं थे।
राजीव की बजाय संजय के साथ प्रणब के रिश्ते बहुत सहज थे। वे बहुत गर्मजोशी के साथ संजय के बारे में बताते हैं, लेकिन राजीव को लेकर सतर्कता और अनिश्चितता दिखाई देती है। प्रणब शक की कोई गुंजाइश नहीं रखते कि राजीव गांधी जो ‘गैर-राजनीतिक’ मित्र लेकर आए थे, उन पर उन्हें संदेह था। खासतौर पर अरुण नेहरू और विजय धर को लेकर। आप संजय के वफादार के रूप में देखे जाने वाले लोगों के प्रति राजीव का संदेह और प्रणब व कमलनाथ सहित पुरानी व्यवस्था के प्रति अधैर्य भी महसूस कर सकते थे। प्रणब बताते हैं कि कैसे आरके धवन को बाहर किया गया। उन्हें अपने कागजात समेटने का भी वक्त नहीं दिया गया। उन्हें बताया गया कि उनके कागजात पैक करके घर भेज दिए जाएंगे। प्रणब का दृष्टिकोण इससे पता चलता है कि वे खुद के लिए ‘आउटकास्ट’ (बहिष्कृत) शब्द का इस्तेमाल करते हैं। तब कमलापति त्रिपाठी और नरसिंह राव को छोड़कर कांग्रेस का कोई व्यक्ति उनसे रिश्ता नहीं रखना चाहता था। राव को वे स्नेह के साथ ‘पीवी’ लिखते हैं, जिससे उनके विशेष रिश्ते जाहिर होते हैं।
राजनीतिक साइबेरिया के वर्षों का वे जिस ईमानदारी के साथ वर्णन करते हैं वह बहुत ही प्रभावशाली है, फिर चाहे उसमें किस्सों की भरमार न भी हो। वे बताते हैं कि कैसे कैबिनेट, फिर कार्यसमिति और पार्टी संसदीय बोर्ड से बाहर कर दिए जाने के बाद वे संसद के केंद्रीय हॉल में अकेले घूमते रहते थे। 1985 में मुंबई के कांग्रेस अधिवेशन में राजीव के ‘सत्ता के दलालों’ के हलचल मचाने वाले भाषण (जिसे प्रणब सहित कांग्रेस कार्यसमिति ने बहुत कुछ जोड़ने के बाद मंजूरी दी थी) के बाद उन्हें ही अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के ख्यात प्रस्ताव का समर्थन करने को कहा गया था। प्रणब ने अभी आधा भाषण भी नहीं दिया था कि लंच की घोषणा हो गई। फिर वहीं उन्हें कार्यसमति से निकाल दिया गया। अपनी परंपरावादिता को वे स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि हो सकता है कि आधुनिक व टेक्नोलॉजी प्रेमी राजीव ने इससे असहजता महसूूस करते हों। प्रणब लिखते हैं, राजीव विदेशी निवेश का स्वागत कर रहे थे, अर्थव्यवस्था खोलना चाहते थे, जबकि प्रणब की परंपरावादी मानसिकता सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति झुकाव रखती थी। प्रणब ने भोपाल को लेकर क्राइसिस ग्रुप की बैठक में राजीव को यूनियन कार्बाइड का राष्ट्रीयकरण न करने के लिए यह कहकर मनाया था कि चूंकि कार्बाइड बहुराष्ट्रीय कंपनी है तो इसे जनता पार्टी द्वारा कोकाकोला व आईबीएम को बाहर निकालने की तरह लिया जाएगा। यह भी कहा कि उनकी अभी कार्यवाहक सरकार है और उन्हें बड़े फैसले नहीं लेने चाहिए, जिसे उन्होंने मान लिया।
प्रणब बार-बार कहते हैं कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके मन में अंतरिम प्रधानमंत्री बनने का विचार कभी नहीं आया, हालांकि कानाफूसी करने वालों ने राजीव के दिमाग में संदेह के बीज बोने के लिए ऐसा कहा होगा। वे कहते हैं कि सबसे पहले राजीव को शपथ दिलाने का सुझाव देने वालों में वे थे। हालांकि, संवैधानिकता के अहसास के चलते उन्होंने दो शर्ते रख दी थीं कि पहले कांग्रेस संसदीय बोर्ड राजीव को चुने और दूसरा, राष्ट्रपति जैल सिंह का इंतजार किया जाए, जो उस शाम राजधानी लौटने वाले थे। प्रणब लिखते हैं, ‘लेकिन राजीव के आसपास के दरबारियों को जल्दी पड़ी थी।’ प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रधान सचिव पीसी अलेक्जेंडर और राजीव के साथी अरुण नेहरू जैल सिंह का इंतजार किए बिना तत्काल शपथ विधि चाहते थे, क्योंकि (ब्ल्यू स्टार ऑपरेशन के बाद) गांधी परिवार से रिश्तों में तनाव के चलते वे जैल सिंह पर भरोसा नहीं करते थे। यदि जैल सिंह राजीव को नियुक्त करने से इनकार कर दें तो क्या होगा? प्रणब को भरोसा था कि जैल सिंह ऐसा कुछ नहीं करेंगे, इसलिए उन्होंने पूछा कि यदि इससे नाराज होकर वे उपराष्ट्रपति की नियुक्ति को मानने से इनकार कर दें तो क्या होगा, क्योंकि देश के भीतर ही यात्रा पर होने से उन्होंने उपराष्ट्रपति को यह अधिकार नहीं दिया था।
प्रणब की दलीलों से वह दिन निकल गया। कांग्रेस संसदीय बोर्ड ने राजीव का ‘चयन’ कर लिया, वह भी कांग्रेस संसदीय दल को बुलाए जाने के पूर्व। प्रणब ने वाकई साहसपूर्वक एक नौकरशाह मात्र (अलेक्जेंडर) के अधिकार और बाहरी व्यक्ति (अरुण नेहरू) द्वारा नए प्रधानमंत्री के चयन और उनकी नियुक्ति के तरीके पर सवाल उठाया (खासतौर पर तब जब उनके दो बच्चों ने कांग्रेस के भीतर ही अपना कॅरिअर चुना था)। किंतु वे सीधे इसकी आलोचना नहीं करते। सिर्फ इतना कहते हैं कि इस पर विद्वानों व विश्लेषकों को भविष्य में विचार करना चाहिए। यह कहना बहुत सरलीकरण होगा कि प्रणब आलोचना से बच रहे हैं। वे तो खास अपनी शैली में बात कह रहे हैं।