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Wednesday, November 6, 2024
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मध्यमार्गी होता वामपंथ, वामपंथ की ओर कांग्रेस

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भले ही आप बांग्ला भाषा का एक लफ्ज न जानते हों लेकिन चुनावी समर से गुजर रहे पश्चिम बंगाल के दौरे में दीवार पर लिखी इबारत को साफ तौर पर पढ़ सकते हैं। ऐसा इसलिए कि सियासी दीवार की लिखावट न केवल अलग पांडुलिपि में लिखी है बल्कि इसलिए भी उसमें अनूठी स्याहियों का भी इस्तेमाल हुआ है। ये कोलकाता की सड़कों पर बिजली के खंभों से लटकी तमाम एलईडी लाइटों, प्लास्टिक बोर्ड और कपड़े के बैनरों पर चस्पां हैं, जहां तीन मुख्य दलों के झंडे जलवाफरोश हैं, जो प्रचार के लिए एक ही पेड़, छत और यहां तक कि कपड़े सुखाने वाली रस्सी पर खुशी के साथ लटके हुए हैं। जी हां, ये कुछ अखबारी कागजों पर परंपरागत स्याही के साथ भी दिख रहे हैं। अलग-अलग पांडुलिपियों में ये ऐसे राजनीतिक बदलाव की कहानी बयां करते हैं जो बेहद जटिल और नाटकीय है और केवल 9.3 करोड़ बंगाली ही उसे आकार दे सकते हैं।

उन्होंने वामपंथ को उखाड़ फेंकने के लिए ‘परिवर्तन’ यानी बदलाव के वादे पर ममता बनर्जी को सशक्त बनाया। अब पांच साल बाद उन्हें तय करना है कि क्या वादे के मुताबिक बदलाव आया। एलईडी लाइटें बताती हैं कि एक चीज है जो जरा भी नहीं बदली और वह चीज है सत्ता का उन्माद। वामपंथी दलों ने शहर को लाल झंडों से पाट दिया और उसकी दीवारों को हंसिया-हथौड़े के साथ पार्टी के नारों से पोत दिया। ममता की तृणमूल ने समूचे शहर को अपनी पार्टी के नीले और सफेद रंग में रंगवा दिया। मैं आदतन देर रात टहलने के लिए निकला और कुछ मीटर की दूरी पर ही नीले और सफेद रंग के समंदर में खो गया।

वर्चस्व की राजनीति में वामपंथी दलों ने प्रतिमान गढ़े लेकिन उनके पास करिश्माई व्यक्तित्व का अभाव रहा। तृणमूल विशुद्घ रूप से व्यक्तित्व केंद्रित सरकार और राजनीति का नमूना है, जहां उसके वरिष्ठïतम नेता ममता को सुप्रीमो बताते हैं, एक ऐसी पदवी जो भारतीय राजनीति में मैंने जयाप्रदा के मुंह से 1993 में आंध्र प्रदेश चुनाव अभियान के दौरान सुनी थी और उसके बाद से यह हमारे कुछ राज्यों की राजनीति को परिभाषित करने लगी, जहां खासतौर से तमिलनाडु में जयललिता और उत्तर प्रदेश में मायावती के बाद बंगाल तीसरी कड़ी है। कार्यकर्ता आधारित पार्टी से सुप्रीमो आधारित दल की ओर हुए रूपांतरण ने राजनीति के रुपकों और उसकी शैली को नहीं बदला, जो कि ममता के ‘एकटा, एकटा हिशाब लेबो’ (मैं एक-एक से हिसाब बराबर करूंगी) में झलकता है, जिसमें राजनीतिक विरोधियों के लिए चेतावनी का भाव है। मगर हिंसक राजनीति की धार कुछ तो कुंद हुई है और यह एक बड़ा बदलाव है।

एक ही पेड़ और घर पर मैं सीपीएम और कांग्रेस का झंडा देखकर पहली नजर में मैं हैरान रह गया। अतीत में इसकी बस कल्पना ही की जा सकती थी। वास्तव में अगर कोई कांग्रेसी किसी माकपा समर्थक के घर पर अपना झंडा लगाता या इसका उल्टा होता तो इसमें खूनखराबा तक हो जाता। ममता के वित्त मंत्री अमित मित्रा, जिन्हें दुनिया एक बेहतरीन अर्थशास्त्री के तौर पर जानती है, मुझे बताते हैं कि वर्ष 1972 से 2009 के बीच तकरीबन 57,000 लोग राजनीतिक हिंसा की भेंट चढ़ गए। वह कहते हैं, ‘मेरे निर्वाचन क्षेत्र आइए। मैं आपको शहीद वेदियां दिखाऊंगा। एक तो कांग्रेसी कार्यकर्ता द्वारा मारे गए माकपा कार्यकर्ता की है तो दूसरी माकपा कार्यकर्ता द्वारा मारे गए कांग्रेसी की और यह सिलसिला अंतहीन है।’ हैरानी के साथ वह कहते हैं कि उनका गठजोड़ कैसे कारगर होगा। मगर शायद यह फौरी हो, अगर यहां तक कि विवादित सिंगूर में भी तृणमूल के झंडे उसी जगह पर टंगे हैं।

यह उस राज्य में बेहद महत्त्वपूर्ण है जहां राजनीतिक दल चुनावों से महीनों पहले ‘यह दीवार फलां-फलां के लिए आरक्षित है’ सरीखी पंक्तियां लिखकर पूरी दीवार पर कब्जा जमा लेते हैं। ऐसी नियंत्रण रेखा का जरा भी उल्लंघन नृशंस कार्रवाई को आमंत्रण देगा। अब अगर वे एक ही जगह को साझा कर रहे हैं तो यह आपको दो बातें बताता है। एक तो यही कि बंगाल की राजनीति अब कुछ कम हिंसक बन गई है। और दूसरा यही कि पांच साल तक विपक्ष में रहने के दौरान पुलिस के सहयोग के बिना माकपा को अपनी दादागीरी छोडऩी पड़ी है।

बंगाल के लिए अब उस फिल्म का सुखद पटाक्षेप हो गया है। कांग्रेस की राज्य इकाई के प्रमुख अधीर रंजन चौधरी के साथ अपनी संयुक्त रैली के बाद माकपा नेता और ममता विरोधी मोर्चे की जीत की सूरत में मुख्यमंत्री पद के संभावित दावेदार सूर्य कांत मिश्रा ने बेहद सहज लहजे में इस बात का जवाब दिया कि उनकी पार्टी ने इससे क्या सीखा। वह कहते हैं, ‘पार्टी कार्यकर्ताओं का शासन में दखल देना गलत था।’ उन्होंने वादा कि अब प्रशासनिक मसलों में पार्टी कार्यकर्ताओं का हस्तक्षेप नहीं होगा।

तमाम लोगों को इस वादे के पूरा होना या गठजोड़ के लंबा टिकने को लेकर अभी भी संदेह है। नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर एक उद्योगपति बताते हैं, ‘दशकों से हमने उन्हें एक दूसरे को मारते हुए देखा है। अब उन्होंने केवल ममता को बाहर रखने के लिए हाथ मिला लिया है। यह मकसद हासिल करने के बाद कौनसा लक्ष्य उन्हें जोड़े रखेगा?’ मित्रा उस शख्स के बारे में बताते हैं, जिसका माकपा के गुर्गे ने हाथ सिर्फ इस बात पर काट दिया था कि उसने कांग्रेस के चुनाव चिह्न ‘हाथ के पंजे’ पर मुहर लगाई। मित्रा सवाल उठाते हैं कि अब ये दोनों दल कैसे हाथ मिला सकते हैं।

हालांकि अलगाव की यह संभावित अपरिहार्यता बंगाल की चुनावी दीवार पर नहीं लिखी है। माकपा जानती है कि सत्ता से एक और बनवास उसे तहस नहस कर देगा और कांग्रेस तो पहले से कोने में घुसी है। लिहाज, साथ टिके रहना उनकी मजबूरी है। उनका शायद संयुक्त चुनावी घोषणा पत्र नहीं होगा लेकिन आप देख सकते हैं कि माकपा अपने खांटी अव्यावहारिक राजनीतिक अर्थशास्त्र से पीछे हट रही है। भारत में राजनीतिक वामपंथ के लिए यह अभूतपूर्व बदलाव है। आमतौर पर वामपंथी दल कांग्रेस और अन्य ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों को भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए समर्थन को जायज ठहराते रहे हैं। बंगाल में यह गठबंधन एक असल धर्मनिरपेक्ष प्रतिद्वंद्वी को निशाना बना रहा है, भले ही अगर ममता ‘नमस्ते, गुडबाय, सत श्री अकाल, वणक्कम, खुदा हाफिज’ और आखिर में ‘इंशाअल्लाह’ के साथ अपने भाषणों का अंत हास्यास्पद रूप से ऐसे लफ्जों के अतिरेक इस्तेमाल से कर रही हों। यह एक अन्य दुर्जेय वाम-धर्मनिरेपक्ष ताकत के खिलाफ विशुद्घ सियासी जुगलबंदी है।

चूंकि केरल में वी एस अच्युतानंदन जैसे खांटी नेता ही पार्टी की कमान संभाले हुए हैं तो यह शायद मेरा अनुमान भी हो सकता है। मगर यह कहने का जोखिम लेते हैं कि हम भारतीय वामपंथ को सैद्घांतिक शुद्घतावाद से राजनीतिक व्यावहारिकता की ओर बढ़ते देख रहे हैं, जहां साम्यवाद से सामाजिक-लोकतांत्रिक, मध्यमार्गी-वामपंथी रुख की ओर कदम बढ़ाए जा रहे हैं, जिसमें दादागीरी के लिए कोई जगह नहीं। देश के एक और बांग्ला भाषी राज्य त्रिपुरा में माणिक सरकार की अगुआई में यह बड़ी खूबसूरती के साथ कारगर रहा है।

साल 1988 में अपनी पहली राजनीतिक रिपोर्ट के सिलसिले में मैं बंगाल आया। जब गोर्बाचेव और देंग सुधार की ओर बढ़ रहे थे तो भारतीय साम्यवादी सुधारों को लेकर क्यों प्रतिरोध दिखा रहे थे? पार्टी की बंगाल इकाई के तत्कालीन प्रमुख सूरज मुखर्जी ने जवाब दिया, ‘क्योंकि हमारा साम्यवाद देंग और गोर्बाचेव की तुलना में अधिक परिष्कृत है।’ अब वह दौर अब गुजर गया है और मुझे प्रणव मुखर्जी की एक बात भी याद आती है, जब मेरा अखबार और मैं मनमोहन सिंह को परेशान कर रहे वामपंथी दलों पर बिना रुके हमले कर रहे थे। मुखर्जी ने कहा, ‘राजनीतिक इतिहास देखो। भारतीय वामपंथ स्थिर नहीं रहा है। आजादी के समय उन्होंने लोकतंत्र का विरोध किया लेकिन अब उनमें से अधिकांश चुनाव लड़ते हैं। समय के साथ उनमें और बदलाव आएंगे।’
अवीक सरकार के आनंद बाजार पत्रिका (एबीपी) समूह के प्रमुख बांग्ला अखबारों पर नजर डाली। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में रामनाथ गोयनका के दिनों के बाद आपने किसी प्रकाशन समूह का चुनावों में ऐसे कट्टïर रुख को देखा। ममता और उनकी पार्टी ने अवीक पर निशाना साधने की तमाम तिकड़में भिड़ाईं। मगर मौजूदा दौर में भारत के सबसे हिम्मतवर अखबार मालिक अपने सूबे की सियासी दीवार पर उस मजमून को भांप लेते हैं, जिस पर पहली नजर में शायद आप गौर न कर पाएं। उनके अखबार के पहले पन्ने पर शीर्षक है ‘हैंड इन हैंड। प्रत्येक ‘हाथ’ माकपा और कांग्रेस दोनों के अलग-अलग रंगों में रंगा है। यह भारत के वामपंथ के मध्यमार्गी और राहुल की अगुआई में कांग्रेस के वामपंथी होने का संकेत करता है। यह पुनर्गठन बंगाल चुनाव का सबसे बड़ा सियासी संदेश है।

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