नरेंद्र मोदी सरकार के भीतर जारी असमंजस हमें स्वतंत्र भारत के एक और कालखंड से जुड़ी एक कहानी की याद दिला रहा है। संता और बंता के वजूद में आने के पहले भारत में सरदार बलदेव सिंह नाम के एक शख्स थे। उनके नाम के साथ ‘सरदार’ वैसे ही जुड़ा हुआ था जैसे जैल सिंह के नाम के साथ ‘ज्ञानी’। वर्तमान के परिहास-शून्य दौर में आपको यह कहानी थोड़ी घबराहट के साथ बतानी होगी और मेरे पास तो खुशवंत सिंह की तरह संता-बंता के किस्से सुनाने का लाइसेंस भी नहीं है। खुशवंत सिंह 1960 के दशक में सरदार बलदेव सिंह और पंडित जवाहरलाल नेहरु को संता-बंता के तौर पर पेश करते थे।
जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी बलदेव सिंह (1902-61) स्वतंत्र भारत के पहले रक्षा मंत्री बनाए गए थे। उन्हें विभाजन के दौरान फैली अराजकता संभालने और बड़े पैमाने पर हो रही लोगों की आवाजाही को संभालने के साथ ही कश्मीर में छिड़े युद्ध को भी संभालना पड़ा था। इन तमाम जिम्मेदारियों को उन्होंने बहुत ही कुशलता से निभाया था। इसके बाद भी खुशवंत सिंह उनसे जुड़ा एक दिलचस्प वाकया सुनाया करते थे। खुशवंत सिंह के मुताबिक, रक्षा मंत्री बनने के कई महीनों बाद जब सरदार बलदेव सिंह रोपड़ (अब रूपनगर) में रहने वाली अपनी मां से मिलने गए तो उन्होंने कहा कि मेरे इतना बड़ा मंत्री बनने का क्या फायदा है? इस पर उन्की मां ने कहा, ‘अंग्रेजों के देश छोड़कर जाने के बाद सिक्कों की कमी हो गई है जिससे हर कोई परेशान है। क्या मेरा मंत्री बेटा इस बारे में कुछ कर सकता है?’
दिल्ली लौटते ही रक्षा मंत्री छोटे सिक्कों की कमी की समस्या का समाधान ढूंढने में लग गए। फिर तो वह अपने पूरे वेतन और भत्तों को सिक्कों की शक्ल में लेने लगे और अधिक से अधिक पैसे बचाने की कोशिश करते। जब उनके पास छोटे सिक्कों का अच्छा-खासा भंडार इकट्ठा हो गया तो उन्होंने उन सिक्कों को बड़े ही गर्व के अहसास के साथ अपनी मां को मनीऑर्डर के जरिये भेज दिया।
खुशवंत सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अगर वह जिंदा होते तो देश के पहले रक्षा मंत्री की सिक्कों को लेकर की गई जुगत की तुलना मोदी सरकार के काले धन पर उठाए गए फैसलों से करते हुए सुनना काफी दिलचस्प होता। बंद हो चुके बड़े नोटों का कुछ उसी तरह से भंडार लगा है जैसा बलदेव सिंह के बक्से में जमा सिक्कों का था। एक संप्रभु देश की कुल मुद्रा के 86 फीसदी हिस्से को अवैध घोषित करने जैसा कदम इसके पहले किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं उठाया गया था। यह मान लेना कि सरकार ने यह पूरी कवायद लोगों को डिजिटल लेनदेन के लिए प्रोत्साहित करने के लिए की थी, उतना हास्यास्पद नहीं है जितना कि बलदेव सिंह का सिक्कों से भरा बक्सा अपनी मां को मनीऑर्डर से भेजना था। असल में यह मामला काफी गंभीर है। यह हम लोगों के साथ किया गया एक मजाक है।
नोटबंदी की पूरी मुहिम की दिशा अचानक ही जिस तरह काले धन से बदलकर कैशलेस की तरफ हो गई है, उसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोगों को अपनी मुरीद बना लेने वाली शानदार वाक्क्षमता और जनमत पर उनके जबर्दस्त नियंत्रण को दिया जा सकता है। अब पूरी मुहिम के केंद्र में डिजिटल भुगतान आ गया है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सेवाओं एवं उत्पादों की खरीद-फरोख्त के दौरान डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करने पर लगने वाले सर्विस टैक्स में कटौती का ऐलान कर पूरी बहस का मुद्दा ही बदल जाने की पुष्टि कर दी। इससे दो अहम सवाल खड़े होते हैं। पहला, डिजिटल भुगतान बहुत अच्छा कदम है लेकिन अगर आप को यही हासिल करना था तो पूरी अर्थव्यवस्था को 1100 वोल्ट का झटका देने की क्या जरूरत थी? आप तो डिजिटल भुगतान पर रियायतों और सहूलियतों के जरिये भी इसे हासिल कर सकते थे। डिजिटल तरीके से किए गए भुगतान से हुई आय पर लगने वाले कर में थोड़ी छूट भी दी जा सकती थी। दूसरा सवाल नैतिक खतरे से जुड़ा हुआ है। इस समय हमारी कुल आबादी का केवल 2.5-3 फीसदी सक्रिय हिस्सा ही डेबिट या क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करता है। हो सकता है कि आबादी का कुछ हिस्सा डिजिटल वॉलेट का भी इस्तेमाल करता हो। फिर भी देश की 130 करोड़ जनसंख्या में से केवल 4-6 करोड़ लोग ही आर्थिक ढांचे के शिखर पर नजर आएंगे। इस तरह तो सरकार देश के विशाल गरीब तबके को प्लास्टिक मनी पर आधारित अर्थव्यवस्था के लिए अपना हिस्सा पहले से ही तमाम लाभ उठा रहे खास तबके के लिए छोडऩे को कह रही है।
इस फैसले के बारे में अधिक दूरदर्शिता दिखाने के लिए थोड़ी तर्कसंगत सोच की जरूरत होती। लेकिन मौजूदा दौर में तर्कसंगत तरीके से सोच पाना खासा मुश्किल है। आईएनएस बेतवा के हादसाग्रस्त होने के दिन ही रक्षा मंत्रालय ने ऐलान किया था कि रक्षा मंत्र् डिजिटल अर्थव्यवस्था को लेकर सेना प्रमुखों के साथ एक कार्यशाला में चर्चा करेंगे। निजी तौर पर मेरे लिए तो सबसे यादगार पल वह रहा जब तेलंगाना के दौरे पर गए सूचना प्रसारण मंत्री ने पंचर की दुकान पर पेटीएम से भुगतान लेने का बोर्ड लगा होने के बारे में सारी दुनिया को बताया था। कम-से-कम दो तिमाहियों का विकास इस फैसले की भेंट चढ़ चुका है। करोड़ों लोगों को इसके चलते बहुत परेशानियों का भी सामना करना पड़ रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक जैसी महान संस्था की महत्ता कम करने वाले इस विचार से हम नादान भारतीयों को केवल यह समझाने की कोशिश की गई है जो बार्बी गर्ल लंबे समय से कहती आ रही है लेकिन हमने कभी भी उसे तवज्जो नहीं दी: प्लास्टिक की जिंदगी, है बहुत फैन्टेस्टिक। केवल बार्बी की दुनिया में ही नहीं, असली दुनिया में भी यह बात लागू हो रही है।
प्रधानमंत्री ने जिस शाम को इस फैसले का ऐलान किया तो हम सभी इसे लेकर काफी उत्साहित थे। हमें लगा कि प्रधानमंत्री ने फैसला करने के लिए सभी जमीनी तैयारियां कर ली होंगी, नकद में रखे गए काले धन की मात्रा के बारे में उनके पास पुख्ता आंकड़े भी होंगे और पर्याप्त मात्रा में नए नोट भी छाप लिए गए होंगे। हमारा यह भी आकलन था कि खुफिया एजेंसियों और मौद्रिक विशेषज्ञों ने जालसाजी करने वाले तत्वों के बारे में सबूत भी जुटा लिए होंगे। सर्जिकल स्ट्राइक का विचार काफी फैशनेबल है और तात्कालिक तौर पर हममें से कई लोग गलती कर गए।
अब यह साफ हो चुका है कि हमसे गलती हो गई (इनमें यह स्तंभकार भी शामिल है)। गोपनीय खबरों के भी छनकर बाहर आ जाने वाली लुटियन की दिल्ली में इतने बड़े फैसले को गुप्त रखे जाने से हम सभी अचंभित थे। वो तो अब हमें पता चला है कि खुद सरकार भी अंधेरे में थी। अगर आप कैबिनेट या इसकी समितियों में चर्चा के लिए कोई मुद्दा नहीं ले आते हैं और घोषणा के चंद मिनटों के पहले ही अपने साथियों को इसकी जानकारी देते हैं तो आप काले धन के कुबेरों के साथ ही खुद को भी खतरे में डाल रहे हैं। यह मानना कि कैबिनेट मंत्रियों से इस फैसले के बारे जानकारी लीक होने का खतरा था तो फिर मंत्रियों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाने के क्या मायने हैं? अगर आपका अपने ही चुने हुए 10 मंत्रियों पर भरोसा नहीं है तो फिर आप युद्ध के बारे में कोई फैसला करने के पहले किससे सलाह-मशविरा करेंगे?
सच कहें तो अब भी प्रधानमंत्री के इस साहसिक कदम की बड़े पैमाने पर तारीफ हो रही है। विडंबना यह है कि बैंकों और एटीएम की कतारों में लगने के लिए मजबूर गरीब और निम्न, मध्यम वर्ग के लोग ही इसकी ज्यादा तारीफ कर रहे हैं। एक महीने बाद वे थोड़े भ्रमित हैं लेकिन अब भी एक निर्णायक नेता के आगमन को लेकर उनकी उम्मीदें बरकरार हैं। उनका मानना है कि प्रधानमंत्री के पास इस फैसले के लिए जरूर ही कोई वाजिब वजह रही होगी और जल्द ही इसका इनाम भी मिलेगा। लेकिन काले धन से शुरू मुहिम का पेटीएम का अकाउंट बनाने पर आकर सिमट जाना मनीऑर्डर से सिक्के भेजने जितना हास्यास्पद नहीं है। हालांकि इतिहास हमें बताता है कि अगर साहस और यश के कलेवर में लपेटा जाए तो विनाशकारी लापरवाही के बाद भी नतीजे हासिल किए जा सकते हैं।