scorecardresearch
Wednesday, November 6, 2024
Support Our Journalism
HomeSG राष्ट्र हितबेहतरी के वादे और कमतरी के जोखिम

बेहतरी के वादे और कमतरी के जोखिम

Follow Us :
Text Size:

बर्फ से घिरे दावोस में विश्व आर्थिक मंच से रिपोर्टिंग करते हुए क्रिकेट का जिक्र करना बेवकूफाना लग सकता है लेकिन यहां पिछले कई सालों से चल रही बातचीत को देखकर मन में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या भारत विश्व अर्थव्यवस्था के लिए उसी तरह है जैसे कि रोहित शर्मा टेस्ट क्रिकेट के लिए हैं। हर कोई उनकी प्रतिभा को स्वीकार करता है, हर कोई चाहता है कि वह सफल हों, अक्सर वह अपनी प्रतिभा के दीदार भी कराते रहते हैं लेकिन कुल मिलाकर प्रदर्शन में एक किस्म की कमतरी है और प्रशंसकों तथा चयनकर्ताओं दोनों का धैर्य चुक रहा है।

भारत को बीते एक दशक से संभावनाशील माना जाता रहा है। प्राय: यह माना जाता है कि वर्ष 2003-07 के बीच वह एक तय दायरे से बाहर निकल आया। विभिन्न देशों तथा आला कारोबारी संस्थानों के प्रमुख यह उम्मीद कर रहे थे कि भारत लगातार धीमे पड़ते चीन का स्थान ले लेगा। चीन में ठहराव आ भी गया लेकिन भारत कहीं आसपास भी नहीं नजर आ रहा है। भारत अब भी वही है जो वह पहले था। यानी एक अत्यंत संभावनाशील देश, यदि वह एकजुट होकर काम करे। यह ‘यदि’ एक डरावना शब्द है।

‘यदि’ की व्याख्या किस प्रकार की जाए? इसका एक मुख्तसर सा जवाब दुनिया के जाने माने और अर्थशास्त्री नॉरियल रुबिनी की ओर से आया। रुबीनी वह शख्स हैं जिनकी भविष्यवाणियों से लोग डरते हैं। भारत का सत्र वित्त मंत्री अरुण जेटली के इर्दगिर्द केंद्रित रहा। उन्होंने कहा कि आज भारत बहुत अच्छी स्थिति में है। उसे केवल रास्ते तलाश करने हैं और अपना पूंजीगत घाटा खत्म करने पर ध्यान देना है। भारत को हर तरह की पूंजी की अधिकाधिक आवश्यकता है। उनके शब्दों में कहें तो भौतिक बुनियादी ढांचे से लेकर कुशल श्रम शक्ति और बौद्घिक से लेकर नियामकीय पूंजी तक हमें हर तरह की पूंजी चाहिए। यह एक बड़ी मांग है। भारत फिलहाल जिस बेहतर स्थिति में है उसका पूरा लाभ लेने के लिए इस दिशा में तेजी से कदम उठाने होंगे। वैश्विक स्तर पर हताशा का माहौल है, वह मुख्यतया जिंस कीमतों और खासतौर पर कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट की वजह से है। सभी बड़ी आर्थिक शक्तियों में भारत जिंस का सबसे महत्त्वपूर्ण आयातक है। यह बात भारत के दबाव वाले राजकोष और व्यापार संतुलन के लिहाज से मुफीद है।

विदेशी निवेशक बाजार छोड़-छोड़कर जा रहे हैं लेकिन यह अस्थायी विचलन हो सकता है। यह मौका है जहां भारत तेजी से आगे बढ़कर खुद को एक बेहतरीन वैश्विक अपवाद के रूप में स्थापित कर सकता है। भारत में अब भी यह करने की संभावना बाकी है। लेकिन अच्छी-अच्छी बातों को छोड़ दिया जाए तो कोई भी इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है कि भारत ऐसा कर पाएगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रमुखों द्वारा कही गई बातों और उनकी घोषणाओं को बहुत गंभीरता से लेना अदूरदर्शी होगा, खासकर जब ये बातें राष्ट्रीय नेताओं की मौजूदगी में कही गई हों। उसी पैनल में सिस्को के जॉन चैंबर ने कहा कि वर्ष 2016 को भारत का वर्ष होना ही था। यह वह साल है जब भारत अपने घेरे से बाहर निकलेगा। सिस्को भारत में अच्छा दखल रखती है और अब अमेरिका-भारत कारोबारी परिषद की अध्यक्षता उसे मिलने जा रही है। ऐसे में उनको भारत के बारे में अच्छी बातें बोलनी ही हैं। ऐसे में रुबिनी की बातें कहीं अधिक अहम हो जाती हैं।

वर्ष 2010 से 2014 के बीच भारत को लेकर उपजी निराशा के भाव को समझा जा सकता है। संप्रग सरकार उस वक्त अपनी पूंजी गंवा रही थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉॅ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सुधारक रक्षात्मक स्थिति में थे। बड़े-बड़े घोटालों का जिक्र सामने आ रहा था जो वैश्विक स्तर पर बढ़ते कारोबार विरोधी माहौल के अनुरूप ही था। लेकिन इससे यह संदेश भी गया जो सही भी था कि भारत में अभी भी व्यापक नियामकीय कमियां हैं। भारत की धीमी लेकिन मजबूत कानून व्यवस्था को भी वोडाफोन पर पिछली तारीख से लगे कर ने झटका दिया। राजकोष और व्यापार संतुलन दोनों नियंत्रण से परे थे। अनुमान था कि अगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आती है तो हालात बदल जाएंगे।

अब उस आशावाद पर भी आशंका के बादल मंडरा रहे हैं। यह सच है कि कोई बड़ा घोटाला सामने नहीं आया है। मोदी खासे लोकप्रिय नजर आ रहे हैं। वह एक ऐसे नए नेता के रूप में उभरे हैं जिन्होंने पूरी दुनिया का दौरा किया है, विभिन्न देशों और कारोबारी घरानों के प्रमुखों के साथ अपने निजी समीकरण बनाए हैं और देश को कहीं अधिक ऊर्जावान छवि मुहैया कराई है। स्वच्छ भारत से लेकर मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया तक इनके विचारों की सराहना की गई है। वह उनको बखूबी चर्चा में लाए हैं लेकिन केवल इतना करना पर्याप्त नहीं है। बदलाव या परिणाम कहां हैं? यह बड़ा सवाल है क्योंकि मोदी के उदय ने वैश्विक कारोबारी समुदाय को ऐसा संदेश दिया है मानो वह सन 1991 के मनमोहन सिंह के तर्ज पर सुधारों का एक और दौर लाने वाले हैं। उनकी सरकार नरसिंह राव की तुलना में बहुत मजबूत सरकार है और उन्हें अर्थव्यवस्था के संकट विरासत में मिले। तमाम लोकतांत्रिक देशों में तेज सुधार और उदारीकरण की स्थिति में ये संकट ही बचाव का कारक बनते हैं।

अब नरेंद्र मोदी का नए सिरे से आकलन हो रहा है। मोदी को एक मजबूत और प्रतिबद्घ सुधारक तो माना जा रहा है लेकिन उदारीकरण लाने वाला नहीं। यह कैसे हुआ? उन्होंने कई सरकारी प्रक्रियाओ में बड़े सुधारों को अंजाम दिया है। संसाधनों खासकर स्पेक्ट्रम और खनिज की नीलामी का सहज और स्वस्थ तरीका तलाश किया गया है। सरकारी परियोजनाओं के लिए ई-निविदा एक महत्त्वपूर्ण सुधार है। इसके अलावा सब्सिडी के क्षेत्र में कई कदम उठाए गए हैं। डीजल पर सब्सिडी पूरी तरह समाप्त कर दी गई है जबकि घरेलू गैस में निरंतर कमी करते हुए उसे प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण के दायरे में लाया गया है। ये सभी महत्त्वपूर्ण सुधार हैं लेकिन इनको उदारीकरण का दर्जा नहीं दिया जा सकता है।

अंतर क्या है? सन 1991 में आई सुधार और उदारीकरण की लहर में लाइसेंस कोटा राज को समाप्त करने के अलावा देश के कारोबार को पुराने माफियानुमा संचालक मंडलों के चंगुलों से मुक्त कराया गया था। मुझे याद है कि डॉ. सिंह ने पी चिदंबरम की द इंडियन एक्सप्रेस में छपने वाले स्तंभ पर आधारित पुस्तक का लोकार्पण करते हुए (मैंने उसका संपादन किया था) कहा था कि बतौर वाणिज्य मंत्री चिदंबरम असली सुधारक थे क्योंकि उन्होंने उसी संचालक मंडल को भंग कर दिया जिसने उनके मंत्रालय को शक्ति संपन्न बनाया था। एक सच्चे उदारीकरण लाने वाले को अपनी शक्तियों की बलि देने तक के लिए तैयार रहना चाहिए।

अब यह माना जाने लगा है कि यह मोदी की शैली नहीं है। वह एक ऊर्जावान और सुलझे हुए सुधारक हैं लेकिन केवल सरकारी प्रक्रियाओं, मंजूरियों, नियामकीय व्यवस्था आदि के। वह उस तरह का उदारीकरण नहीं लाने वाले हैं जिसमें सरकार कारोबारों के नए पहलू सामने लाए। उस लिहाज से देखा जाए तो वह चीनी शैली के सांख्यिकीविद हैं और कम सरकार अधिक शासन के उनके वादे को अधिक सरकारी हस्तक्षेप लेकिन बेहतर हस्तक्षेप के रूप में देखा जाना चाहिए।

इस दलील के पक्ष में तमाम प्रमाण दिए गए हैं। ताजा उदाहरण है स्टार्टअप इंडिया के मामले में फंड बनाकर राज्यों को उसमें सीधे शामिल करना। या फिर उनके द्वारा निजीकरण के मोर्चे पर वाजपेयी के नेतृत्व वाले राजग की राह पर चलने से इनकार करना। परंतु सबसे अहम बात यह है कि वैश्विक व्यापार वार्ताओं में उनकी सरकार के रुख को लेकर धैर्य समाप्त हो रहा है। उसके कदमों को संप्रग तक की तुलना में अधिक संरक्षणवादी माना जा रहा है। ऐसा करना दरअसल टीपीपी और एपेक जैसे नए वैश्विक और क्षेत्रीय गठजोड़ों के चलते देश के समक्ष आने वाले अवसरों को नकारना है। ओबामा के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में ये दोनों संगठन भारत की पहुंच में थे। परंतु नई नीति में इस संबंध में कोई गतिशीलता नहीं दिख रही। ऐसा करने से भारत को लेकर वैश्विक उत्साह कमजोर हो रहा है।

Subscribe to our channels on YouTube, Telegram & WhatsApp

Support Our Journalism

India needs fair, non-hyphenated and questioning journalism, packed with on-ground reporting. ThePrint – with exceptional reporters, columnists and editors – is doing just that.

Sustaining this needs support from wonderful readers like you.

Whether you live in India or overseas, you can take a paid subscription by clicking here.

Support Our Journalism

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular