संसदीय लोकतंत्र में शासन चलाने के लिए बहुमत महत्वपूर्ण होता है, लेकिन बहुमत ही सबकुछ नहीं होता, सरकार की विश्वसनीयता भी होनी चाहिए- या एक शब्द मैं प्राय: इस्तेमाल करना पसंद करता हूं, फिर चाहे मैं अंग्रेजी में ही क्यों न लिखूं, क्योंकि इस शब्द का अद्भुत अर्थ अनुवाद में नहीं आ सकता। वह शब्द है इकबाल। इकबाल के बिना कोई सरकार विश्वसनीय तरीके से और पूरी अथॉरिटी, पूरे अधिकार के साथ शासन नहीं कर सकती। यह बहुत कठिन है, लेकिन असंभव नहीं है कि किसी सरकार के पास बहुमत के बिना भी इकबाल हो, किंतु यह नामुमकिन है कि संसद के ठप रहते बहुमत वाली सरकार पूरे अधिकार के साथ शासन चला सके। हाल के हमारे राजनीतिक इतिहास के कुछ उदाहरण इसके गवाह हैं। अल्पमत सरकार के साथ सत्ता में पीवी नरसिंह राव के पहले दो साल और लगभग 60 सांसदों के साथ चंद्रशेखर के छह माह का भी उदाहरण लिया जा सकता है। अल्पमत के बावजूद दोनों ने पूरे अधिकार के साथ शासन किया।
उसी दौर में 543 सांसदों के सदन में 413 के निरंकुश बहुमत के बावजूद राजीव गांधी 1987 में बोफोर्स घोटाला उजागर होने के बाद यदि संसद ठप होने पर नहीं तो 1988 की शुरुआत तक तो नियंत्रण और अथॉरिटी खो बैठे थे। उनके सलाहकारों ने कहा, कोई समस्या नहीं। विपक्ष है ही क्या सिर्फ 10+2+3 (1984 के चुनाव में जनता पार्टी, भाजपा और लोकदल के लिए सीटों का क्रमश: यही आंकड़ा था) और इसलिए वे संसद में नहीं आते तो क्या, हम अपना काम जारी रख सकते हैं। परंतु वे ऐसा नहीं कर सके, उनकी सरकार उसके बाद तेजी से नियंत्रण खोने लगी। नरेंद्र मोदी और भाजपा को सावधानी बरतनी होगी कि वे पूर्ण बहुमत की अहंकारी भावना में न बह जाएं या यह न मानने लगें कि वे संसद का तिरस्कार करके भी अपना काम चला लेंगे। या यह सोचने लगंे कि विपक्ष नहीं है तो क्या। इस सप्ताह लोकसभा ने एक कानून पारित किया तब विपक्षी मेजें पूरी तरह खाली थीं। यह तथ्य बहुत ही धक्कादायक व शर्मनाक है और सदन तथा भारत के लोगों का अपमान है|
बहुमत के वोट से भी बढ़कर भी संसद का बहुत कुछ महत्व होता है। यह विचार-विमर्श और बहस का मंच होता है। सांसदों को इतने अधिकार और संरक्षण इसीलिए दिए गए हैं कि वे पूरी स्वतंत्रता से बोल सकें और नागरिकों की तरफ से फैसलों पर असर डालें फिर चाहे वे अल्पमत में ही क्यों न हों। मोदी सरकार ने हाल के दिनों में ऐसा अहसास कराया है कि उसे विपक्ष की मौजूदगी-गैरमौजूदगी की परवाह नहीं है। उसके पास लोकसभा का संख्याबल है। अौर चाहे राज्यसभा में आंकड़े उसके पक्ष में नहीं हैं, लेकिन यह कई छोटे दलों के सांसदों को अपने पक्ष में ला सकती है या उनकी वफादारियां ‘खरीद’ सकती है या कोई भी चीज काम न करे तो संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर कानून पारित करना शुरू कर सकती है। यह अहंकारी रवैया तो है ही, इसे स्वीकार भी नहीं किया जा सकता। इसी अहंकार के कारण पार्टी ने साल के अंत में रातोंरात कई अध्यादेश जारी कर दिए थे। अन्य अध्यादेशों का संबंध तो कम विवाद वाले कानूनों से था। परंतु भूमि अधिग्रहण कानून तो राजनीतिक रूप से अत्यधिक विवादास्पद है। यह इस तथ्य से और जटिल हो जाता है कि यह बांटने वाला कानून होने की बजाय एकजुट करने वाला कानून है।
मैं बताता हूं कि कैसे। जब आपके पास ऐसा कानून हो, जिस पर विभिन्न दलों की अलग-अलग राय हो तो सदन में मत-विभाजन करवा लेना बहुत सीधा-सा रास्ता होता है ताकि बहुमत तय हो जाए फिर चाहे अल्पमत उसके बारे में कितनी ही प्रबल अलग राय रखता हो। किंतु भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में आम सहमति से पारित किया गया था। भाजपा और कांग्रेस सहित सारे दलों ने इसका स्वागत किया था, इसकी बहुत सराहना की थी और इसके लिए श्रेय पर दावा किया था। अब जनमत को यह समझाना बहुत कठिन था कि सत्ता में आने के बाद भाजपा इसे इतना बुरा कानून क्यों मान रही है। जब बहुत सारे लोगों के इससे प्रभावित होने की संभावना हो तो इसे रात के अंधेरे में गुपचुप अध्यादेश के जरिये पारित करना, हताशा में जमीन पर कब्जा करने जैसा है। इससे भाजपा के अपने सहयोगी ही उससे दूर चले गए और राहुल गांधी को ‘सूट-बूट की सरकार’ का जुमला उछालने का मौका मिल गया। यह तीर निशाने पर लगा है।
याद करें जब अध्यादेश लाया गया और कांग्रेस ने कहा कि वह इसे राज्यसभा में पारित नहीं होने देगी तो भाजपा प्रवक्ता ने निर्लज्जता के साथ शेखी बघारी कि वे इसे संसद के संयुक्त अधिवेशन में पारित करवा लेंगे। यह भी कहा कि वे बार-बार संयुक्त अधिवेशन बुलाकर राज्यसभा को अप्रासंगिक ही बना देंगे। अब वह शेखी गायब हो गई है और पार्टी महत्वपूर्ण रियायतें देने को तैयार है।
इस प्रक्रिया में इसने कई आत्मघाती गोल कर दिए हैं, जिसमें ताजा है 25 कांग्रेस सांसदों का निलंबन। विशुद्ध रूप से एक नागरिक व वोटर की भूमिका में मेरी पहली सहज प्रतिक्रिया यही थी कि अच्छा किया, कांग्रेस इसी की हकदार है। परंतु यदि आप सत्तारूढ़ दल हैं और आप पर संसद चलाने की जिम्मेदारी हो ताकि आप सुगमता से शासन कर सकें तो आप ऐसा नहीं कहेंगे। यह अहंकारी राजनीति का सिर्फ एक और उदाहरण है, जिसमें लोकतंत्र के गड़बड़झाले से निपटने का धैर्य नहीं है। इससे शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा, ठीक उसी तरह जैसा जरूरी होने पर संयुक्त सत्र बुलाकर भूमि अधिग्रहण कानून पारित करने की धमकी देने के बाद हुआ।
चतुर राजनेता दो बातें जानते हैं। पहली, अपनी राजनीतिक पूंजी को बहुत सावधानी से इस्तेमाल करना और दूसरी, जिस क्षण यह लगे कि वे जीती न जा सकने वाली लड़ाई में कूद गए हैं तो कदम पीछे खींचकर अधिक नुकसान से बच जाएं। संसद के इस सत्र में मोदी इसी बिंदु पर हैं। ललित मोदी-वसंुधरा-सुषमा और व्यापमं-शिवराज जैसे मामलों से उठे बहुत गंभीर मुद्दों को सरसरी तौर पर खारिज करने सहित कई गलत कदमों ने विपक्ष को एकजुट कर दिया है और सत्ता में आने के बाद बहुत जल्दी ही उनकी संसद को ठप कर दिया गया है। यदि वे विपक्ष के सामने सहयोग के लिए हाथ नहीं बढ़ाते, संसद में कामकाज शुरू नहीं करवाते और मोटे तौर पर लोगों को यह यकीन भी नहीं दिला पाते कि वे ताजा प्रकरणों-घोटालों को गंभीरता से ले रहे हैं तो वे वहीं गलती कर रहे होंगे जो राजीव गांधी ने बोफोर्स घोटाला सामने आने के बाद की थी। 413 सीटों के बावजूद उनका पतन शुरू हो गया और तब तो न्यूज़ चैनल, सोशल मीडिया, संपर्क के इतने जरियों का अस्तित्व ही नहीं था और तो और साक्षरता दर भी बहुत कम थी। अब इस सघन रूप से जुड़ी हुई दुनिया में बुरी खबर 1987 की तुलना में बहुत तेजी से, व्यापक रूप से और बहुत गहराई तक फैलती है।