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Wednesday, November 6, 2024
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नस्लवादी रूप लेता जा रहा है जातिवाद

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दलितों की ओर से विरोध और मुखर अभिव्यक्ति के ताजा उभार ने एक पुरानी बहस को पुनर्जीवित कर दिया है। देश भर में मौजूदा दलित विरोध अत्याचार और भेदभाव से भड़का है, लेकिन यह आवश्यक रूप से गोरक्षा के मामले तक सीमित नहीं है। उदाहरण के लिए रोहित वेमुला को ही लीजिए, जिसकी आत्महत्या ने पहली चिंगारी को जन्म दिया था, उसका गोमांस के मुद्‌दे से कोई संबंध नहीं था। सवाल यह उठता है कि क्या जातिवाद की तुलना नस्लवाद से की जा सकती है? यही पुरानी बहस है।

इस तथ्य पर तो कोई बहस नहीं की जा सकती, कोई संदेह नहीं है कि जातिगत भेदभाव के कारण सदियों तक करोड़ों भारतीयों को तकलीफें, अन्याय-अत्याचार भुगतने पड़े हंै और हाल का घटनाक्रम हमें याद दिलाता है कि यह सिलसिला थमा नहीं है बल्कि बदस्तुर जारी है। पैंसठ वर्षों की सकारात्मक कार्यक्रमों, शिक्षा व नौकरियों में आरक्षण के बाद भी सरकार, न्यायपालिका, पेशेवर क्षेत्रों, कॉर्पोरेट जगत और हम भूले नहीं कि मीडिया में भी बहुत कम दलित जिम्मेदारी अथवा सत्ता की जगहों, पदों पर पहुंच सके हैं। जातिवाद ऐसी रूढ़ी है, जिसके अन्य परिणाम तो छोड़ो, खुद इसकी वजह से ही हमारे 20 फीसदी साथी भारतीयों, ज्यादातर हिंदुओं, को भयावह भेदभाव भुगतना पड़ा है। इनके अलावा कई और वर्ग भी हैं, जिन्हें अपेक्षातया बाद में ओबीसी (अन्य पिछड़े वर्ग) के रूप में अधिसूचित किया गया है, जो विभिन्न प्रकार की तकलीफें और परेशानिया भुगतते रहे हैं। ये उनके अनिवार्य, लेकिन आमतौर पर कम आमदनी वाले परंपरागत और जातिगत पुश्तैनी कामकाज व व्यवसाय करने के लिए अभिशप्त हैं। ये पशुपालन से लेकर लोहार जैसे कई तरह के छोटे-मोटे कामकाज हैं।

अब यदि इस भेदभाव की तीव्रता तथा गहराई और इसकी ऐतिहासिकता को ही देखें तो यह कहना बहुत कठिन है कि कैसे यह उस नस्लवाद और रंगभेद से अलग है, जिसे हम दुनिया के विभिन्न इलाकों में देखते रहे हैं, खासतौर पर दक्षिण अफ्रीका में। समस्या को देखने के इस दृष्टिकोण का दूसरा पक्ष बहुत कड़ा विरोध करता है, जिसमें आमतौर पर तथाकथित ऊंची जाति के लोग होते हैं। उनका दावा है कि यह एक ही धर्म में हुनर और भूमिकाओं के वितरण की परंपरागत व्यवस्था है, जिसे बेहतर समाजिक समरसता और व्यवस्थागत सुविधा के अलावा आर्थिक तथा सामाजिक स्थिरता के लिए बनाया गया था।

ये लोग दलील देते हैं कि मनु जिन्होंने यह व्यवस्था रची वे वैज्ञानिक जैसे अधिक थे या ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें आप आज की व्यवस्था में किसी बड़े कॉर्पोरेशन के मानव संसाधन विभाग (एचआरडी) के प्रमुख के रूप में वर्णित करेंगे। विचार की इस परंपरा के लोगों की दलील है कि मनु के दृष्टिकोण में कोई जाति ऊंची या नीची नहीं थी। हर जाति को एक भूमिका सौंपी गई थी और यदि किसी काम को करने का कौशल एक परिवार में अगले पीढ़ी तक हस्तांतरित किया जाता है तो इसमें गलत क्या है। इस तरह व्यवसाय पुश्तैनी बन गए। अब यह तो अपनी ही बुद्धि पर आत्ममुग्धता की स्थिति है चाहे दूसरा इससे असहमत ही क्यों न हो। यह एक परंपरा या ऊंची जाति के कुलीनवंशियों ने अपनी सुविधा के लिए गढ़ा कथानक है, जिसे एकलव्य से रोहित वेमुला और अब गुजरात के स्वयंभू गोरक्षकों द्वारा अपने साथी दलितों को यंत्रणा देने और अपमानित करने के विरोध में आत्महत्या की कोशिश करने और बाद में मर जाने वाले योगेश सारीखड़ा तक के लाखों उदाहरणों से सिद्ध किया जा सकता है। यह सिर्फ दलील भर है।

किंतु अब हमारे पास वैज्ञानिक –आनुवांशिक (जेनेटिक) और मानव वंशशास्त्रीय (एंथ्रोपोलॉजिकल)- दोनों तरह के सबूत यह सिद्ध करने के लिए हैं कि यह व्यवस्था खड़ी करने के पीछे मनु का जो भी इरादा रहा हो, जाति ने अब स्पष्ट रूप से नस्लवादी लक्षण हासिल कर लिए हैं। यह राष्ट्रीय शर्मिंदगी का कारण तो है ही, सामाजिक समरसता के लिए गंभीर खतरा भी है। इस साल जनवरी में ‘हिंदू’ के मोहित एम. राव ने एक अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट प्रकाशित की। यह अध्ययन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल जीनोमिक्स (एनआईबीएमजी) के शोधकर्ताओं ने किया था। शोधकर्ताओं ने इसी प्रश्न पर विचार करने के लिए विभिन्न समुदायों के जीन्स का अध्ययन किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला, ‘उच्चवर्गियों में एंडोगेमी (सगोत्र विवाह) यानी अपनी ही जाति में विवाह लगभग 70 पीढ़ियों पहले शुरू हुआ या इतिहास के आधार पर कहना हो तो 1500 साल पहले हिंदू गुप्तकाल के समय में ऐसे विवाहों की शुरुआत हुई।’ उनका शोधपत्र प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल अकेडेमिक साइंसेस ऑफ यूनाइडेट स्टेट्स ऑफ अमेरिका (पीएनएएस) जैसी प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला, ‘उस काल में सामाजिक रूपांतरण के कारण जातियों के बीच विवाह के विरुद्ध सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करने वाले नियम सामने आए जैसाकि धर्मशास्त्रों में भी निर्दिष्ट था। सावधानी से किए गए आनुवांशिक अध्ययन के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि इस सबकी छाप भारतीयों के डीएनए पर पड़ी है। डीएनए में पैतृक जींस का पूरा एक ब्लॉक देखा गया है।’

जाहिर है जो 70 पीढ़ियों पहले शुरू हुआ था वह वास्तव में अब तक उलटा नहीं जा सका है। यदि इस बारे में आपको कोई संदेह हो तो आप आपके सारे अखबारों और वेबसाइट पर आने वाले वैवाहिक विज्ञापनों पर नज़र डालिए। जाति के भीतर विवाह के आग्रह साफ नज़र आ जाएंगे।

जब तक कि इस जातिगत व्यवस्था को उलटने वाला सामाजिक बदलाव नहीं होता, यह दलील कि हमारे रूढ़िवाद में आबादी पर आनुवांशिक प्रभाव वाली नस्लीय लक्षण हैं और यह कि पुराना जातिवाद अब नस्लवाद का रूप ले चुका है, और भी मजबूत होती जाएगी।

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