अमेरिका में 9/11 की घटना के बाद तत्कालीन बुश प्रशासन के सहायक विदेश मंत्री रिचर्ड आर्मिटेज ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख को तलब किया था और कहा कि वह तालिबान का साथ छोड़कर अमेरिकी सहयोगी बन जाए या फिर परिणाम भुगते। पाकिस्तानी जनरल ने कहना शुरू किया कि अफगानिस्तान में उनके देश और उनकी एजेंसी का एक इतिहास है और वहां से उनके अहम हित जुड़े हुए हैं। कहा जाता है कि आर्मिटेज ने इसके जवाब में घोषणा की थी, ‘इतिहास, अभी इसी वक्त, यहां शुरू होता है।’ कई बार घटनाएं, नेता, विचारक आदि इसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं और जब उनको यकीन होता है कि उनके पास ऐसा करने की ताकत है तो वे ऐसी ही घोषणा करते हैं। नरेंद्र मोदी ने भी कार्रवाई की घोषणा के साथ यही किया है। यह कार्रवाई कश्मीर में नियंत्रण रेखा के समांतर की गई। 28 और 29 सितंबर की दरमियानी रात को ठीकठीक क्या हुआ, भारतीय कमांडो कितने अंदर गए, जानमाल के नुकसान के मामले में उनको कितनी सफलता मिली, या फिर अगर पाकिस्तान के प्रश्नों को तरजीह दी जाए तो क्या वे सीमा पार गए भी या केवल अपने इलाके से गोलीबारी कर दो पाकिस्तानी जवानों को मार दिया, ये सभी मामूली और तकनीकी प्रश्न हैं। अहम सामरिक मुद्दा यह है कि भारत ने इस कार्रवाई की सार्वजनिक घोषणा की है। यह बात भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को अब नए सिरे से परिभाषित करेगी। इससे इस बात का मजबूत संकेत भी मिलता है कि भारत की ओर से अब पहले जैसी प्रतिक्रिया नहीं रहेगी। कहा जा सकता है कि मोदी कह रहे हैं: इतिहास अब शुरू होता है।
सन 1989 में कश्मीर घाटी में दिक्कतों की वापसी के बाद आतंक ने मुख्य भारत में पहली दस्तक सन 1993 में मुंबई में हुए सिलसिलेवार धमाकों के रूप में दी थी। उसके बाद से भारत की प्रतिक्रिया को लेकर कई तरह की बातें सामने आईं। इनमें से कुछ तो सन 1972 के शिमला समझौते की भावना के अनुरूप कही जाने वाली पुरानी बातें थीं जिनमें कहा गया कि द्विपक्षीय कश्मीर समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की पाकिस्तान की किसी भी कोशिश का पुरजोर विरोध होगा। दूसरा सिद्घांत इससे संबंधित था जिसमें कहा जाता कि शिमला समझौते के तहत बनी नियंत्रण रेखा को स्वत: सीमा का दर्जा प्राप्त है और वहीं से कश्मीर का बंटवारा होता है। कहा जाता कि किसी उपयुक्त समय दोनों देश उसे मान्यता देंगे। सन 1989 तक दोनों देशों ने इसका सम्मान भी किया।
हकीकत में सन 1984 की ठंड में सियाचिन ग्लेशियर पर भारत की पहल को यह कहकर उचित ठहराया गया कि यह उस क्षेत्र में भारत की अपनी मौजूदगी जताने की कवायद है जो एलओसी में चिह्नित नहीं है। इसकी व्याख्या को नियंत्रण रेखा के समांतर तथाकथित ‘प्वाइंट एनजे9842 से आगे ग्लेशियर के साथ-साथ’ के रूप में पेश किया गया। पाकिस्तान ने इसका प्रतिवाद किया और कई हमले किए लेकिन इसकी उसे खुद बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। करगिल युद्घ में भारत की प्रतिक्रिया भी इसी सिद्घांत पर आधारित थी कि नियंत्रण रेखा स्वत: सिद्घ सीमा है। इसके परिणाम पूरे विश्व में नियंत्रण रेखा को मान्यता मिली और इसे भारत के लिए सामरिक बढ़त माना गया।
यही वजह है कि कई मौकों पर भारतीय सेना ने सामरिक वजहों से नियंत्रण रेखा पार करके कार्रवाई की लेकिन इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया। सेवानिवृत्त सेना प्रमुख जनरल विक्रम सिंह ने एक प्रश्न के उत्तर में स्वीकार किया कि सेना ने जनवरी 2013 में दो भारतीय जवानों के सर काटे जाने का बदला लिया था, लेकिन उन्होंने इसका कोई ब्योरा नहीं दिया। करगिल के तत्काल बाद जब चार मिराज 2000 विमानों की मदद से एक पाकिस्तानी ठिकाने को ध्वस्त किया था तब भी कुछ नहीं कहा गया था। मिराज विमानों ने गोपनीयता बचाते हुए उस मिशन को शिवालिक पहाडिय़ों में काफी भीतर अंजाम दिया था। अहम बात यह है कि पाकिस्तान भी इन मौकों पर खामोश रहा। शायद उसने सोचा होगा कि उचित वक्त पर जवाब देगा। वह इतिहास अब समाप्त हो चुका है। पाकिस्तान से नियंत्रण रेखा का सम्मान करने को कहने के बजाय भारत ने अब खुद इस पर प्रश्नचिह्नï लगा दिया है। पाकिस्तान पर कश्मीर मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की शिकायत करने के बजाय भारत अब खुद ऐसा कर रहा है। उसने पाकिस्तान पर आतंक फैलाने और परमाणु हथियारों के जरिये ब्लैकमेल करने की तोहमत थोपी है। राजग सरकार ने भले ही इस काम के लिए एक कनिष्ठï मंत्री को तैनात किया लेकिन राज्यवर्धन सिंह राठौर ने कहा है कि कश्मीर हमारा हिस्सा है तो उसके किसी भाग में जाना उल्लंघन कैसे हुआ। यह बात अहम है? खासतौर पर यह देखते हुए कि हाल ही में प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर, गिलगित और बाल्टिस्तान का उल्लेख किया। अब तक इस बात पर सहमति थी कि कश्मीर समस्या का अंतिम हल नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा मानने के रूप में निकलेगा। शिमला समझौते की भावना भी वही थी और जैसा कि खुर्शीद कसूरी ने लिखा है वाजपेयी, नवाज शरीफ, मुशर्रफ, मनमोहन सिंह के दौर में हुई बातचीत में भी। वर्ष 2001-02 में हुए ऑपरेशन पराक्रम को प्रतिरोधी कूटनीति कहा गया।
वह उसी नीति का हिस्सा था। अब वह सिलसिला खत्म हो चुका है। अगर पाकिस्तान ने 1989 की अशांति का लाभ लेकर शिमला समझौते की अवहेलना की, अब भारत ने ठीक वही किया है। नरेंद्र मोदी की विश्व दृष्टि में पाकिस्तान शिमला समझौते तक सीमित है और अब लड़ाई ज्यादा हासिल करने की है। अपने राजनीतिक, सामरिक और कूटनयिक कदम से उन्होंने पाकिस्तान की उस सहजता को क्षति पहुंचाई है। पाकिस्तान से शिमला समझौते का सम्मान करने की मांग करने के बजाय नरेंद्र मोदी इस पुरानी दलील को एकदम पलटने जा रहे हैं। अगर शिमला समझौते के चार दशक बाद पाकिस्तान कश्मीर को विभाजन का बचा हुआ काम बता सकता है तो भारत इसे शिमला का अधूरा काम क्यों नहीं कह सकता? सुनने में क्रूर लग रहा है लेकिन देश की पहली विशुद्घ दक्षिणपंथी सरकार की यही सोच है। वह यथास्थिति बरकरार नहीं रखना चाहती बल्कि उसे इसे भंग करने में ही देश का लाभ दिख रहा है।
इस बात को ध्यान में रखकर एक नई नीति निर्मित की जा रही है। मोदी सरकार परमाणु सीमा के दायरे से परे कोई चढ़ाई न करने के विचार को पुनर्परिभाषित कर रही है। उसका मानना है कि नाभिकीय हथियारों का भय एकतरफा प्रतिरोध बन चुका है। या फिर वह एक ऐसी छतरी बन चुका है जिसके नीचे पाकिस्तान भारत को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों को अंजाम दे रहा है। भारत को पाकिस्तान के बगल में रहना है और वह हमेशा ब्लैकमेल नहीं हो सकता। इन आधारभूत बदलावों का एक परिणाम सामरिक प्रतिरोध के सिद्घांत को भी हर्ज होगा। लेकिन अब वह सीमा इतनी बढ़ गई है कि भारत के पास प्रतिरोधक कदम उठाने की गुंजाइश बढ़ी है।
फिलवक्त जब नजरिये को विचार के रूप में देखा जा रहा है और 10 सेकंड की कोई साउंड बाइट या 140 अक्षरों का ट्वीट विश्लेषण माना जा रहा है, कुछ भी जटिल या परतदार बात लिखने के अपने जोखिम हैं। 18 सितंबर को उड़ी हमले की खबर सामने आने के तत्काल बाद मैंने कहा था कि पाकिस्तान अगर यह सोच रहा है कि भारत इसे भी यूंही भुला देगा तो वह गलती कर रहा है क्योंकि अब हम पुराने सामरिक प्रतिरोध के वक्त से आगे निकल आए हैं। इस क्षणिक ध्यानाकर्षण वाले समय में जमीनी हकीकत के विश्लेषण और आदेशात्मक राय में भेद कर पाना मुश्किल है। ये एक दूसरे से उलट हो सकते हैं।
तमाम विश्लेषण नई हकीकत पर आधारित होने चाहिए। यह सही है या गलत इसके आकलन का वक्त दूसरा होगा। पहली बात, हमें यह मानना होगा कि यह एक नई दक्षिणपंथी सरकार है जिसने पुराने रुख को त्याग दिया है। वह नियंत्रण रेखा की पवित्रता, सामरिक प्रतिरोध, प्रतिरोधात्मक कूटनीति आदि पर निर्भर नहीं है। उसने परमाणु हथियारों की आशंका को भी परे किया है। जो अब खो चुका उसका शोक मनाने अफसोस का कोई अर्थ नहीं है चाहे वह कितना भी दुखद क्यों न हो। भारतीय विश्लेषकों और और पाकिस्तानी नीति निर्माताओं के लिए यह बात अहम है। वे एक नए इतिहास से रूबरू हैं।