संयुक्त राष्ट्र साधारण सभा की सालाना बैठक के मौके पर होने वाली नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के बारे में बहुत कुछ लिखा व कहा जा चुका है। अब भी लिखा-कहा जा रहा है। यह सच है कि अमेरिकी मीडिया और लोगों में पोप असली स्टार हैं। उनके बाद कुछ फासले पर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन आते हैं, लेकिन मोदी ने जो माहौल निर्मित किया वह पूरी तरह दोस्ताना और विवाद से परे रहा। ग्लोबल सीईओ से मुलाकात और सिलिकॉन वैली की हाईटेक कंपनियों से संपर्क इस मायने में लाभदायक रहे कि इससे आधुनिक शिक्षा, टेक्नोलॉजी और उद्यमशीलता के आस-पास रचे गए नए ब्रैंड इंडिया को मजबूती देने में मदद मिली।
अब तक की यात्रा में मोदी ने दो महत्वपूर्ण काम किए हैं। एक, सुरक्षा परिषद में सुधार और भारत के लिए इसमें स्थायी सदस्यता को केंद्र में रखकर उन्होंने इस यात्रा का राजनयिक स्तर ऊंचा उठा दिया। फिर चाहे मेरे भीतर के विश्लेषक का दृष्टिकोण यह है कि हम भारतीय जुनूनी हद तक इस सदस्यता को महत्व दे रहे हैं, जिसे हम वैश्विक मंच पर महत्वपूर्ण ओहदे के रूप में देखते हैं। हमें अहसास ही नहीं है कि यदि सदस्यता मिल भी जाए तो उसे पुराने सदस्यों जैसे अधिकार खासतौर पर वीटो का अधिकार मिलने की उम्मीद नहीं है। किंतु महत्वहीन घरेलू और क्षेत्रीय विवादों को न्यूयॉर्क के सम्मेलन में लाने से तो यह बेहतर है। एक से दूसरे राष्ट्राध्यक्ष के पास जाकर पाकिस्तान को आतंकवाद को बढ़ावा देने से रोकने का अनुरोध करने से तो नए जी-4 में शिंजो एबे, एंगेला मर्केल और डिल्मा रौसेफ के साथ आप अधिक गरिमामय नज़र आते हैं।
दो, अपने साथी वैश्विक नेताओं की बजाय ग्लोबल सीईओ के साथ ज्यादा समय गुजारकर उन्होंने पहली बार फोकस पूरी तरह बिज़नेस पर ला दिया है। यदि अर्थशास्त्र ही नई कूटनीति और मुख्य रणनीतिक हित है तो मोदी ने जबर्दस्त दिशा परिवर्तन किया है। हम भारतीय एक पुरानी बीमारी से ग्रस्त हैं : वक्त से पहले ही जीत की घोषणा करने की। हम छोटी-सी अच्छी खबर या सफलता में बह जाते हैं, ठीक उसी तरह जैसे हम एक-दो झटके खाकर ही अवसाद में उतर जाते हैं। इस मामले में हमने हमारे प्रधानमंत्री को वैश्विक नेताओं में रॉक स्टार घोषित करने में कोई देर नहीं लगाई। हमने इस तथ्य की अनदेखी कर दी कि उनका सेलेब्रिटी होना एक वास्तविकता तो है, लेकिन वह ज्यादातर विदेश में बसे भारतीयों तक सीमित है। निश्चित ही इंदिरा गांधी के बाद से वे दुनिया में पहचाने जाने वाले हमारे पहले नेता हैं, लेकिन नेता का कद उतना ही ऊंचा होता है, जितना उसके देश का। हमारे मीडिया व विदेश में बसे भारतीयों में उनकी लोकप्रियता से हमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वैश्विक मंच पर भारत प्रमुखता से उभर चुका है। इसके लिए हमें स्वदेश में बहुत कड़ी मेहनत करने की जरूरत है।
किसी राष्ट्र और उसके नेता को यदि वैश्विक स्तर पर वास्तविक महत्ता हासिल कर आकर्षण का केंद्र बनना है, तो उसे चीन जैसी प्रभावी आर्थिक शक्ति या जर्मनी की तरह क्षेत्रीय प्रभाव रखने वाला देश बनना होगा। रूस जैसा सामरिक खतरा अथवा दूसरे छोर पर जाएं तो पाकिस्तान जैसा अंतरराष्ट्रीय सिरदर्द देने वाला देश (ये मेरे नहीं, मेडलिन अल्ब्राइट के शब्द हैं) बनने से भी यह उद्देश्य हासिल किया जा सकता है। भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ रही है और इसमें बहुत अच्छी संभावनाएं नज़र अा रही हैं, लेकिन इसे लंबा रास्ता तय करना है। यह कहना ठीक नहीं कि हम दुनिया की दूसरी सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था हैं और विशुद्ध रूप से वृद्धि दर के मामले में चीन को भी पीछे छोड़ सकते हैं। इसमें इस हकीकत की अनदेखी की गई है कि बड़ी शक्तियों की तुलना में हमारी अर्थव्यवस्था का आकार अभी भी छोटा है और प्रति व्यक्ति आय के मामले में तो हम बहुत नीचे हैं। मोटेतौर पर शेष दुनिया हमारी प्रगति व संभावनाओं का स्वागत करती है। किंतु आज संचार की अधिकता और भारत पर ध्यान केंद्रित होने के कारण हमारी कई खामियां भी अधिक नज़र आने लगी हैं। इनमें असमानता, जातिगत भेदभाव, स्वच्छता का अभाव, हवा में अत्यधिक प्रदूषण, महिलाओं के खिलाफ अपराध और नवीनतम है खुद ही बुलाई आफत : हमारी प्रतिबंधों वाली संस्कृति।
हमने भूतकाल में हमारे नेताओं को वैश्विक रुतबा हासिल करते देखा है और उसके कारण स्पष्ट थे। जवाहरलाल नेहरू को उनकी बुद्धिमत्ता, कई महत्वपूर्ण किताबों के लेखक होने और स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका के कारण वैश्विक दर्जा मिला था, लेकिन उन्हें और भी अधिक ऊंचाई इस तथ्य से मिली थी कि भारत दुनिया का ऐसा गरीबतम देश था, जिसने शांति के जरिये सफलतापूर्वक स्वतंत्रता आंदोलन लड़ा और फिर इतनी विविधता को समायोजित करते हुए उदार, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष संविधान निर्मित किया। परंतु चूंकि भारत की आर्थिक व सैन्य शक्ति इस दर्जे के अनुरूप बढ़ नहीं सकी, चीन से 1962 की हार के बार तब के प्रधानमंत्री नेहरू के साथ दुनिया में भारत का दर्जा भी घट गया।
इसी तरह इंदिरा गांधी को गुटनिरपेक्ष देशों की नेता के रूप में मान्यता मिली और निक्सन-किसिंजर को धता बताकर बांग्लादेश युद्ध में सफलता के कारण उनका वैश्विक रुतबा बढ़ा। लेकिन फिर 1971 के बाद मुख्यत: वामपंथ की ओर झुकाव के उनके बुद्धिमत्ताहीन व सनकभरे फैसले के कारण भारत के आर्थिक संघर्ष और उसके कारण आपातकाल लागू करने पर भारत फिर सम्मान खो बैठा और इंदिरा गांधी को शर्मिंदगी की वजह के रूप में देखा जाने लगा।
भारत का रिकॉर्ड रहा है कि वह एक कौंध की तरह दुनिया को अद्भुत चीजों का वादा करता है और बाद में अपेक्षा पर खरा नहीं उतरता। यहां तक कि 1991 के सुधारों के बाद आर्थिक वृद्धि के विस्फोट व 2000 और 2010 के बीच बहुत अच्छे दशक के बाद सब कुछ गड़बड़ राजनीति या वैचारिक भ्रम या दोनों के घटाटोप में खो गया। तीस साल बाद लोकसभा में पूर्ण बहुमत के साथ मोदी की जीत ने फिर वैश्विक अपेक्षाएं बढ़ा दी हैं। अब भारत फिर अपेक्षा से नीचा प्रदर्शन कर दुनिया को निराश करने का जोखिम नहीं उठा सकता। ध्यान रहे कि कोई राष्ट्र इसके नेताओं की लोकप्रियता या उनके वैश्विक सम्मान पर सवार नहीं हो सकता- वास्तविकता तो पूरी तरह इसके उलट है। कोई नेता उतना ही शक्तिशाली व सम्माननीय होता है, जितना वह राष्ट्र, जिसका वह नेतृत्व करता है। यही वजह है कि मोदी के स्वदेश लौटने के बाद बहुत मेहनत करने की जरूरत होगी।