प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को स्वतंत्रता दिवस के भाषण में पाक अधिकृत कश्मीर, गिलगित व नॉदर्न एरिया और यहां कि बलूचिस्तान तक का जिक्र कर दिया। हमें यह निष्कर्ष निकालने के लिए और सबूत चाहिए कि यह सिर्फ शोशेबाजी थी या कोई नीतिगत बड़ा परिवर्तन। यह तो नीति के उजागर होने के साथ ही पता चलेगा। किंतु यदि हम अब तक प्रधानमंत्र मोदी की शैली समझ चुके हैं तो ऐसा लगता है कि यह नाटकीय और मूलभूत परिवर्तन है।
जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत का पाकिस्तान से मुखातिब होने का तरीका बीते सत्तर वर्षों में कई बदलावों अौर मोड़ों से गुजर चुका है। किंतु ज्यादातर ये बदलाव एक ही सामान्य दिशा की ओर बढ़ने का संकेत रहे हैं: यथास्थिति को मजबूत करने के और जो जमीन पर दिखाई दे रहा है, उसे ही वैध रूप देने की दिशा। 1965 तक भारत ने अपनी ओर से पाकिस्तान के साथ कश्मीर से जुड़े सारे मुद्दों पर बातचीत की इच्छा दर्शाई, इसमें क्षेत्रों के आदान-प्रदान के फॉर्मूले भी शामिल रहे। 1962 में चीन के हाथों झटका खाने के बाद सरदार स्वर्ण सिंह और जुल्फिकार अली भुट्टो क्रमश: भारत व पाकिस्तान के रेलवे मंत्री और विदेश मंत्री के बीच चर्चा के लंबे दौर चले। ये दौर पश्चिमी देशों के दबाव में भी हुए। चूंकि भारत को अपनी रक्षा सेनाएं चीन से बचाव के लिए लगानी थीं, उसने पश्चिमी देशों से कश्मीर मामले पर मदद मांगी थी। समकालीन इतिहासकारों ने रेखांिकत किया है कि बातचीत के तब के दौरों में कुछ प्रगति हुई भी थी, लेकिन पाकिस्तान अपनी मांगों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा था। वह अधिकतम हासिल करने पर तुला था। फिर स्वर्ण सिंह भी बाधाएं खड़ी करने लगे।
तब पाकिस्तान ने निष्कर्ष निकाल लिया था कि चीन के हाथों पराजय के बाद भारत कमजोर हो गया है तो बेहतर होगा कि वह पूरे कश्मीर को ही हड़प ले। उसने पहले कश्मीर में उपद्रव खड़ा करने से शुरुआत की। यह अब हजरतबल संकट के नाम से प्रसिद्ध है। अफवाहें फैलाई गईं कि पवित्र स्मृति चिह्न, जो कि पैगम्बर साहब का मजार में रखा बाल था, वहां से गायब हो गया है।
भारत तब जवाहर लाल नेहरू के अचानक हुए निधन अौर उसके बाद लाल बहादुर शास्त्री द्वारा उनके उत्तराधिकारी बनने सहित कई तरह के संकटों से जूझ रहा था, पाकिस्तान ने भारत की सैन्य तैयारी और दृढ़-निश्चय को परखने का फैसला किया और कच्छ के रण में सीमित सैन्य हमला कर दिया। भारत इसके लिए तैयार नहीं था और पाकिस्तान द्वारा टैंकों का इस्तेमाल करने से भौचक्का भी रह गया। तब से कई लेखकों ने रेखांकित किया है कि रणनीतिक और सामरिक रूप से शास्त्री ने निर्णय लिया कि इस हद तक अपने सैन्य संसाधन नहीं लगाए जाएं बल्कि बड़े युद्ध के लिए तैयारी शुरू कर दें। वे बिल्कुल सही थे। कुछ ही महीनों बाद पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर के तहत हजारों घुसपैठिए (जिनमें ज्यादातर उसके नियमित सैनिक थे) कश्मीर में भेज दिए। जब उसमें सफलता नहीं मिली तो फील्ड मार्शल अय्यूब खान ने छम्ब में टैंक व तोपखानों सहित ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम के साथ युद्ध छेड़ दिया। यह पूर्ण युद्ध में बदल गया अौर 22 दिन चला तथा गतिरोध के साथ खत्म हुआ। किंतु पाकिस्तान ही पराजित था, क्योंकि उसने जो भी हासिल करने के लिए यह सब किया था, उसे हासिल नहीं हुआ। वह यह देख चकित रह गया कि भारत की हथियारों के मामले में कमजोर सेना हाल ही में अमेरिका से अत्याधुनिक शस्त्र हासिल करने वाली पाकिस्तानी सेना का असरदार तरीके से सामना कर सकी। इस निर्णायक चरण का सर्वश्रेष्ठ वर्णन तो हाल में प्रकाशित असाधारण किताब ‘मानसून वॉर’ में है, जिसे कैप्टन अमरिंदर सिंह और लेफ्टिनेंट जनरल टीएस शेरगिल ने लिखा है।
1965 के इस दुस्साहस का पाकिस्तान के लिए एक महत्वपूर्ण नतीजा रहा। इसने घड़ी को फिर 1948 में पहुंचा दिया- संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में शांति प्रक्रिया, बातचीत और जनमत संग्रह पर समझबूझ। कश्मीर को सैन्य ताकत से लेने का प्रयास करके नाकाम होने के बाद पाकिस्तान फिर संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव की बात नहीं उठा सकता था। यह प्रक्रिया 1972 के शिमला समझौते के साथ पूरी हुई, जब पाकिस्तान पुरानी युद्ध विराम रेखा को नियंत्रण रेखा (एलओसी) का नाम देने पर राजी हुआ। भारत ने यह मान लिया कि समझौते का अर्थ है कि इसे ही सीमा रेखा मान लिया गया है, जो बाद में इसकी नादानी ही सिद्ध हुई। पाकिस्तान ने अपना अधिक आबादी वाला पूर्वी हिस्सा 1971 के युद्ध में खोया था और इंदिरा गांधी को लग रहा था कि वे अपनी शर्तों पर कश्मीर का मुद्दा तय कर रही है। उन्हें गलतफहमी हुई थी। उसके बाद पाकिस्तान ने परमाणु हथियार हासिल करने की अथक कोशिश शुरू कर दी। कश्मीर मुद्दा अब भी सुषुप्तावस्था में पड़ा था और घाटी में शांति थी। लेकिन 1970 के उत्तरार्द्ध में अफगानिस्तान में सोवियत आक्रमण और अमेरिकी समर्थन प्राप्त मुजाहिदीनों ने पाकिस्तान की निर्णायक सहायता से उसका मुकाबला किया तो स्थिति बदल गई। 1980 के दशक के अंत तक पाकिस्तान को भरोसा हो गया कि उसने अफगानिस्तान में हजार घावों की रणनीति से शक्तिशाली सोवियत संघ को पराजित कर दिया है तो क्यों न इसे कश्मीर व पंजाब में भारत के खिलाफ आजमाया जाए। इसी के साथ मौजूदा उपद्रव की शुरुआत हुई, जिसमें राजीव गांधी के सत्ता में रहते 1987 के चुनाव में की गई गड़बड़ी से और उकसावा मिला। तब से पाकिस्तान और भारत ने एक ही नीति अपना रखी है, जिसे शायद माओ ‘टॉक टॉक, फाइट फाइट’ कहकर वर्णित करते। संघर्ष लो-लेवल और घाटी तक सीमित रहा है। दोनों पक्षों ने कश्मीर सहित सारे मुद्दों पर बातचीत का रुझान दिखाया है।
प्रधानमंत्री ने सोमवार को पाकिस्तान के बलूचिस्तान व नॉदर्न एरिया का जिक्र करके इसे बदल दिया है। नया तरीका यही है, ‘यदि आप हमारे कमजोर क्षेत्र में गड़बड़ करोगे तो हम आपके सबसे नाजुक क्षेत्र के साथ यही करेंगे। फिर भौगोलिक मर्यादाएं चाहे जो हों।’ उस हद तक भारत ने खेल के नियम बदल दिए हैं। गेंद अब पाकिस्तान के पाले में है।