सवाल यह है कि जब ट्विटर नहीं था तब आंतरिक सुरक्षा के मसले पर भारत किस तरह से जवाब देता था? लगभग उसी तरह जैसा ट्विटर के दौर में भारत का जवाब होता है। आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का रिकॉर्ड काफी हद तक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार जैसा ही है। फर्क इतना है कि मौजूदा सरकार किसी भी घटना के बाद कायराना, राष्ट्र-विरोधी और विश्वासघाती जैसी जुबानी मिसाइलों का इस्तेमाल करने लगती है। मौजूदा सरकार पहले ट्विटर पर अपना गुस्सा निकालती है और फिर उच्च-स्तरीय बैठकों का दौर शुरू होता है। लोगों को यह भरोसा दिलाया जाता है कि हमारे जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी। अगर घटना इस हफ्ते बस्तर में हुए हमले जैसी शर्मनाक हो तो सरकारी नुमाइंदे जवानों के अंतिम संस्कार कार्यक्रमों में शरीक हो जाते हैं। लेकिन अगले 48 घंटों में कोई और मामला आ जाता है जिसके बाद उस मुद्दे को भुला दिया जाता है। इस बार भी बस्तर के कुछ घंटों बाद ही कुपवाड़ा में आतंकी हमला हो गया। विनोद खन्ना के निधन के बाद वह घटना भी पीछे छूट गई।
उड़ी हमले के बाद की गई सर्जिकल स्ट्राइक को छोड़ दें तो राजग सरकार की भी आंतरिक सुरक्षा के मामलों में प्रतिक्रिया काफी हद तक संप्रग सरकार जैसी ही रही है। हालांकि विपक्ष में रहते समय भाजपा के नेता तत्कालीन सरकार के रवैये की कड़ी आलोचना किया करते थे। स्मृति ईरानी ने संप्रग सरकार के मंत्रियों को चूडिय़ां भेजने की बात की थी। खुद नरेंद्र मोदी भी मुंबई हमलों के दौरान ओबेरॉय होटल के ठीक पास उतरे थे जब एनएसजी कमांडो वहां आतंकियों से लोहा ले रहे थे। यह किसी पड़ोसी राज्य के मुख्यमंत्री के लिए असाधारण बात थी। संप्रग सरकार ने एक के बाद एक कई ऐसे फैसले किए जिनसे लोगों के बीच यह धारणा बनी कि आंतरिक सुरक्षा के मामले में सरकार कमजोर है और उसके नेतृत्व की तो रीढ़ ही नहीं है। घरेलू स्तर पर आतंक फैला रहे और हिंसा का तांडव कर रहे नक्सलियों के प्रति संप्रग सरकार का रवैया ढुलमुल रहा। दिल्ली के बटला हाउस मुठभेड़ के बाद मुस्लिम समूहों के प्रति कांग्रेस का दोहरा चेहरा उजागर हुआ था। खास तौर पर मुठभेड़ में शहीद हुए इंस्पेक्टर को अशोक चक्र से सम्मानित करने के बाद मुठभेड़ पर सवाल उठाना लोगों को अखरा था।
नक्सलियों के मामले में भी संप्रग सरकार का यही रवैया पुष्ट हुआ था। पहले तो तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने माओवादियों के खिलाफ जो अभियान चलाया हुआ था उसे सियासी वीटो का इस्तेमाल कर रोक दिया गया। दूसरे, राष्ट्रद्रोह के मामले में दोषी ठहराए जा चुके डॉ विनायक सेन को माफी देकर योजना आयोग की एक प्रमुख समिति का सदस्य बनाया गया था। वर्ष 2014 में भाजपा को मिली बड़ी जीत के लिए आम तौर पर संप्रग-2 की आर्थिक मामलों में विकलांगता को ही बड़ी वजह बताया जाता रहा है लेकिन आंतरिक सुरक्षा पर भीरुतापूर्ण रुख अख्तियार करने वाली छवि का भी उसमें योगदान रहा था।
राजग सरकार को भी सत्ता में आए अब तीन साल हो चुके हैं, ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर प्रदर्शन कैसा रहा है? मोदी के सत्ता संभालते समय कश्मीर काफी हद तक शांत था लेकिन अब वह जल रहा है। हम सभी जानते हैं कि कश्मीर घाटी में पहले भी हिंसक प्रदर्शन होते रहे हैं लेकिन वहां का कोई भी बुजुर्ग यह बता देगा कि इससे पहले कभी भी कश्मीरी अवाम ने इस तरह अलगाव नहीं महसूस किया। भाजपा ने कश्मीर की पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने का साहसिक फैसला किया था लेकिन अब वह दांव उल्टा पड़ चुका है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि विचारधारात्मक मतभेद के बिंदुओं पर दोनों ही पक्ष समाधान तलाशने में नाकाम रहे हैं। भाजपा-पीडीपी गठजोड़ भले ही अस्वाभाविक था लेकिन उसके नैतिक, रणनीतिक और राजनीतिक निहितार्थ भी थे। इस गठबंधन को कामयाब बनाने के लिए जरूरी था कि भाजपा अधिक संयम दिखाए और तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद को गोमांस प्रतिबंध और मसरत आलम की रिहाई जैसे मामलों पर न घेरे। सईद के असामयिक निधन ने भी इस गठबंधन की सफलता को मुश्किल बना दिया।
माओवादी हिंसा से निपटने के मामले में मोदी सरकार कुछ समय पहले तक प्रगति की राह पर नजर आ रही थी लेकिन हाल के दो नक्सली हमलों ने उसकी खामियों को सामने ला दिया। इस सरकार ने नक्सली प्रभाव वाले इलाकों में अद्र्धसैनिक बलों की संख्या में वृद्धि और समुचित खुफिया तंत्र तैयार किए बगैर सड़कों के निर्माण में तेजी लाने की कोशिश की थी। नक्सली इलाकों में दो घटनाओं से सुरक्षाबलों की खराब प्रतिक्रिया और कमान स्तर की अपमानजनक नाकामी भी खुलकर सामने आई है। इस दौरान बड़ी संख्या में हथियार भी गंवाने पड़े हैं। माओवादी नक्सलियों ने सुरक्षाबलों पर हमले कर असॉल्ट राइफलें, हल्की मशीनगन, ग्रेनेड लॉन्चर, वीएचएफ रेडियो सेट और बुलेटप्रूफ जैकेट लूट लिए। कुछ शहीद जवानों के शवों को क्षत-विक्षत कर नक्सलियों ने सरकार के सामने अपनी मंशा साफ कर दी है। निश्चित रूप से यह ऐसा नजारा है जिसका वादा मोदी ने 2014 में तो नहीं ही किया था।
इस सप्ताह का नक्सली हमला दोपहर 11.30 बजे हुआ। इसमें उस मजबूत सरकार को दिन की पर्याप्त रोशनी मिली थी, जो हमेशा हत्यारों को रोकने के लिए विदेशी क्षेत्र में ‘घुसने’ की बात करती है। हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल करते हुए नए और प्रशिक्षित जवानों को वहां तैनात किया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया, इसका एक कारण यह है कि सुरक्षाकर्मियों के पास इसके लिए आवश्यक साजो-सामान नहीं है। तीन साल की ‘कट्टर राष्ट्रवादी’ सरकार में तैयारी का ऐसा अभाव ठीक वैसा ही है, जिसके लिए कभी भाजपा संप्रग की आलोचना करती थी। राजग की आतंरिक सुरक्षा की बैलेंस शीट में कई दूसरी जगहों पर भी लाल निशान हैं। नगालैंड भारी संकट में है और मणिपुर के सीमावर्ती जिलों में विद्रोह की आग फिर भड़कने लगी है। नगा शांति वार्ता पटरी से उतर गई है और पहली बार एनएससीएल के गुटों ने नगालैंड के आसपास के जिलों में हमले किए हैं। अगर आप मई 2014 और अब के आंतरिक सुरक्षा के रंगीन नक्शे सामने रखते हैं तो यह तस्वीर मोदी की प्रशंसा लायक नहीं होगी। उन्हें गुरदासपुर, पठानकोट और उड़ी की असफलता के पर्दे को हटाने में सर्जिकल स्ट्राइक से मदद मिली थी। लेकिन आप एक ही चेक को बार-बार नहीं भुना सकते। कश्मीर में स्थिति नियंत्रण से बाहर निकलने की नाकामी को वह और उनकी पार्टी जनता के बीच कुशल राजनीतिक संदेशों से ढंकने में सफल रही है, जिसमें उन्हें पाकिस्तान पर आरोपों, बढ़ते इस्लामवाद, सैनिक बनाम पत्थरबाज देशद्रोही और न्यूज चैनलों से मदद मिली है। भले ही इससे पार्टी को मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में मदद मिली हो, लेकिन यह रणनीति खतरनाक और अस्थायी है।
ईश्वर का शुक्र है कि कुपवाड़ा की घटना उड़ी जैसे नरसंहार के रूप में खत्म नहीं हुई। सैन्य टुकडिय़ां भी महीनों से दबाव में हैं और उनका धैर्य जवाब दे रहा है। उन्होंने एक जगह हिंसक भीड़ पर फायरिंग शुरू कर दी, जो गावकाडल जैसे नरसंहार में भी तब्दील हो सकती थी। वह घटना 27 साल पहले हुई थी और आज भी एक दाग है। कश्मीर को विभाजक राजनीति की स्वार्थी समस्या में गूंथना तब तक काम कर सकता है। लेकिन माओवादी और उत्तर-पूर्व की जारी समस्याएं, आए दिन गौरक्षकों की गुंडागर्दी और सुरक्षाकर्मियों की बढ़ती शहादत राष्ट्रीय मिजाज को बिगाड़ सकती हैं, जिसकी कीमत भाजपा को चुकानी पड़ेगी। इन मसलों पर कमजोरी, अनभिज्ञता और कोरी बयानबाजी से उसका काम नहीं चलेगा। नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और संदेश देने का कौशल का कोई सानी नहीं है, लेकिन इनसे वह जिंदगियों और नियंत्रण खोने के नुकसान को नहीं ढक सकते। इसे जल्द ही कमजोरी और अक्षमता के रूप में देखा जाने लगेगा। आंतरिक सुरक्षा पर असफलताएं बढ़ती जा रही हैं और ये मोदी की छवि को नुकसान पहुंचा सकती हैं। चुनावों का इतिहास यही बताता है कि जब लोगों में ऐसी चीजों को लेकर नाराजगी बढ़ती है तो वे आपको चूडिय़ां भेजने में भी नहीं हिचकते हैं। वे आपको वोट न देने का भी फैसला कर सकते हैं।