हरियाणा में पंचायत चुनावों को लेकर पारित एक कानून की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि पर क्यों है मेरी असहमति
अगर मैं युवा, निर्भीक और विद्वान होता तो ये पंक्तियां मैंने लिखी होतीं। लेकिन चूंकि मैं इनमें से कुछ नहीं हूं इसलिए बिना हिचक इसे उनसे उधार ले रहा हूं जिनमें ये तीनों गुण हैं और शायद उन्हें बुरा नहीं लगेगा अगर मैं उनके पीछे छिपकर देश के सर्वोच्च न्यायालय से तर्क करूं। यह बात गुरुवार के उस आदेश से ताल्लुक रखती है जिसमें दो न्यायाधीशों वाले पीठ ने हरियाणा के उस कानून को बरकरार रखा जो एक जटिल लेकिन शहरी लोगों में लोकप्रिय होने की कुव्वत रखने वाली नजीर पेश करता है। यह कानून पंचायत चुनाव लडऩे वालों के लिए शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक मानक तय करने से संबंधित है।
न्यायालय की दलील का सारांश यह है कि मतदान का अधिकार एक मूल अधिकार है और उसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है लेकिन किसी पद पर निर्वाचित होने के अधिकार के साथ यह बात नहीं है। यह एक तरह का विशेषाधिकार (मेरा चुना हुआ शब्द) है और व्यवस्थापिका के सदस्य तय करते हैं कि कौन पदासीन होगा। इस मामले में बात आधारभूत शिक्षा या कहें साक्षरता, ऋणग्रस्त न होने और सामाजिक साफ-सफाई के कुछ मानकों तक सीमित है। मसलन आपके यहां शौचालय है अथवा आप खुले में शौच करते हैं (जानबूझकर या मजबूरीवश 60 फीसदी भारतीय यही करते हैं)। न्यायाधीशों ने एक अत्यंत अहम पंक्ति का प्रयोग किया जो यकीनी लेकिन विवादास्पद है। उन्होंने कहा, ‘केवल शिक्षा ही किसी व्यक्ति को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह सही और गलत, अच्छे और बुरे में भेद कर सके।’
अब पंच या सरपंच बनने की मंशा रखने वालों के लिए शिक्षा की परिभाषा क्या है? कॉलेज की कोई डिग्री, या आईक्यू परीक्षण या कैट परीक्षा के समकक्ष कुछ? विद्वता और प्रशासनिक गुणवत्ता के बीच के रिश्ते के प्रमाण जटिल हैं। फैसले ने एक भाजपा सरकार द्वारा पास किए गए कानून की संस्तुति की। इस कानून को शहरी बुर्जुआ वर्ग के उसके शिक्षित समर्थकों का खूब समर्थन है। यह वही वर्ग है जिसे लगता है कि डॉ. मनमोहन सिंह ने देश के इतिहास की सबसे बुरी सरकार चलाई और मौजूदा सरकार सर्वश्रेष्ठ है।
प्रश्न यह है कि यह कौन तय करेगा कि कौन सा व्यक्ति इतना शिक्षित है कि वह सही-गलत और भले बुरे में भेद कर सकता है? इसका निर्धारण निहायत वैयक्तिक है। एक राज्य की निर्वाचित विधानसभा के सदस्य पंचायत चुनाव के उम्मीदवारों की न्यूनतम अर्हता तय करते हैं जबकि खुद उनके लिए ऐसी अर्हता किसी ने नहीं बनाई है। ऐसे में आज अगर आप पूर्ण निरक्षर हरियाणवी हैं (मेरे गृह राज्य में 25 फीसदी लोग ऐसे हैं) तो आप विधानसभा सदस्य बनकर ऐसे लोगों को पंचायत में जाने से रोक सकते हैं जो आप जैसे ही हैं। लोकसभा चुनाव तक में ऐसी कोई रोकटोक नहीं है।
मौजूदा 543 सांसदों में से 16 ने खुद को मैट्रिक से कम पढ़ा बताया है। यह उस स्तर से भी कम है जो हरियाणा में पंचायत चुनावों के लिए तय कर दिया गया है। हममें से कुछ लोगों ने अन्ना हजारे के आंदोलन की बुर्जुआ प्रकृति पर सवाल करने का साहस किया था। मसलन नोबेल और मैगसायसाय पुरस्कार विजेताओं को जन लोकपाल के पैनल में शामिल किया गया था। हमारा कहना था कि इसमें देश के विशालकाय निचले तबके की बात नहीं आ पाएगी। मुझे याद है जनता दल यूनाइटेड के नेता शरद यादव का वह उत्तेजक भाषण जिसमें उन्होंने संसद का बचाव करते हुए कहा था कि लोकतांत्रिक संस्थान के बिना क्या पकौड़ी लाल जैसा कोई व्यक्ति संसद में बैठ सकता था? पकौड़ी लाल ने समाजवादी पार्टी की ओर से लोकसभा में रॉबट्र्सगंज का प्रतिनिधित्व किया था और वह मैट्रिक पास भी नहीं थे। चूंकि यह सर्वोच्च न्यायालय का आदेश है इसलिए इसके निहितार्थ भी कहीं अधिक ऊंचे होंगे। तो क्या अब आगे और कोई पकौड़ी लाल देखने को नहीं मिलेंगे?
हमारा प्रतिनिधित्व बेहतरीन ढंग से शिक्षित लोगों के हाथ में हो उसमें कोई बुराई नहीं। बहरहाल, लोकतंत्र कोई परिपूर्णता की पूर्व व्याख्यायित स्थिति नहीं है। हां, वह इसकी सतत तलाश अवश्य है। ब्रिटिशों ने सन 1935 में जब भारत में वयस्क मताधिकार शुरू किया था तो उन्होंने ऐसी योग्यता की सीमा तय की थी। उस वक्त की कुल वयस्क आबादी में से केवल 3.5 करोड़ या 20 फीसदी को ही मतदान का अधिकार था, उनमें से केवल छठा हिस्सा ही महिलाओं का था। आंबेडकर के संविधान ने इन सब विसंगतियों को समाप्त किया। यही वजह है कि 65 साल से हम एक निर्बाध संविधान में रह रहे हैं और तमाम शर्मनाक कमियों के बावजूद उत्फुल्लित रहते हैं। पाकिस्तान ने निर्वाचन को लेकर पुराना बुर्जुआ तरीका अपनाए रखा और देख सकते हैं कि वहां यह कितना सफल रहा।
परवेज मुशर्रफ ने वर्ष 2002 में चुनाव लडऩे के लिए स्नातक को मानक बनाया लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मदरसे से मिलने वाली सनद भी समान रूप से उपयोगी मानी जाएगी। उनके जाने के बाद हुए चुनावों में इस मानक को खत्म कर दिया गया। इसी तरह पाकिस्तान ने यह प्रयोग भी किया कि जिन लोगों पर बैंक का पैसा बकाया हो वे चुनाव न लड़ें लेकिन इसे लेकर भी उदासीनता देखने को मिली। हरियाणा सरकार के जिस कानून को ऊपरी अदालत ने बरकरार रखा है उसमें यह भी प्रावधान है कि जिन लोगों ने सहकारी संस्थानों और बिजली कंपनियों का बिल न चुकाया हो उनको भी चुनाव न लडऩे दिया जाए। ऊपरी अदालत का मानना है कि चुनाव लडऩा महंगी प्रक्रिया है।
ऐसे में यह माना जा सकता है कि जो चुनाव लड़ रहा है उसे पहले अपने कर्ज चुकाने चाहिए, बजाय कि कुर्सी पर बैठने के बारे में सोचने के। लेकिन क्या इसकी शुरुआत चैंपियन डिफॉल्टर (देनदारी में चूक करने वाले) राज्य सभा सदस्य विजय माल्या के साथ नहीं होनी चाहिए और उसके बाद उस दलित महिला की ओर रुख करना चािहए जिसने एक भैंस खरीदने के लिए कर्ज लिया जो एंथ्रेक्स की बीमारी से समय से पहले मर गई। यह कानून एक ऐसे राजनीतिक वर्ग द्वारा हरियाणवियों का अपमान है जो उनके समक्ष विफल रहा है। प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से देखा जाए तो हरियाणा देश का सबसे अमीर बड़ा राज्य है लेकिन सामाजिक संकेतकों पर उसकी स्थिति शर्मनाक है। लिंगानुपात में वह सबसे नीचे है। वहां लिंगानुपात 879 के आपराधिक स्तर पर है।
साक्षरता दर खासतौर पर महिलाओं में, निराशाजनक है। राज्य में महिला भ्रूण हत्या बड़े पैमाने पर होती है। कोई बड़ा नेता खाप पंचायतों पर सवाल नहीं उठा सकता। तमाम बाबा वहां खुद को भगवान घोषित करके अपना साम्राज्य चला रहे हैं। हिसार जेल में बंद रामपाल महाराज की तरह कई बार तो वे जेल से साम्राज्य चला रहे हैं। एक अमीर राज्य मूलभूत स्वच्छता और साक्षरता मुहैया कराने में विफल रहा है और अब वह निर्वाचन की शर्तें तय कर रहा है। मुझे सगीना (तपन सिन्हा, 1974) फिल्म में दिलीप कुमार पर फिल्माए गए गाने की याद आ रही है, ‘साला मैं तो साहब बन गया’। उसकी एक पंक्ति है, ‘तुम लंगोटी वाला न बदला है न बदलेगा, तुम सब काला लोग की किस्मत हम साला बदलेगा।’ मैं भावनाओं में बह जाने का जोखिम उठा रहा हूं लेकिन शायद अदालत ने इस मानसिकता को पुष्ट किया है।
जैसा कि मैंने शुरू में कहा कि मैं ये पंक्तियां एक युवा, अधिक निर्भीकऔर विद्वान व्यक्ति से उधार ले रहा हूं और उसके पीछे छिप रहा हूं। वह हैं अर्पिता फुकन विश्वास। वह आईआईटी पवई की उत्कृष्ट समाजवादी और पीएचडी विद्वान हैं। उन्होंने लगातार ट्वीट करके इस फैसले पर सवाल उठाए। मसलन, केवल शिक्षा ही हमें अच्छे और बुरे का भेद करने की ताकत देती है और प्रशासनिक कौशल सार्वजनिक प्रतिनिधित्व की पूर्व शर्त है। उन्होंने ट्रंपवे नामक हैशटैग का प्रयोग किया। लेकिन अगर मैं कहूं कि यह आदेश समाज का डोनल्ड ट्रंप नुमा नजरिया पेश करता है तो कहीं अति तो नहीं हो जाएगी? मैं उनके पीछे छिपकर यह कहना पसंद करुंगा कि उन्होंने ऐसा कहा।