डीआरडीओ और वायुसेना के बीच टकराव में फंसी देसी हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) ‘तेजस’ विकसित करने की यह असली ‘मेक इन इंडिया’ परियोजना.
भारत अपना जो देसी हल्का लड़ाकू विमान (एलसीए) ‘तेजस’ बना रहा है उसकी तारीफ कम नहीं की गई है और आलोचनाएं भी खूब की जा चुकी हैं लेकिन रक्षा मंत्रालय की इस परियोजना को निर्णायक बढ़त देने का इससे माकूल मौका दूसरा नहीं हो सकता. यह ‘मेक इन इंडिया’ के रास्ते पर लटके सबसे पके हुए फल के जैसा है, जिसे अब बस तोड़ लाने की जरूरत है. लेकिन इसके लिए सरकार को थोड़ी ऊंची छलांग लगानी होगी.
भारतीय प्रतिरक्षा उद्योग के एक शक्तिशाली प्रतीक के तौर पर देखे जा रहे इस लड़ाकू विमान की हवाई पट्टी पर दो रोड़े पड़े हुए हैं. एक तो खुद प्रतिरक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की ओर से लगाया गया अड़ंगा है, दूसरा वायुसेना की यह दुखद जिद है कि वह विदेशी मूल के सिंगल-इंजिन फाइटर को शामिल करके अपने बेड़े को विविधतापूर्ण बनाना चाहती है.
हल्के लड़ाकू विमान के जिस विकास कार्यक्रम को 1983 में ही मंजूरी दे दी गई थी, उसे पूरा होने में बहुत ज्यादा समय लग गया है. सन् 2000 वाले दशक में किसी तरह अटकते हुए आगे बढ़ने के बाद यह सिंगल-इंजिन जेट वैश्विक प्रतिस्पद्र्धा में सबसे शक्तिशाली नजर आने वाले लड़ाकू विमान के तौर पर भले नहीं उभरा हो लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर भारत की युद्ध क्षमता को जरूर बढ़ाने वाला साबित हो सकता है.
यह परियोजना चंद उन चीजों में गिनी जा सकती है जिन पर यूपीए और भाजपा, दोनों की राय मेल खाती है. दोनों के राज में शीर्ष नेतृत्व के प्रोत्साहन के कारण रक्षा मंत्रालय वायुसेना की आपत्तियों को दरकिनार करके ‘तेजस’ को विकास के लिए पूरी मोहलत देता रहा है. इसको लेकर वायुसेना और रक्षा मंत्रालय में निरंतर द्वंद्व चलता रहा है. वायुसेना का दावा था कि ‘तेजस’ उसके बहुत काम का नहीं है, जबकि रक्षा मंत्रालय जोर देता रहा कि देश में बने लड़ाकू विमान को स्वीकार किया जाना चाहिए. दोनों का टकराव 2015 में काफी तीखा हो गया. रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने चार सीधी शर्तों पर दोनों के बीच सुलह करवाई.
फॉर्मूला यह था कि वायुसेना इस विमान के चार स्क्वाड्रन की खरीद के ऑर्डर तभी देगी, जब इन चार मानकों को पूरा किया जाएगा- लक्ष्य का पता लगाने वाला विश्वस्तरीय ‘एक्टिव इलेक्ट्रॉनिकली स्कैन्ड ऐरे'[ (एईएसए) नामक रडार इसमें लगा होगा, दृष्टिसीमा से आगे मार करने वाली लंबी दूरी की मिसाइल इसमें लगी होगी, उड़ान भरते हुए ही ईंधन भरने की क्षमता इसमें होगी, और विमान की सुरक्षा के लिए आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक युद्धक क्षमता इसमें होगी.
समझौता सीधा-सा था- इन चार जरूरतों को पूरा कीजिए और वायुसेना के पास ऑर्डर पेश करने के सिवा कोई विकल्प नहीं रहेगा और इस तरह ‘तेजस’ को अपना तेज और शौर्य दिखाने का मौका मिलेगा.
हालांकि इन चारों क्षमताओं को शामिल करने की दिशा में विभिन्न स्तरों पर प्रगति हुई है लेकिन इस परियेजना से गहराई से जुड़ा डीआरडीओ ही एक संभावित रोड़े के रूप में उभरा है. हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लि. (एचएएल) ने विश्व बाजार से नए रडारों और इलेक्ट्रॉनिक युद्धक उपकरणों को खरीदने के प्रयास किए तो वैज्ञानिकों ने भारी विरोध दर्ज किया. उनका तर्क यह था कि अगर पैसे मिले तो ऐसे उपकरण भारत में भी तैयार किए जा सकते हैं.
‘तेजस’ को इन सभी उपकरणों से ल्ैस करने के लिए सन् 2020 तक का ही समय दिया गया है इसलिए सबसे अच्छी बात यह होगी कि रडारों और दूसरे सिस्टम्स को विश्व बाजार से खरीदा जाए और बाद में जब इन्हें देश में विकसित करके अच्छी तरह आजमा लिया जाए तो उन्हें विदेशी उपकरणों की जगह लगा दिया जाए. लेकिन डीआरडीओ द्वारा दर्ज आपत्तियों के चलते रक्षा मंत्रालय को सही कदम उठाने के लिए सख्त फैसला करना होगा और 2015 में हुई सुलह का सम्मान करना होगा. इस सवाल का जवाब मिलना चाहिए कि क्या रक्षा मंत्रालय एलसीए को उड़ान भरने की स्थिति में लाने की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार है?
इस वास्तविक ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के लिए दूसरी चुनौती विदेशी मूल के सिंगल-इंजिन फाइटर के लिए वायुसेना का नया मोह है. वह आगामी वर्षों में कई नए लड़ाकू विमान खरीदना चाहती है. राफेल विमानों की बिक्री के लिए ऑर्डर इसी संभावना के मद्देनजर दिया गया है कि ऐसे कई और ऑर्डर दिए जा सकें. रूस में निर्मित पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमानों पर भी नजर है. लेकिन संख्याबल की कमी को पूरा करने के लिए वायुसेना ने 118 नए लड़ाकू विमानों की खरीद का प्रस्ताव आगे बढ़ाया है, जिन्हें भारत में एसेंबल किया जा सकता है. लेकिन उसने कहा है कि उसे केवल सिंगल-इंजिन फाइटर ही चाहिए. ऐसे विमान दुनिया में केवल अमेरिकी एफ-16 और स्वीडिश विमान ग्राइपेन ही हैं.
लेकिन सिंगल-इंजिन वाले फॉर्मूले पर जोर देकर वायुसेना दरअसल खुद को ही गलत साबित कर रही है. वर्षों पहले जब इसने अब बदनाम हो चुकी मीडियम मल्टी रोल कंबैट विमान (एमएमआसीए) प्रतियोगिता शुरू की थी तब यह कहा गया था कि लड़ाकू विमान की क्षमताओं का मूल्यांकन उसकी गति, मारक क्षमता, बम गिराने की सटीकता, बच निकलने के कौशल आदि के आधार पर किया जाएगा, न कि उसके इंजिन की संख्या के आधार पर. इस तरह यूरोफाइटर और राफेल विमानों को भारतीय जरूरतों के लिए तकनीकी आधार पर उपयुक्त माना गया था और एफ-16 तथा ग्राइपेन को खारिज कर दिया गया था.
हकीकत यह है कि भारत के लिए सिंगल-इंजिन वाले लड़ाकू विमान का एक तीसरा बेहतर विकल्प- सुसज्जित एलसीए के रूप में, जो कि देसी लड़ाकू विमानों का पूर्ववर्ती साबित होगा.