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Tuesday, November 5, 2024
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सिर्फ मुंबई ही नहीं, दिल्ली का भी अधिकांश शहरी हिस्सा अग्निकुंड सरीखे हैं

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इमारत में आग लगने की हालत में भागने के लिए जगहों की कमी और मॉक फायर ड्रिल न होना अधिकांश शहरों में बेहद आम है. क्या हम सबक सिखने के लिए तैयार हैं?

जिस तरह शाहजहानाबाद बसा है, उसी तरह हमारे शहरी गांव हैं, जो अनियोजित, असंगठित हिस्सा हैं, हमारी रिहाइश के. ये वैसी जगहें हैं, जहां सड़क की चौड़ाई इतनी कम है कि वहां फायर-ब्रिगेड की गाड़ी भी न जा सके. दिल्ली में, शहरी जगमगाते इलाके जैसे हौज खास गांव, शाहपुर जाट आदि तो वास्तव में इसके उदाहरण हैं.

इन जगहों मे अग्निशमन दस्ते को मोटरसायकल पर होना चाहिए, क्योंकि शायद चौपहिया वाहन भी नहीं पहुंच सकें.

हमारी गलियों, सड़कों की चौड़ाई, फायर इस्केप, लिफ्ट और भागने के साधन आदि अधिकांश मामले में समस्या को गहन करते हैं. कई बार तो यह भी नहीं पता होता कि आग से बचकर भागने के रास्ते किधर हैं. वह रास्ता अधिकतर कूड़े-कबाड़े, मलबे, कंटेनर और डब्बों-गत्तों से भरा होता है.

दूसरे शब्दों में, फायर इस्केप और उसके रास्ते बंद हैं. वे इस्तेमाल के लिए तब उपलब्ध नहीं होते, जब इनकी सख्त जरूरत होती है. फायर एक्जिट अधिकांश बार बंद रहता है. चाबी किसी गार्ड के पास होती है, जो कुछ समय के लिए आता है, या वैसे ही काम चलता है.

कोई फायर-ड्रिल, कोई अभ्यास या प्रशिक्षण सामान्य जनता को नहीं दिया जाता, जहां जन साधारण को बताया जाए कि आग लगने की स्थिति में क्या करें और क्या न करें?

कई साल पहले पॉश इलाके वसंत विहार में एक पांचसितारा होटल (जे पी होटल) में काफी बड़ी आग लगी थी. कई लोग मारे गए, लेकिन होटल में मौजूद जापानी और अमेरिकी अतिथि बच गए. क्यों? क्योंकि उन्होंने गीले तौलिए दरवाजों के नीचे रख दिए, ताकि उनके कमरे में धुआं न पहुंचे. उन्होंने गीला रूमाल अपने चेहरे पर डाला और फर्श पर लेट गए, और धुआं ऊपर चला गया. अधिकतर मौतें धुएं की वजह से हुई थीं, न कि आग की वजह से। इमारत में मौजूद सारे भारतीय अपनी खिड़कियों से कूद गए और मारे गए. यह फर्क प्रशिक्षण का था.

हमारे एटीट्यूड में भी समस्या है. सुरक्षा, गुणवत्ता, संरक्षा आदि भावों को हममें स्कूल से ही बैठाया नहीं जाता. हमें फर्स्ट एड की सामान्य ट्रेनिंग भी नहीं दी जाती. हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति एक वाक्य में हो सकती है- चलता है. हम यह सोचते हैं कि हमारी इमारत में आग नहीं लगेगी, अगली में लगेगी. यह किसी और के साथ होगा, हमारे साथ नहीं.

फायर कोड, फायर बाइलॉज, फायर स्टेयरकेस (सीढ़ियां), सीढ़ी की चौड़ाई, अग्निशमन दल की लिफ्ट आदि हरेक बात पर बिल्कुल साफ कानून हैं, जो केवल कागज़ पर ही रह जाते हैं.

10 में से 9 बार आग शॉर्ट-सर्किट होने की वजह से लगती है. इसका मतलब है कि एक कम बोझ उठानेवाली, कम क्षमता की वायरिंग हुई है और हमने उसे ओवरलोड कर दिया है. यह फिर से हमारी अभिवृत्ति (एटीट्यूड) की समस्या है.

इमारते योजनाबद्ध तरीके से बनें, जिसमें आग से सुरक्षा पर काफी ध्यान दिया गया हो. हरेक ऐसी इमारत का हरेक छह महीने या कम से कम साल में एक बार तो फायर-ऑडिट होना ही चाहिए, लेकिन यह हमारे देश में कभी नहीं होता. हरेक इमारत में एक सुरक्षा अधिकारी होना चाहिए, जो एक रूम में सीसीटीवी मॉनिटर, स्र्पिंकल सिस्टम (पानी छिड़काव की व्यवस्था), फायर अलार्म, अग्निशामक यंत्र आदि से लैस हो. कई बार लोगों को यह भी नहीं पता होता कि अग्निशामक यंत्र का कैसे इस्तेमाल करें और किसका उपयोग कब करें? इनका देखरेख भी नियमित तौर पर होना चाहिए, लेकिन आप पाएंगे कि इन इमारतों ने समय से मेंटिनेंस सर्विस कांट्रैक्ट ही पूरा नहीं किया है. इसमें सबसे कमज़ोर कड़ी अक्सर वह सुरक्षा गार्ड होता है, जो अक्सर अप्रशिक्षित या अनुपलब्ध होता है, या उसके पास जरूरी औज़ार भी नहीं होते.

हमारे पास नेशनल बिल्डिंग कोड्स, लोकल बिल्डिंग कानून, नेशनल इलेक्ट्रिकल कोड्स हैं, लेकिन वे कभी लागू नहीं होते या उन पर सख्ती नहीं की जाती, क्योंकि व्यवस्थागत समस्याएं हैं. आप दावा कर सकते हैं कि आपकी फलां बिल्डिंग ‘ए क्लास’ की है, लेकिन जो फायर इंसपेक्टर है, वह वहां जाकर जांच नहीं करेगा. वह बस आपके दावे को ही पुष्ट कर देगा  औऱ उसके बाद अनापत्ति प्रमाण पत्र (फायर एनओसी) जारी कर देगा.

हमारे कार्यालयों में अधिकतर साज-सज्जा और फर्निशिंग शीशे और अल्युमीनियम का इस्तेमाल करते हैं. इसी साल के दुबई आग कांड के बाद गुरुग्राम की कई इमारतें उस मुखौटे को बदल रहे हैं. दीवारों पर शीशे और अल्युमीनियम की क्लैडिंग (पुताई) बहुत तेजी से आग पकड़ती है.

मुंबई में गुरुवार को आयी खतरनाक आग से हमें सीखने की जरूरत है. हमें इमारतों में सुरक्षा-ऑडिट करवाने और उसके रहनेवालों को जागरूक करने की जरूरत है. यह भी बहुतेरे होता है कि लोग ऑफिस का स्मोक-अलार्म बंद कर देते हैं. हम लोग नियम तोड़नेवाले हैं. कोई इनकी नियमित तौर पर जांच भी नहीं करता.

हमारी नियोजित स्मार्ट सिटी भी सेमीकंडक्टर पर आधारित है, जिसमें सेंसर और डिटेक्टर का खासा इस्तेमाल हुआ है, पर उसको चलाने औऱ पढ़ने के लिए जिम्मेदार आदमी का कौशल-प्रशिक्षण भी होना चाहिए.

अनिल दीवान स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्टर में स्थापत्य (आर्किटेक्चर) के प्रोफेसर हैं और वह अग्निशमन पर एक कोर्स पढ़ाते हैं.

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