मोदीपूजा में व्यस्त मीडिया के लिए बज चुकी है घंटी
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मोदीपूजा में व्यस्त मीडिया के लिए बज चुकी है घंटी

मोदीपूजा में व्यस्त मीडिया के खिलाफ एक तरह का सविनय प्रतिकार लोगों के बीच से उभर रहा है पारंपरिक पत्र-पत्रिकाओं तथा टीवी समाचार का उपभोग घटाकर पाठक-दर्शक उसकी मौजूदा सामग्री को खारिज कर रहे हैं, जो केवल व्यक्तिपूजा को बढ़ावा दे रही है. कम ही लोगों को याद होगा कि तीन दशक पहले प्रेस ने […]

A large screen shows Prime Minister Narendra Modi speaking on stage.

A large screen shows Prime Minister Narendra Modi speaking on stage. Image used for representational purposes | Photo by Dan Kitwood/Getty Images

मोदीपूजा में व्यस्त मीडिया के खिलाफ एक तरह का सविनय प्रतिकार लोगों के बीच से उभर रहा है

पारंपरिक पत्र-पत्रिकाओं तथा टीवी समाचार का उपभोग घटाकर पाठक-दर्शक उसकी मौजूदा सामग्री को खारिज कर रहे हैं, जो केवल व्यक्तिपूजा को बढ़ावा दे रही है. कम ही लोगों को याद होगा कि तीन दशक पहले प्रेस ने सरकारी दूरदर्शन को किस तरह ‘राजीव-दर्शन’ की ‘उपाधि’ देकर शर्मसार और निंदित किया था. उन दिनों भारत में कोई दूसरा टीवी चैनल नहीं था, टीवी सेटों की संख्या भी कम ही थी और रंगीन टीवी तो चंद शहरी उच्च-मध्यवर्ग के घरों में ही था. विपक्ष और प्रेस प्रधानमंत्री राजीव गांधी का उपहास उड़ाया करता था कि वे खुद टीवी पर किस कदर छाये रहते हैं. केवल तीन साल के भीतर ही उनकी अभूतपूर्व लोकप्रियता (जिसके बूते उन्होंने लोकसभा की 533 में से 404 सीटें जीत ली थी) घट गई थी, ‘मिस्टर क्लीन’ की उनकी उपाधि छिन गई थी और राजा हरिश्चंद्र जैसी उनकी छवि (साठ वाले दशक में अमेरिका में जॉन एफ. केनेडी की भी ऐसी ही छवि थी) धूमिल हो गई थी.

इसके बाद के तीन दशकों में मीडिया क्रांति ने देश को अपनी गिरफ्त में ले लिया. टीवी आज करीब 80 प्रतिशत आबादी तक पहंच चुका है, और पिछले एक दशक में मोबाइल-इंटरनेट-सोशल मीडिया मानो मैदानी आग की तरह फैल चुका है (संयोग से ये राजीव ही थे जिन्होंने भारत में कंप्युटर युग का सूत्रपात किया था). आज करीब 1000 टीवी चैनल हैं, जिनमें करीब 300 तो समाचार चैनल ही हैं जिनमें सभी भाषाओं के केंद्र शामिल हैं. और, दूरदर्शन का एकछत्र राज तो करीब 25 साल पहले ही खत्म हो चुका है.

इन सभी चैनलों पर मोदी दर्शन अबाध चलता रहता है. नई दिल्ली से न्यूयॉर्क तक और लखनऊ से लंदन तक उनके भाषण, उनकी चुनावी रैलियों का लाइव प्रसारण चलता रहता है, जिन्हें चौबीसों घंटे दोहराया जाता है. सभी चैनलों, आकाशवाणी के सभी प्रादेशिक केंद्रों तथा एफएम चैनलों के लिए हर महीने उनकी ‘मन की बात’ को प्रसारित करना मानो उनकी अनिवार्यता बन गई है. यही हाल संसद में या और कहीं दिए उनके भाषणों का है. इस स्वयंभु, देशव्यापी (आत्ममुग्ध) मसीहा के आगे प्रिंट मीडिया ने अगर अभी दंडवत नहीं किया है, तो वह घिसटने जरूर लगा है. राष्ट्रव्यापी मीडिया पर प्रधानमंत्री की यह सर्वव्यापकता ने उस तरह की आलोचना को जन्म नहीं दिया है, जिस तरह अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में ‘राजीव-दर्शन’ के दौर में दिया था.

मजे की बात यह है कि प्रेस में छपने वाले स्तंभकारों, और टीवी पर उतने ही आत्ममुग्ध एंकरों के इशारों पर होने वाली बहसों में शोर मचाते पेनलों पर टीका करने वालों ने इस शर्मनाक व्यक्तिपूजा पर कभी सवाल नहीं उठाया है. यही स्वयंभु शिक्षित शहरी बुद्धिजीवी तबका राजीव, और उनसे पहले इंदिरा गांधी का मुखर आलोचक था और कहा करता था कि इन नेताओं ने लोकतंत्र को ‘विकृत’ तथा ‘अस्थिर’ कर दिया है. उन दिनों जब मीडिया की ऐसी महाकाय उपस्थिति नहीं थी, तब उदारवादी भावबोध वाले ये लोग भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए गहरी चिंता जताते थे.

क्या इन लोगों ने अपनी संवेदनाओं को सत्ताधीशों के आगे समर्पित कर दिया है? या तब वे जो कुछ कर रहे थे वह सब फरेब था? ये लोग आज प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के मल्टीमीडिया संचालित महिमामंडन को एकदम सहजता से ले रहे हैं. राम जेठमलानी, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और दूसरे चंद लोगों को छोड़कर किसी भी दल के राजनीतिक तबके का शायद ही कोई प्रमुख सदस्य होगा जिसने व्यक्तिपूजा की इस संस्कृति पर आपत्ति की हो. राजनीतिक, सांस्कृतिक या बौद्धिक वर्ग की इस मीडिया प्रेरित निरंकुशता का कोई प्रतिकार नहीं हो रहा है. इन लोगों ने भी जनता तथा जनतंत्र के साथ धोखा किया है.

लेकिन, एक तरह का सविनय प्रतिकार लोगों के बीच से उभर रहा है. ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है, जो यह कह रहे हैं कि समाचार प्रसारणों से उन्हें कुछ सीखने को नहीं मिल रहा है. वे टीवी पर पेनल चर्चाओं से ऊब रहे हैं, क्योंकि उन्हें न तो यह समझ में आता है कि बहस का मुद्दा क्या है, और न यह कि कौन क्या कह रहा है. ऐसे कई सामान्य दर्शक यह कहते सुने जाते हैं कि उन्होंने समाचार चैनलों और पेनल चर्चाओं को देखना बंद कर दिया है. बहरहाल, वे अपने मोबाइल फोन पर समाचार देख लेते हैं और सोशल मीडिया पर किस्म-किस्म की टीका-टिप्पणी देख लेते हैं. वे इंटरनेट पर संवाद कर सकते हैं, जो कि टीवी चैनलों पर मुमकिन नहीं है. वहां तो डिक्टेटर एंकरों के घिसे-पिटे सवालों के जवाब के सिवा कुछ नहीं मिलता.

अखबारों के संपादकीयों और मार्केटिंग विभाग में यह चिंता व्यक्त की जाती है कि अखबार का प्रिंट ऑर्डर और प्रसार संख्या जो भी हो, युवा ही नहीं, बूढ़े तथा अधेड़ पाठक उदासीन तथा प्रतिक्रियाशून्य होते जा रहे हैं. लोग अखबार या पत्रिका या टीवी को कम ही समय दे पाते हैं, क्योंकि सारा समय तो मोबाइल फोन ले रहा है. पत्रिकाओं के प्रसार में भारी गिरावट आई है. और तो और, लोग यह कहते सुने जाते हैं कि पढ़ने और देखने को क्या रह गया है भला?

वास्तव में यह एक विडंबना है कि तथाकथित मीडिया-संचार क्रांति शिक्षितों में सूचना निरक्षरता को बढ़ा रही है. यह पारंपरिक प्रेस तथा टीवी मीडिया के लिए नींद से जगाने की घंटी है. उनका पाठक-दर्शक ही उन्हें चेतावनी दे रहा है.

कुमार केतकर वरिष्ठ पत्रकार और अर्थशास्त्री हैं