‘नोटा कोई नकारवाद नहीं बल्कि आज का राजनीतिक आदर्शवाद है. यह ‘राजनीति में नैतिकता के लिए फिर से जगह बना रहा है’
मतगणना वाले दिन सुबह आप दो चीजें बार-बार सुन रहे होंगे- भाजपा गुजरात में फिर से सरकार बनाने जा रही है (यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी); कांग्रेस ने वहां अच्छी चुनौती दी (यह तो राजनीतिक पार्टी का काम ही है और इसके लिए उसे पीठ ठोकने की जरूरत नहीं है).
लेकिन भारतीय राजनीतिक संस्कृति के लिए सचमुच अच्छी खबर यह थी कि ‘नोटा’ के रूप में एक नया, नेताविहीन राजनीतिक आंदोलन जोर पकड़ रहा है.
गुजरात में ऐसे उत्सुक वोटरों की जमात उभरी है, जिसने मोदी या राहुल की घृणित भक्ति से आगे जाने का साहस किया. दोपहर करीब दो बजे भारतीय चुनाव आयोग ने खबर दी कि वहां 1.8 प्रतिशत (यानी 5.06.661) वोटरों ने बेअदबी भरे ‘नोटा’ (यानी ईवीएम पर उपलब्ध विकल्पों में से कोई नहीं) का बटन दबाया. यह चालू राजनीति का उल्लेखनीय अस्वीकार है. यह आंकड़ा हिमाचल प्रदेश में आज नोटा वोटरों- 0.9 प्रतिशत (28,545 वोट)- के आंकड़े से कहीं ज्यादा है.
गुजरात में नोटा वोटर वे लोग नहीं थे, जो यह बहाना बनाते हुए घर बैठे रहते हैं कि वे धनबल, बाहुबल और भ्रामक लफ्फाजियों पर आधारित लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते. ये वोटर अपने घरों से निकलें, लंबी कतारों में खड़े रहे, अपनी उंगली पर स्याही लगवाई और अपना विरोध दर्ज करने के लिए वोट डाला. यह चालू राजनीति का सक्रिय, आक्रामक निषेध है.
‘नोटा कोई नकारवाद नहीं बल्कि आज का राजनीतिक आदर्शवाद है. यह ‘राजनीति में नैतिकता के लिए फिर से जगह बना रहा है’.
ये कौन लोग थे, जो न तो मोदी की कटुतापूर्ण लफ्फाजी के झांसे में आए, न अदानी और जय शाह पर राहुल के हमलों के बहकावे में आए? ये लग न तो मोदी द्वारा पाकिस्तान से सावधान रहने की चेतावनियों से जोश में आए, और न ‘प्यार सबको जीत लेता है’ जैसे राहुल के मीठे बोलों से प्रभावित हुए.
गुजरात चुनाव अभियान में भाजपा विरोधी भावनाअों को इन मसलों ने उभारा- जीएसटी, नोटबंदी, विकास पागल हो गया है, सरकारी प्रश्रय वाला पूंजीवाद, युवा हताशा. दूसरी ओर, लोग कांग्रस से इन बातों के लिए नाराज थे- वंशवाद, सरकारी प्रश्रय वाला पूंजीवाद और भ्रष्टाचार, राहुल की ढुलमुल राजनीति वाली छवि. कई वोटरों ने राज्य की भाजपा सरकार से अपनी नाराजगी जाहिर की लेकिन उन्हें कांग्रेस पर भरोसा नहीं जम रहा था. अगर इन लोगों ने मतदान किया होता तो उन्हें किसी-न-किसी तरह का नैतिक समझौता करना पड़ता. नोटा वोटर ‘टीना’ वाले नहीं हैं, जो यह मानते हैं कि और कोई विकल्प नहीं है और उन्हें दोनों में कम बुरे को वोट देना ही है.
नोटा वोटरों को नकारवादी, अराजकतावादी और महत्वहीन बताकर खारिज करना आसान है. लेकिन वे राजनीतिक व्यवस्था में एक ताकत तो हैं ही. वे अंतरात्मा के आदर्शवादी रक्षक हैं, जो समझौता नहीं करते और वोट देने भर के लिए मतदान नहीं करते. वे उन लोगों से अलग हैं, जो यह दुहाई देकर मतदान से परहेज करते हैं कि भारतीय राजनीति का कुछ नहीं हो सकता, वह जैसी है वैसी ही रहेगी. वे उन लोगों से अलग हैं, जो किसी काल्पनिक क्रांति के जरिए वर्तमान व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहते हैं. नोटा वोटर व्यवस्था की सफाई के लिए धीरे-धीरे, व्यक्तिगत स्तर पर चेतावनी देने में यकीन रखते हैं.
पारंपरिक भारतीय राजनीतिक ज्ञान हमेशा कहता रहा है कि अगर आप जीतती हुई पार्टी को वोट नहीं देते तो आपका वोट बरबाद होता है. मैं कई चुनावों की रिपोर्टिंग कर चुकी हूं और प्रायः वोटरों को यह कहते सुना है कि वे यह देखते हैं कि ‘‘हवा किसकी ज्यादा है’’, और तब वे जीतने वाले को वोट देने का फैसला करते हैं. वे प्रायः यह कहते हैं कि ‘‘वोट बेकार नहीं जाना चाहिए.’’
नोटा इस तरह के सोच को तोड़ता है. पहला कदम: हारने वाले को वोट देना उसे बरबाद करना नहीं है; दूसरा कदम: नोटा को वोट देना भी उसे बरबाद करना नहीं है. यह चालू राजनीति के बदलाव को गति देना है. ऐसा केवल गुजरात में नहीं है. नोटा निर्दलीयों और चुनाव लड़ने वाली हल्की पार्टियों के लिए एक वास्तविक विकल्प है.
नोटा शुरू किए जाने के बाद से हमने देखा है कि गुजरात विधानसभा के 2012 के चुनाव में 3.07 प्रतिशत (4.01,058) मतदाताओं ने नोटा का प्रयोग किया. छत्तीसगढ़ में 3.06 प्रतिशत (4.01,058), राजस्थान में 1.91 प्रतिशत (5.89,923), मध्य प्रदेश में 1.9 प्रतिशत (8,945), दिल्ली में 0.63 प्रतिशत (49,884), पंजाब में 0.7 प्रतिशत (65,151), और उत्तर प्रदेश में 0.87 प्रतिशत (3,29,113) वोटरों ने इसका प्रयोग किया.
भारत के अलावा बांग्लादेश, स्पेन, कोलंबिया, ग्रीस, उक्रेन में भी वोटरों को नोटा जैसा विकल्प उपलब्ध है. पाकिस्तान और रूस ने हाल में इस विकल्प को रद्द कर दिया है. फ्रांस में इस साल पूरी राजनीतिक व्यवस्था के नकार की जबरदस्त हवा चली, करीब 40 लाख वोटरों ने बैलट को सादा ही पेटी में डाल दिया या उसे खराब कर दिया. पिछले पचास साल में ऐसा नहीं हुआ था.
भारतीय लोकतंत्र में कई मतदाताओं के हिस्से में शून्य ही आता है. जब तक एक नया विकल्प इस शू्न्य को नहीं भरता, राजनीतिक नास्तिकतावाद पनपता रहेगा.
डाटा रिसर्च: निखिल रामपाल
रमा लक्ष्मी दप्रिंट की ओपीनियन एडिटर हैं