भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस के बीच एक अहम अंतर है। एक अपनी गलतियों से सीखने को तत्पर है और दूसरी सफलताओं से भी सबक नहीं लेना चाहती। भाजपा को बिहार में किसी भी राज्य स्तरीय नेता को आगे लाए बिना और विभाजनकारी अभियान के चलते मुंह की खानी पड़ी थी। असम में पार्टी ने इन दोनों तरीकों को त्याग दिया। वहां पार्टी के पास अपना कोई नेता नहीं था और 34 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं के चलते वहां धु्रवीकरण के आक्रामक होने की आशंका थी। उसने बिहार में अपने विरोधियों से सबक लेते हुए व्यापक गठजोड़ पर काम किया। यहां तक कि उनके साथ भी जिनका वोट बैंक उसके साथ साझा था, मसलन असम गण परिषद।
दूसरी ओर कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल के साथ गठजोड़ के नीतीश कुमार के प्रयासों को नामंजूर कर दिया। हम जानते हैं कि गठजोड़ अलग किस्म से काम करते हैं लेकिन इसके गणित को ठुकराया नहीं जा सकता। यहां तक कि इस सप्ताह के परिणामों में भी कांग्रेस और अजमल के एआईयूडीएफ को मिलकर भाजपानीत गठबंधन से अधिक वोट मिले। भाजपा की जीत ने बिहार की पराजय के बाद कम हुई साख की भरपाई का काम किया है।
ऐसा लगता है कि केरल में विपक्ष का प्रमुख वैचारिक प्रतिपक्ष बनने की कोशिश में भी वह ममता बनर्जी से संकेत ले रही है। पिछले एक दशक से अधिक वक्त से कांग्रेस ने बंगाल में नरम वामपंथी रुख अपनाया और बनर्जी ने उसका मुकाबला किया। कई बार तो गलियों में हिंसक तरीके से भी। धीरे-धीरे वाम से नफरत करने वाले लोगों को कांग्रेस के बजाय उनमें विकल्प नजर आने लगा। हमें केरल में भी ऐसा देखने को मिल सकता है क्योंकि वहां भी कांग्रेस नेतृत्व नरम वामपंथी रुख अपनाए है जबकि भाजपा/आरएसएस एक अलग किस्म के प्रतिद्वंद्वी के रूप में सामने आ रहा है।
इन राज्यों में भाजपा के अभियान में बदलाव स्पष्टï देखा जा सकता था। प्रधानमंत्री ने भले ही तत्कालीन सरकारों की आलोचना की हो लेकिन विभाजनकारी बातों से बचा गया। असम में न तो पाकिस्तान का जिक्र हुआ, न ही गाय के संरक्षण का, इस्लाम का डर भी नहीं दिखाया गया। हालांकि अवैध बांग्लादेशियों की मौजूदगी को एक मुद्दा बनाया गया लेकिन किसी को बाहर भेजने की धमकी नहीं दी गई। राज्य के नेताओं खासतौर पर हिमंत विश्व शर्मा ने जोर देकर कहा कि किसी को भी बाहर करने का विचार पूरी तरह अव्यावहारिक है।
पश्चिम बंगाल से लेकर असम और केरल तक पार्टी के स्थानीय और राष्ट्रीय नेताओं ने बीफ का जिक्र भी नहीं किया। कहा गया कि खानपान निजी रुचि का विषय है। रोचक बात यह है कि असम में जहां कांग्रेस सरकार ने भी गोवध को अवैध कर रखा है, वहां भी यही रुख अपनाया गया। कुलमिलाकर इन चुनावों ने भाजपा की बदलाव और अनुकूलन की क्षमता को दिखाया। उसने वैचारिक मूढ़ता के स्थान पर समझदारी का प्रदर्शन किया। अब प्रश्न यह है कि क्या यह नई हकीकत भाजपा के प्रशासनिक रुख में भी नजर आएगी? कांग्रेस अभी भी एक स्प्ष्टï चुनौती है। संसद में भाजपा के भिड़ंतकारी रुख और उसकी शासन शैली को समझा जा सकता है। अब जबकि कांग्रेस मुक्त भारत का लक्ष्य लगभग हासिल हो चुका है तो क्या वह कांग्रेस और उसके शीर्ष परिवार के साथ द्वंद्व की पुरानी शैली अपनाए रखेगी? या फिर वह इसकी अनदेखी करेगी? प्रशांत किशोर हों या नहीं लेकिन पार्टी उत्तर प्रदेश और पंजाब में कोई बड़ी चुनौती पेश करती नहीं दिखती।
वर्ष 2014 के बाद राष्ट्रीय राजनीति का एक अहम तथ्य यह है कि एक ओर जहां कांग्रेस की मत हिस्सेदारी तेजी से कम हो रही है लेकिन वह भाजपा या राजग को नहीं जा रही। इसका अधिकांश हिस्सा आप समेत स्थानीय रूप से ताकतवर दलों को जा रहा है जो अपनी प्रकृति में कांग्रेस के ही करीब हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कांग्रेस का पराभव हो रहा है लेकिन उसका वोट बैंक बरकरार है। बस दूसरे दल उसमें हिस्सेदारी कर रहे हैं। कांग्रेस पर ध्यान देने की होड़ में सत्ताधारी दल कई राजनीतिक सच्चाइयों से दूर हो रहा है। ये चुनाव मोदी सरकार के पहले कार्यकाल की आधी अवधि के बाद एक अहम शुरुआत का बिंदु मुहैया कराते हैं। अगला राज्य विधानसभा चुनाव अभी साल भर दूर है। मोदी सरकार को इस अवधि का प्रयोग प्रशासनिक कमियां दूर करने में करना चाहिए। उसे प्रशासन के कई क्षेत्रों पर ध्यान देना चाहिए। हमें पता है कि प्रधानमंत्री को पसंद नहीं कि उन्हें बार-बार मंत्रिमंडल में फेरबदल की याद दिलाई जाए। शायद इससे यह अहसास होता है कि उनकी सरकार में सबकुछ ठीक नहीं। उनको यह भी पसंद नहीं कि वे ऐसा काम दबाव में करें। यही वजह है कि उन्हें यह अवसर गंवाना नहीं चाहिए। मोदी ने वर्ष 2014 का चुनाव दो वजहों से जीता। पहली, कांग्रेस सरकार और निष्क्रिय प्रधानमंत्री से उपजी हताशा और दूसरी और अधिक अहम बात, अच्छे प्रदर्शन का उनका वादा और उम्मीद। वह 2019 का चुनाव इसी तर्ज पर नहीं जीत सकते। कांग्रेस मुक्त होने के साथ ही उनका एक चुनावी वादा पूरा हो जाएगा लेकिन पांच साल के कार्यकाल के बाद उनको वादे से अधिक प्रदर्शन के सबूत पेश करने होंगे।
उदारीकरण के बाद के भारत में हमने विचारधारा विहीन उभार देखा है। ऐसे मतदाता मजबूत हुए हैं जो मानते हैं कि हमने किसी का कुछ नहीं लिया है। इस बात ने राजनेताओं और मतदाताओं के रिश्तों को बदला है। इसे स्वीकार न करने का चलन है लेकिन अब मतदाताओं की अंध वफादारी के दिन गए। आज के मतदाता पूछते हैं कि आपने हमारे लिए क्या किया है, हमारे लिए क्या है आदि आदि। आत्मकेंद्रित युवाओं की संख्या बढऩे के साथ ही लोग यह भी समझने लगे हैं कि देश में संविधान ही असली ताकत है और वह वाम और दक्षिण की वैचारिकता पर उचित सीमाएं लगाता है। कांग्रेस अपनी विफलताओं का आत्मावलोकन करती है या नहीं, यह बात मोदी के लिए प्रासंगिक नहीं। उनको यह करना होगा। उन्हें देखना होगा कि उनकी सरकार का प्रदर्शन अब तक कैसा रहा? क्या संसद में लगातार विवाद की स्थिति किसी काम की रही? अब जबकि उनकी पार्टी और वह सुरक्षित हैं और मजबूत होते जा रहे हैं तो क्या उनको अपने आसपास इतनी नकारात्मकता रखनी चाहिए? विवाद की राजनीति की एक कीमत है जो शायद वह अब चुकाना न चाहें।
बजट सत्र के अंतिम दिन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक बढिय़ा भाषण देते हुए न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका के काम को सीमित करने पर प्रश्न उठाया था। मैं मानता हूं कि वह तथ्यात्मक रूप से सही थे। अगर अदालतें आईपीएल मैच स्थानांतरित करने लगीं, सरकार को सूखा राहत पर या कानून बनाने आदेश देने लगीं तो इससे शक्ति के बंटवारे की संवैधानिक व्यवस्था में एक किस्म का असंतुलन पैदा होता है। लेकिन एक ओर जहां जेटली तथ्यों पर सही हैं, वहीं उन्हें और उनकी सरकार को यह सोचना होगा कि अदालतें इतनी सक्षम हैं और उनको हस्तक्षेप के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। संप्रग-2 की सरकार कमजोर थी। उसके पास राजनीतिक पूंजी और विश्वसनीयता नहीं थी और न्यायपालिका तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वह खाली जगह भर दी। वह जगह अभी भी रिक्त है क्योंकि यह सरकार सक्षम होने के बावजूद अपनी राजनीतिक पूंजी विवादों पर गंवा रही है। उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश इसके उदाहरण हैं। इन चुनावों से हासिल आश्वस्ति का प्रयोग मौजूदा विवाद के रुख से हटकर संसद और प्रशासन पर ध्यान केंद्रित करने में करना चाहिए।