सात फरवरी 2010 को जब भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) का आधुनिक रूपांतरण चरम पर था, इसके चेयरमैन ओपी भट्ट (2006-11) लोगों को बैंक के नए तकनीकी प्लेटफॉर्म के बारे में बता रहे थे। किसी आम सरकारी उद्यम के प्रमुख के उलट भट्ट चीजों को बड़े पैमाने पर अंजाम देने के आकांक्षी थे। वह इस लॉन्च को वर्ष की सबसे बड़ी कॉर्पोरेट पार्टी बनाने की इच्छा रखते थे। उन्होंने मुंबई का ब्रेबोर्न स्टेडियम किराये पर लिया, कारोबारी जगत के हर बड़े चेहरे को बुलाया और वे सब आए भी। इनमें तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी भी शामिल थे। भट्ट ने मुझ समेत तमाम अतिथियों को निजी तौर पर आमंत्रित किया था। उन्होंने अपनी प्रस्तुति की शुरुआत लेजर के साथ की। स्टेडियम की तमाम बत्तियंा बंद कर दी गईं। ढेर सारी टेबलों पर बैठे उनके अतिथि सबकुछ देख रहे थे और हर्षित हो रहे थे। तभी बांयी ओर से कुछ आवाज आई जिसने सबका ध्यान भंग किया।
लेजर की चमक में करीब एक दर्जन छायाएं चमक उठीं। यह विजय माल्या थे। जो पार्टियों मेंं आने की अपनी आदत और रवायत के मुताबिक ही नौकर-चाकरों, रिटेनरों, अंगरक्षकों आदि के साथ प्रकट हुए। उनमें से एक ने तो चांदी की एक ट्रे में उनके दो मोबाइल फोन तक उठा रखे थे। वे सभी सुगठित शरीर वाले लंबे नौजवान थे। इस रसूखदार आगमन के चलते भट्ट ने एक पल को अपनी प्रस्तुति रोक दी और बत्तियां जलाने को कहा। तब जाकर लोगों को पता चला कि कार्यक्रम किसके आने के कारण ठहर सा गया। तब फुसफुसाहटों का दौर शुरू हुआ जिनमें ईष्र्या और प्रशंसा मिश्रित थी। मेरी टेबल पर बैठे एक कारोबारी ने कहा, ‘यार, आप कुछ भी कहो। अगर उधार लेने वाला हो तो विजय माल्या जैसा। उसके पास यह क्षमता है कि वह देश के सबसे बड़े ऋणदाता बैंक की पार्टी में व्यवधान उत्पन्न कर सकता है और उसके बावजूद उसके साथ लोग इज्जत से पेश आते हैं।’ ऐसा था माल्या का जलवा।
याद रखिए कि वर्ष 2010 मेंं वह घाटे और कर्ज के शिकार हो चुके थे। यह भी याद रखना होगा कि वह समय सन 2008 के बाद के वित्तीय पैकेज का दौर था जब दरें शून्य हो चुकी थीं जबकि बाजार में खूब नकदी झोंकी जा रही थी। यही वह दौर था जब तेल की कीमतें बढ़ रही थीं लेकिन कोई भी कारक उनकी महत्त्वाकांक्षा के आड़े नहीं आ सका। मैं मान ही नहीं सकता कि उनको ऋण देने वाले किसी बैंक ने उनसे रुखेपन से बात की होगी। वे उनकी पार्टियों के आमंत्रण पाकर रोमांचित होते थे और जब माल्या उनसे मिलने आते तो वे इज्जत आफजाई महसूस करते। माल्या ने वह हासिल किया था जो शायद किसी अन्य भारतीय कारोबारी ने नहीं किया था। बार-बार कर्ज लेने के बावजूद वह बैंकरों के पसंदीदा थे। तब भी जब उनकी बैलेंसशीट बता रही थी कि वे डिफॉल्टर (देनदारी में चूक) हो सकते हैं।
यह विजय माल्या के जीवन को लेकर कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। मुझमें वह कौशल नहीं कि उनकी कारोबारी गतिविधियों की विवेचना कर सकूं। न ही मैं अपने बैंकों पर शक कर रहा हूं। उनकी रचनात्मकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए वर्ष 2007-08 में जब उन्होंने 2,100 करोड़ रुपये में एयर डेक्कन को खरीदा तो उस वक्त डेक्कन एयर ने किंगफिशर का खुद में विलय किया। हर कोई जानता है क्यों? वह नागरिक उड्डयन विभाग के उस मूर्खतापूर्ण नियम का फायदा उठा रहे थे (जो अब भी है) जिसके मुताबिक विदेशी उड़ानों के संचालन के लिए विमानन कंपनी का पांच साल पुराना होना अनिवार्य है। किंगफिशर 2005 में शुरू हुई थी और माल्या को जल्दी थी। उन्होंने नियम का फायदा उठाकर विदेश में उड़ान भरने का अधिकार हासिल कर लिया। यह बहुत चतुराईपूर्ण है और नियामकीय अक्षमता का नमूना।
खुद को सरकारी बैंकरों की जगह रखकर देखिए। माल्या केवल कारोबारी नहीं बल्कि एक सांसद हैं। वाजपेयी की राजग और मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार के कई मंत्रियों के साथ उनके दोस्ताना संबंध रहे हैं। बतौर सांसद दूसरे कार्यकाल में वह नागरिक उड्डयन और उर्वरक (उनकी कंपनी यूबी ग्रुप मंगलूर केमिकल्स ऐंड फर्टिलाइजर्स की मालिक है) क्षेत्र की प्रमुख सलाहकार समिति के सदस्य थे। अगर देश की संसद ही हितों के टकराव को लेकर सचेत नहीं तो बैंकरों का क्या दोष? उनमें आईपीएल समेत माल्या की पार्टियों में बुलाए जाने की होड़ रहती जहां वह खूबसूरत महिलाओं और ताकतवर लोगों के साथ नजर आते। राजनेता, नौकरशाह, पत्रकार और मीडिया मुगल सब इनमें शामिल होते। माल्या को ऋण देना दरअसल बैंकरों के लिए सत्ता के गलियारों में प्रवेश की कुंजी होती। माल्या मानो उनसे कर्ज लेकर उन पर एहसान करते। यह तब था जब सब समझ रहे थे कि विमानन उद्योग पतन की ओर है। जेट एयरवेज ने भी 2,000 करोड़ रुपये की राशि खर्च कर सहारा एयरलाइंस खरीदी। प्रतिस्पर्धा में की गई इस बेवकूफी ने विमानन उद्योग को हिला डाला था। किंगफिशर का दम घुट गया जबकि जेट किसी तरह उबर सकी।
दरअसल माल्या और ऐसे तमाम किस्से संसद, राजनीति, नौकरशाही, मीडिया, बैंक के ऐसे गठजोड़ का किस्सा है जहां ये सब जानते थे सबकुछ ठीक नहीं है। समाजवादी संरक्षण के नाम पर हमने सत्ताधारियों का ऐसा ताकतवर गठजोड़ खड़ा किया है जहां संपर्क और नेटवर्क बैलेंसशीट से अधिक मायने रखते हैं। हमारे अधिकांश पारंपरिक कारोबारियों की सत्ता पर तगड़ी पकड़ है। हालांकि अब कुछ बदलाव आ रहा है और माल्या को यह पसंद हो या नहीं लेकिन मीडिया भी इस बदलाव में मददगार है। उन्होंने जो कारोबार खरीदे और दिवालिया किए उनमेंं एक नई मीडिया कंपनी भी है। इसके बारे में मेरे मित्र एम जे अकबर अधिक जानकारी दे सकते हैं। उदारीकरण के बाद के युग में बैंकों की दिक्कत नई नहीं। सन 2002-03 में भी ऐसा संकट आया था और मैंने बतौर संपादक इंडियन एक्सप्रेस में एक खोजी रिपोर्ट शृंखला समर हलारंकर के नेतृत्व में शुरू की थी। इसे ‘द ग्रेट इंडियन बैंक रॉबरी’ का नाम दिया गया था। उस वक्त उसमें जो नाम सामने आए थे उनमें से कई आज भी अत्यंत चर्चित हैं। इस शृंखला ने तत्कालीन राजग सरकार को असहज कर दिया था और ऊपर से शिकायती संदेश आए थे कि हम कुछ ज्यादा कर रहे हैं।
एक दोपहर खुद अटल बिहारी वाजपेयी का फोन आया, ‘अरे कितने दिन चलायेंगे इसको आप, पूरा वर्ष?’
मैंने कहा, ‘नहीं अटल जी। इस सूची में आने के लिए न्यूनतम 500 करोड़ रुपये से अधिक का डिफॉल्टर होना जरूरी है इसलिए बस कुछ नाम और।’
उन्होंने कहा, ‘तब आपने बालू जी का नाम क्यों डाला है? उनका डिफॉल्ट तो केवल 35 करोड़ रुपये का है।’
जवाब में मैंने कहा, ‘क्योंकि वह एक सांसद और मंत्री हैं अटल जी। इसलिए भी क्योंकि एक सांसद को ऐसे मामलों में बहुत अच्छे मानक पेश करने चाहिए।’
द्रमुक के टी आर बालू राजग सरकार में पर्यावरण और वन मंत्री थे। उनके कारोबार पर 35 करोड़ रुपये का ऋण था। अब हमारे एक माननीय सांसद पर 17 सरकारी बैंकों का 9,000 करोड़ का कर्ज है। वह लंदन से हमें ट्विटर पर संबोधित करते हैं और हम सुनते हैं। यकीनन हमने बहुत लंबी दूरी तय कर ली है।