रामनाथ कोविंद में देश का 14वां राष्ट्रपति बनने की काबिलियत है या नहीं, यह अब कोई मुद्दा नहीं है। उनके समर्थक सार्वजनिक जीवन में उनकी तमाम उपलब्धियां दोहराएंगे और कहेंगे कि अत्यंत साधारण परिवार से आने के बावजूद उन्होंने यह सब हासिल किया। हाशिये पर मौजूद लोग भी उनके स्वर में स्वर मिलाएंगे। ठीक इसी तर्ज पर कांग्रेस नेताओं ने भी सन 2007 में प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति पद पर नामांकन का बचाव किया था।
उस वक्त के मेरे संस्थान ने प्रतिभा पाटिल के अतीत की छानबीन की और चीनी के कारोबार, सहकारी बैंक और निजी शिक्षण संस्थानों के संदेहास्पद कारोबारों का खुलासा किया था। उस वक्त इसे बंद कराने के लिए कांग्रेस के एक वरिष्ठï नेता देर शाम मुझसे मिलने आए। वह अपने साथ लंगड़ा आम की एक टोकरी लाए थे। उन्होंने मुझसे कहा कि मेरे संवाददाताओं की सभी खबरें सही हैं। जवाब में मैंने पूछा कि फिर हम इन खबरों को क्यों रोकें। उन्होंने कहा, ‘क्योंकि मेरे भाई आगामी 25 जुलाई से वह इस गणतंत्र का प्रतिनिधित्व करेंगी। ऐसे में भला पुरानी गंदगी बाहर निकालने और राष्ट्रपति होने जा रही शख्सियत के बारे में ऐसी बातें करने का क्या फायदा?’
उस वक्त कांग्रेस से उनके पक्ष में जो दलीलें निकल रही थीं काफी हद तक वैसी ही दलीलें कोविंद के पक्ष में अब नजर आ रही हैं। बतौर सांसद, राज्यपाल, पहली महिला राष्ट्रपति के रूप में लंबा करियर और आखिर में वह उस पद पर आसीन कुछ अन्य नेताओं के जैसी ही साबित हुईं। चुनावी राजनीति में आंकड़े बहुत मायने रखते हैं। इसलिए कांग्रेस और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) ने पाटिल का नाम आगे बढ़ाया। मुझ समेत आलोचकों ने यह चेतावनी दी थी कि यह पहले से ही नाम मात्र के लेकिन उच्च प्रतीकात्मक राष्ट्रपति पद को और अधिक महत्त्वहीन बनाने वाला कदम होगा। हमने यह चेतावनी भी दी थी कि इसके परिणाम सामने आएंगे और एक बेहद खराब नजीर साबित होगी। अब वह सब हमारे सामने आ रहा है।
राजनीतिक अनुभव के मामले में कोविंद पाटिल से पिछड़ सकते हैं लेकिन उनकी अकादमिक योग्यता ज्यादा है। कानूनी मोर्चे पर उनका रिकॉर्ड बेहतर है और व्यक्तिगत और पारिवारिक मोर्चे पर ईमानदारी के मामले में उनका प्रदर्शन बेहतर है। उनके करियर रिकॉर्ड में ऐसी कोई बात नहीं है जिसके लिए उन्हें राष्ट्रपति न बनाया जाए। बहरहाल, एक सवाल पूछना तो बनता है: क्या देश का राष्ट्रपति बनने के लिए केवल इतना पर्याप्त है? दूसरा सवाल यह है कि क्या इसके बिना व्यक्ति विशेष में वह गुण नहीं होगा कि वह राष्ट्रपति बने?
देश के राष्ट्रपति का उत्तराधिकारी बनने के दौरान अकादमिक योग्यता, सामाजिक या राजनीतिक परिदृश्य की कोई भूमिका नहीं होती। हमारे यहां सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे बुद्घिजीवी राष्ट्रपति हुए तो ज्ञानी जैल सिंह जैसे कम पढ़े लिखे भी। डॉ. राजेंद्र प्रसाद और प्रणव मुखर्जी जैसे कद्दावर राजनेता भी हुए और आर वेंकटरामन, नीलम संजीव रेड्डी, वीवी गिरि और शंकर दयाल शर्मा जैसे राष्ट्रपति भी बने। डॉ. जाकिर हुसैन जैसे दिग्गज मुस्लिम राष्ट्रपति भी हुए और फखरुद्दीन अली अहमद जैसे मुस्लिम राष्ट्रपति भी हुए जिनको भुलाना ही बेहतर। हमने दो पेशेवर दिग्गजों के आर नारायणन और एपीजे अब्दुल कलाम को भी राष्ट्रपति बनते देखा।
आप गर्व से कह सकते हैं कि इन नामों में ऐसा कोई भी नहीं है जिसके साथ कोई बड़ा विवाद जुड़ा हो। हां, दो अपवाद जरूर हैं: फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी सरकार के अध्यादेश पर बिना पढ़े हस्ताक्षर किए थे। बाद में ज्ञानी जैल सिंह ने अपने कार्यालय को राजीव गांधी के विरुद्घ इस्तेमाल होने दिया। अपेक्षाकृत सामान्य व्यक्ति भी इस प्रतिष्ठिïत पद पर रह सकता है, बशर्ते कि वह व्यवस्थित प्रोटोकॉल का ध्यान रखे और बहुत ख्वाहिशमंद न हो।
अब जरा एक अलग तरह का परीक्षण करते हैं। वे कौन से राष्ट्रपति हैं जिनका कार्यकाल सर्वाधिक यादगार रहा और किनका सबसे अधिक भुला देने लायक। हमें इसके लिए 1950 या 1960 के दशक में जाने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन बीते 50 साल में पैदा हुए लोग और नई सदी के लोगों को भी शायद ही याद हो कि देश में वीवी गिरि नामक राष्ट्रपति हुए जो इंदिरा गांधी के कांग्रेस विभाजन में अहम मोहरे की तरह इस्तेमाल किए गए। अहमद भी तमाम गलत वजहों से ही याद आते हैं। मेरी पीढ़ी के लिए उनका कार्यकाल अबू अब्राहम के उस शानदार कार्टून से परिभाषित होता है जिसमें अहमद एक बाथ टब में बैठे हैं और अपने किसी कर्मचारी को एक हस्ताक्षरित दस्तावेज और कलम सौंपते हुए कह रहे हैं, क्या कोई और अध्यादेश है, उनसे कहो प्रतीक्षा करें। अहमद बहुत पढ़े लिखे और पुराने अंग्रेजीदां तबके के थे। मुस्लिम तो वह थे ही।
यादगार राष्ट्रपतियों की बात करें तो हमें कलाम का नाम भी याद आता है। यह याद बिहार में उनके अहम हस्तक्षेप और कुछ छलयुक्त न्यायिक नियुक्तियों से निपटने से ही नहीं जुड़ी है बल्कि गुजरात दंगों के बाद के भारत में माहौल शांत करने की भूमिका थी और ऑपरेशन पराक्रम के बाद बढ़े तनाव से निपटने में भी। वेंकटरामन और शर्मा ने राजनीतिक अस्थिरता और अल्पकालिक सरकारों के दौर में देश को यह भरोसा दिलाया कि उसका तंत्र मजबूत है। नारायणन ने इस पद की नैतिक और बौद्घिक क्षमता बढ़ाई। वाजपेयी सरकार के एक वोट से गिर जाने और कामचलाऊ सरकार के रूप में करगिल की जंग लडऩे जैसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में नारायणन का आत्मविश्वास देखने लायक था।
आखिर जिन राष्ट्रपतियों को हम स्नेह और सम्मान से याद करते हैं और जिनको हम भुला बैठे हैं, उनमें अंतर क्या है। हम अपने राष्ट्रपतियों का इतिहास उठाकर देखें तो उसका शैक्षणिक योग्यता, राजनीतिक रिकॉर्ड, जाति, धर्म अथवा सामाजिक परिदृश्य से कोई लेनादेना नहीं। संक्षेप में कहें तो कभी किसी राष्ट्रपति के प्रदर्शन या उसकी विरासत के आकलन में उसकी बाहरी काबिलियत की भूमिका नहीं रही। उसके अन्य गुणधर्म यहां अधिक काम आए। मसलन, कलाम, वेंकटरामन और नारायणन का अपना कद था जबकि वीवी गिरि, अहमद और प्रतिभा पाटिल में उसका अभाव था। कोविंद के बारे में यही प्रश्न है। अगर आंकड़े आपके पक्ष में हों तो आपको किसी भी पद पर बिठाया जा सकता है। लेकिन चुनौती तो यह है कि आप खुद को उस पद के कद का बना पाते हैं या नहीं। संविधान की व्यवस्था में राष्ट्रपति का पद राज्यपाल तक की तुलना में कम महत्त्व का है। कम से कम एक राज्यपाल राजनीतिक खेल तो खेल सकता है। वह राष्ट्रपति शासन के दौरान अपने अधिकार भी प्रयोग में ला सकता है। देश के निर्माताओं की कामना थी कि राष्ट्रपति बतौर मुखिया और संविधान के प्रतीक के रूप में काम करे। हमें कोविंद को लेकर पूर्वग्रह नहीं पालना चाहिए। राजनीति से इतर बतौर राष्ट्रपति वह उन्हें पूरे देश का सम्मान मिलेगा। उम्मीद है कि वह अपने तमाम शंकालुओं को चकित कर देंगे।
पुनश्च: ज्ञानी जैल सिंह के बारे में कुछ सख्ती भरी बातें कहने के साथ ही मैं उनकी कुशाग्र बुद्घि और राजनीतिक समझ को याद करना चाहता हूं। फरवरी 1987 में तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति जिया उल हक भारत आए। ऊपरी तौर पर वह क्रिकेट मैच देखने आए थे लेकिन हकीकत में वह ऑपरेशन ब्रासटैक्स के बाद राजीव गांधी को शांत करने आए थे। उन्होंने जैल सिंह से चुटकी लेते हुए कहा कि अब उनके देश में भी जुनेजो के रूप में एक प्रधानमंत्री है और सिंह की तरह वह भी नाम मात्र के राष्ट्रपति हैं। जवाब में जैल सिंह ने कहा, ‘एक अंतर है जिया साहब। मुझे यह पता है कि मैं इस पद पर कब तक हूं जबकि आप जब तक चाहें इस कुर्सी पर बैठ सकते हैं।’ उसी साल जुलाई में नियत तिथि को ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति पद से मुक्त हो गए। जिया राष्ट्रपति पद पर बने रहे। एक साल बाद बहावलपुर में हुई विमान दुर्घटना में उनका निधन हो गया था।