scorecardresearch
Tuesday, November 5, 2024
Support Our Journalism
HomeSG राष्ट्र हितसंभव नहीं कश्मीर छीनना पर जरूरी है दिल जोडऩा

संभव नहीं कश्मीर छीनना पर जरूरी है दिल जोडऩा

Follow Us :
Text Size:

क्या हमने यानी भारत ने कश्मीर गंवा दिया है? इसका स्पष्ट उत्तर तो न ही है लेकिन कुछ प्रतिवाद हैं जिन्हें ध्यान में रखना होगा। इस तर्ज पर हम सन 1947 से कई बार कश्मीर गंवा चुके। पहली बार जब पाकिस्तानी छापामारों ने श्रीनगर हवाई अड्ड पर हमले की तैयारी की थी। उस वक्त लेफ्टिनेंट जनरल (तत्कालीन लेफ्टिनेंट कर्नल) हरबख्श सिंह के सैनिक वहां पहुंचे थे। तब वहां एक बार में एक डकोटा विमान उतर पाता था। उस वक्त नाउम्मीदी का क्या आलम था यह जानने के लिए लेफ्टिनेंट जनरल लियॉनेल प्रतीप सेन की पुस्तक ‘स्लेंडर वज द थ्रेड’ पढऩी चाहिए।

दूसरी बार हमने कश्मीर ‘गंवाया’ सन 1965 में। सन 1962 के चीन युद्घ को देखते हुए पाकिस्तान ने हम पर लड़ाई थोपी। हजरतबल से पवित्र अवशेष गायब होने के बाद घाटी उबल पड़ी। नेहरू के निधन के बाद दिल्ली कमजोर पड़ रही थी और ऐसे में अयूब खान ने ऑपरेशन जिब्रॉल्टर के जरिये हमला किया। इस घुसपैठ में हजारों पाकिस्तानी सैनिक शामिल थे। उस वक्त कश्मीर तकरीबन हमारे हाथ से निकल गया था। लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह की किताब ‘वॉर डिस्पैच्ड’ इस बारे में अच्छी जानकारी देती है। उस वक्त हमारी सेना में पेशेवर, योद्घा और पढ़े लिखे अधिकारी थे। उस वक्त ऐसी प्रतिभाएं नहीं नजर आती थीं जो इन दिनों टेलीविजन प्राइमटाइम पर नजर आती हैं। उन सैन्य अधिकारियों ने अपना पूरा जीवन असली जंंग में ही बिताया था। सन 1965 वह आखिरी मौका था जब कश्मीर हमसे छिन सकता था। इस बात को 52 वर्ष बीत चुके हैं।

सन 1971 में पाकिस्तान ने पुंछ और छंब में हमला किया और सन 1999 में करगिल में लेकिन इस आधी सदी में हमने कश्मीर में कुछ गंवाया नहीं बल्कि अर्जित ही किया। तो चिंता किस बात की है? चिंता इस बात की है कि बीते वर्षों में कश्मीर को लेकर हमारी सोच सैन्य संचालित हो चली है। अतीत में जहां सैन्य चुनौती वास्तविक थी, वहीं अब ऐसा नहीं है। कश्मीरियों को मोटेतौर पर राष्ट्रवादी और सच्चा माना जाता है। सन 1965 की घुसपैठ का भंडाफोड़ स्थानीय लोगों ने ही किया था। आज कोई सैन्य चुनौती नहीं है। परंतु हमने अपने ही लोगों को सैन्य चुनौती मान लिया है। यही वजह है कि कश्मीर की सीमा सुरक्षित होने के बावजूद उसके मानसिक और भावनात्मक स्तर पर हमसे दूर होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। यहां तीन प्रश्न उठते हैं: हमें यह कैसे पता चला? क्या हमें परवाह है? और तीसरा क्या हमें परवाह करनी चाहिए?

सबसे पहले दूसरे प्रश्न का जवाब तलाशना होगा क्योंकि यह सबसे छोटा है: नहीं हमें कोई परवाह नहीं। वजह आसान है। उन लोगों का दिल जीतने की कोशिश क्यों की जाए जो हमसे नफरत करते हैं, जो दशकों से वफादार नहीं हैं, जो पाकिस्तान और कट्टर इस्लाम के हिमायती हैं, हमारे जवानों पर पत्थर फेंकते हैं। जब देश की मुख्यभूमि के सामान्य लोग तक जेल जाने से नहीं बच रहे हैं तो फिर मजबूती से उभरता और बदलता हमारा मुल्क खुले आम विरोध को कैसे बरदाश्त करेगा? संदेश साफ है, जिस कश्मीरी को भारत पसंद नहीं है वह चाहे तो पाकिस्तान जा सकता है।

पहले प्रश्न का उत्तर प्रत्यक्ष है। कश्मीर के लोगों ने अब लाठी, गोली और पैलेट गन की परवाह करनी बंद कर दी है। हो सकता है समय बीतने के साथ उनके भीतर से मानव कवच के रूप में इस्तेमाल होने वाले (यदि ऐसा हुआ तो) साथियों के बलिदान की हिचकिचाहट भी दूर हो जाए। हाल में हुए संसदीय उपचुनाव में तमाम प्रयासों के बावजूद केवल सात फीसदी मतदान हुआ। इससे ज्यादा प्रमाण क्या चाहिए कि कश्मीर के लोग हमसे दूर हो रहे हैं।

तीसरा सवाल है कि क्या हमें परवाह करनी चाहिए? यह जटिल मामला है। इस सवाल का अतिराष्ट्रवादी जवाब यही होगा कि दगाबाजों को पाकिस्तान जाने दिया जाए और कश्मीर घाटी में अन्य प्रांतों के राष्ट्रवादियों को बसा दिया जाए। या फिर जैसा कि सत्ता पक्ष के एक जिम्मेदार नेता ने सुझाया, कश्मीरियों को हटाकर तमिलनाडु जैसे दूरदराज इलाकों में शिविरों में बसा दिया जाए। कुछ वरिष्ठ सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी कहते हैं कुछ सैकड़ा लोगों को अगर जान गंवानी पड़ी तो घाटी में शांति छा जाएगी। ऐसा करके हम केवल कश्मीर नहीं बल्कि भारत भी गंवा बैठेंगे।

एक देश जिसकी ताकत, साहस, प्रतिभा और सैन्य शक्ति को लेकर हमारे मन में सराहना का भाव रहा है, उसने 50 साल से लगातार यही किया है और नाकाम रहा है। इजरायल ने सन 1967 के छह दिवसीय युद्घ में अरब का काफी इलाका जीत लिया और तब से लगातार उसकी कोशिश रही है कि वह जमीन पर काबिज रहे लेकिन लोगों से निजात पाए। इजरायल को प्राय: पश्चिमी देशों का समर्थन मिला। उसके पास जबरदस्त सैन्य क्षमता है, अफ्रीका और पूर्वी यूरोप से आने वाले यहूदियों के रूप में नए- वफादार नागरिक हैं। वह कई छापमार आंदोलनों को कुचलने में कामयाब रहा है, उसने फिलीस्तीनी आंदोलनों को खत्म किया, संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय दबाव की अवहेलना की, देखते ही गोली मारने के आदेश दिए, एक दीवार उठाई और अपने नागरिकों को सैन्य प्रशिक्षण दिया। उसने अपनी जमीन तो बरकरार रखी लेकिन लोगों के दिल नहीं जीत सका। जॉर्डन, सीरिया, मिस्र और लेबनॉन को हरा चुका पश्चिम एशिया का यह ताकतवर मुल्क अपने ही देश में अजब गतिरोध में फंसा हुआ है।

भारत में इसकी सफलता की कामना कल्पना के सिवा कुछ नहीं है। यह आत्मघाती भी हो सकता है क्योंकि हम (मुझ समेत) इजरायल को उसके अनेक राष्ट्रवादी गुणों के कारण पसंद करते हैं लेकिन भारत न तो इजरायल है, न ही बन सकता है। इजरायल वैचारिक रूप से यहूदी राष्ट्र है। उसकी स्थानीय अरब आबादी मतदान कर सकती थी लेकिन उसके नागरिक अधिकार समान नहीं थे। भारत में हर मुस्लिम, ईसाई, बौद्घ, पारसी और नास्तिक को समान अधिकार हैं। उन्हें सबसे संवेदनशील नौकरियां दी जा सकती हैं। एक देश में दो व्यवस्थाएं हमारे देश में लागू नहीं हो सकतीं। यह संविधान के प्रावधान में ही नहीं है।

गत रविवार को मैं नई दिल्ली के सत्य साईं बाबा सभागार में था। वहां रॉ के पूर्व प्रमुख और कश्मीर के पूर्व राज्यपाल गिरीशचंद्र ‘गैरी’ सक्सेना की स्मृति में एक बैठक थी। सन 1991 के जाड़ों में जब पाकिस्तानी घुसपैठ चरम पर थी, तब दिल्ली में टाइम मैगजीन के ब्यूरो प्रमुख एडवर्ड नेड डेसमंड और मैंने कुछ दिन नियंत्रण रेखा पर बिताने की योजना बनाई ताकि वहां होने वाली मुठभेड़ को करीब से देख सकें। हम तत्कालीन गृह सचिव नरेश चंद्र (जो बाद में कैबिनेट सचिव और अमेरिका में राजदूत बने) के पास मदद के लिए गए। उन्हें यह विचार अच्छा लगा और उन्होंने कहा कि वह रक्षा मंत्रालय से गुजारिश करेंगे। मैंने उनसे पूछा कि क्या हमें राज्यपाल की मदद की ज्यादा जरूरत नहीं? उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि चिंता की कोई बात नहीं वह उनको बता देंगे। बाद में मुझे राज्यपाल को और अच्छे से जानना था। बहरहाल नरेश चंद्र ने कहा कि राज्यपाल उनके बड़े भाई हैं। इस बैठक में नरेश जी भी आए थे।

उनके प्रयासों से हमें उड़ी के आसपास वक्त बिताने का मौका मिला। लेकिन वहां मुठभेड़ ठीक उस दिन हुई जिस दिन हम वहां से बिना किसी खबर के वापस आ गए। मैंने उनसे पूछा था कि क्या हमने कश्मीर गंवा दिया है? वह घरेलू अशांति के चरम का दौर था। आज की पीढ़ी उस दौर को विशाल भारद्वाज की हैदर फिल्म से समझ सकती है। उन्होंने जवाब दिया कि ऐसा बिल्कुल नहीं है और देश में एकजुट रहने की क्षमता होनी चाहिए। उनका कहना था कि एक बार हालात सुधरने के बाद राजनीतिक योजना की आवश्यकता है ताकि लोगों को समझाया जा सके भारत के साथ रहने में उनकी बेहतरी है। उन्होंने कहा कि हम अभी जो कर रहे हैं वह फिर भी आसान है। असली चुनौती तो राजनीतिक रूप से बड़ा दिल दिखाने की है। आज अगर वह होते तो भी यही बात दोहराते।

Subscribe to our channels on YouTube, Telegram & WhatsApp

Support Our Journalism

India needs fair, non-hyphenated and questioning journalism, packed with on-ground reporting. ThePrint – with exceptional reporters, columnists and editors – is doing just that.

Sustaining this needs support from wonderful readers like you.

Whether you live in India or overseas, you can take a paid subscription by clicking here.

Support Our Journalism

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular