अगर आप किसी जानकार भारतीय से भी पूछेंगे कि हिलेरी बेन कौन हैं तो संभव है कि आपको जवाब न मिल पाए। शायद कोई जेरेमी कॉर्बिन के बारे में बता पाए क्योंकि ब्रिटिश लेबर पार्टी के नए नेता के तौर पर अपनी दुर्जेय आग्रही छवि के दम पर आखिरकार उन्होंने वैश्विक सुर्खियों में जगह बनाई है। मगर हिलेरी बेन के बारे में जानकारी की गुंजाइश काफी कम है। यह बेहद सीमित और आंतरिक दृष्टिïकोण वाला दौर है। अंग्रेजीदां बूढ़े भारतीयों के साथ ही ब्रिटेन भी अब अस्ताचल की ओर बढ़ चली महाशक्ति है। लिहाजा, उनके बारे में गूगल पर सर्च करना और हाउस ऑफ कॉमंस में दिए गए उनके 13 मिनट के भाषण को सुनना बेहद उपयोगी होगा, जो उन्होंने सीरिया में आईएसआईएस पर हवाई हमले के उपयोग को लेकर दिया।
अपने भावोत्तेजक भाषण में लेबर पार्टी के वरिष्ठï सांसद, जो शैडो विदेश मंत्री भी हैं, ने बमबारी को जायज ठहराया। यहां तक कि उन्होंने अपने साथी यूरोपीय समाजवादियों (फ्रांस में ओलांद सरकार) के लिए इसे बाध्यता और अंतरराष्ट्रीयकरण को लेकर लेबर पार्टी की प्रतिबद्घता जैसे दोनों पैमानों पर इसके पक्ष में दलील दी। मगर संसद का यह भाव और भी भावोत्तेजक था, जहां दोनों खेमों ने वैचारिक आग्रहों से ऊपर उठकर प्रतिक्रिया दी। शुरुआत में जब बेन कॉर्बिन की कड़ी आलोचना को लेकर प्रधानमंत्री डेविड कैमरन की भत्र्सना कर रहे थे और उन पर माफी मांगने के लिए दबाव डाल रहे थे तो कैमरन असहजता के साथ मुंह बना रहे थे लेकिन जैसे बेन का भाषण प्रमुख मुद्दों की ओर बढ़ा तो वह सहमति और यहां तक कि आभार के साथ मुस्कराहट बिखेरने लगे। बेन ने आईएसआईएस के खिलाफ हथियार उठाने की अपील वाला जोशीला भाषण दिया, जिसे वह नया फासीवादी करार देते हैं और अपने निष्कर्ष में उन्होंने सदन को स्मरण कराया कि जब वह अपना भाषण समाप्त करेंगे तो सदन के उस खेमे की ओर चले जाएंगे, जो सीरिया में हवाई हमले की स्वीकृति संबंधी प्रस्ताव का विरोध कर रहा है लेकिन वह सभी सांसदों से गुजारिश करते हैं कि वे सरकारी प्रस्ताव के समर्थन में मतदान करें।
अंत में 174 के भारी बहुमत के साथ प्रस्ताव पर मुहर लगी। कंजर्वेटिव बहुमत इसकी नैया किसी भी तरह पार करा लेता लेकिन उससे भी अहम यही तथ्य रहा कि लेबर पार्टी के 66 सांसदों ने पार्टी रुख के खिलाफ जाकर इसके पक्ष में मतदान किया। भारत में उनके साथ क्या होता? उसके उलट उन पर न तो कोई दंडात्मक कार्रवाई हुई और न ही दलबदल विरोधी कानून के तहत उन्हें अयोग्य ठहराया गया। इस मुद्दे पर लेबर पार्टी में आंतरिक मतभेद थे लेकिन उनका सम्मान करते हुए पार्टी ने व्हिप जारी न कर खुले मतदान की इजाजत दी।
इसमें भारत के लिए कई उल्लेखनीय बिंदु हैं। ब्रिटिश राजनीति भी हमारी सियासत से कम ध्रुवीकृत नहीं है। फिर भी मुख्य विपक्षी दल ने पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की मजबूती के मद्देनजर एक विभाजनकारी मुद्दे पर खुले मतदान को मंजूरी दी। भारत में यह असंभव है। सभी पार्टियां अपने आलाकमान या सुप्रीमो के हुक्म की तामील भर करती हैं और व्हिप की बात तो भूल ही जाइए अगर कोई पार्टी सांसद दूसरे खेमे की किसी नीति या व्यक्तित्व की तारीफ भर कर देता है तो यह विश्वासघात माना जाता है। संसद में बहुदलीय एकजुटता के क्षण बेहद दुर्लभ होते हैं। ऐसा तभी देखने को मिलता है जब युद्घ, आतंकी हमले, प्राकृतिक आपदा की स्थिति हो या फिर अन्ना हजारे की ओर से हमलों के बीच परंपरागत राजनीति के बचाव में एक ऊंचे साझा आदर्श का अनुगमन करना हो। ऐसी बहसें भी होती हैं, जहां विभाजन की पुरानी खाई कायम रहती है लेकिन भाषणों का स्तर उच्च कोटि का हो सकता है। मौजूदा सत्र में संविधान दिवस पर हुई बहस में हमें उसकी झलक दिखाई दी और ऐसी सर्वकालिक बहसों में दो बहस मेरी पसंदीदा हैं, जो अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के विश्वासमत (वर्ष 1996 और 1999 में) के दौरान धर्मनिरपेक्षता के विषय पर हुई थीं। मगर यह सभी सांसदों को उनकी पार्टी व्हिप के आज्ञाकारी, निर्विवाद और अदम्य अनुयायी से इतर अपने मन की बात कहने वाले जनता के प्रतिनिधि के तौर पर काम करने से अलग है।
अभी केवल तीन जगहें ही ऐसी हैं, जहां हमारे सांसद पार्टी की बेडिय़ों की जकडऩ से बंधे बिना व्यवहार कर सकते हैं। इनमें पहली दो तो संसद का केंद्रीय कक्ष और नई दिल्ली के गलियारों में देर रात होनी वाली पार्टियां हैं, जहां सौदेबाजी परवान चढ़ती है और प्रतिद्वंद्विता व दुश्मनी गायब हो जाती है। तीसरी जगह संसदीय समितियां हैं। केवल यही मंच हैं, जहां सांसद अपनी निजी राय व्यक्त करना गवारा कर सकते हैं।
मैं कुछ का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं और सवालों की ऊंची गुणवत्ता की गवाही दे सकता हूं, जो सांसदों के शानदार गृहकार्य को दर्शाता है। उनकी तमाम रपट बेहद उत्कृष्टï होती हैं, जिनमें आंकड़ों और विश्लेषण का शानदार मेल होता है। आप कभी यह नहीं बता सकते कि इन अंतिम सिफारिशों में कौन सांसद उनके खिलाफ था क्योंकि इसमें मतदान नहीं होता। इतनी कड़वाहट से भरी यह विभाजित राजनीति कैसे लगातार इतनी आमसहमति बना रही है?
दुखद रूप से इसका एक कारण यह है कि ये संसदीय संस्थान सार्वजनिक या मीडिया कवरेज के लिए खुले हुए नहीं हैं, जो सैद्घांतिक रूप से तो हमदर्दी लेकिन व्यावहारिक रूप से वरदान है। अगर यह सार्वजनिक या मीडिया कवरेज के लिए खुला होता तो क्या कोई भारतीय सांसद पार्टी के रुख के खिलाफ बोलने की हिम्मत करता? आज यह आम चलन हो गया है कि सांसद पार्टी रुख के खिलाफ अपना मत इन समितियों में रखते हैं। मिसाल के तौर पर जब संप्रग सरकार सत्ता में थी तो कुछ कांग्रेसी सांसदों ने पेंशन विधेयक और बीमा में एफडीआई बढ़ाने की सीमा संबंधी दोनों विधेयकों का संबंधित समितियों में विरोध किया था। हम इस बात को लेकर खीझ प्रकट करते हैं कि हमारी संसदीय प्रणाली का पराभव हो रहा है, जहां बहुत कम बहस होती है और बेहद कम कानून बनते हैं। भारत में ‘हल्ला’ करके विधेयकों की राह रोकी जाती है। अमेरिका में सांसद विधेयकों की राह में अड़ंगा लगाने के लिए अडंग़ेबाजों की नियुक्ति करते हैं, जबकि भारत में सांसद सदन में सभापति के आसन तक पहुंच जाते हैं, यहां तक कि एक दूसरे पर चीजें फेंकने लगते हैं और कई बार तो निशाना सभापति भी बन जाते हैं। पार्टियां सरकार में रहने के दौरान कानून प्रस्तावित करती हैं और विपक्ष में आने के बाद उनका विरोध शुरू कर देती हैं और दूसरे में खेमे में भी यही दोहराव होता है।
संपादकीयों में लगातार इसे पाखंड कहा जा सकता है, लोगों का भरोसा अपने जनप्रतिनिधियों में निरंतर कम होता जा रहा है लेकिन बात कुछ भी आगे नहीं बढ़ रही है। मिसाल के तौर पर हमारी संसद में ऐसी बहस कैसे आगे बढ़ती, जैसी सीरिया पर ब्रिटिश संसद में हुई। यहां संकट के लिए एक दूसरे पर दोषारोपण के अलावा अगर विपक्ष किसी संकल्प को रोकना नहीं चाहता तो संभवत: बहिर्गमन कर जाता। लिहाजा, समय आ गया है कि दलबदल विरोधी कानून और व्हिप तंत्र पर पुनॢवचार किया जाए। अगर पार्टियां कम से कम कुछ विशेष मुद्दों पर ही अपने सांसदों को दलबदल विरोधी कानून का डर दिखाए बिना ही बोलने की आजादी दें तो हमारी संसद बेहतर और अधिक उत्पादक बनेगी। इसलिए पार्टियों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र की कमी क्या अब भारतीय राजनीति का सबसे शर्मनाक पहलू बनेगी।
कांग्रेस ने अपनी कार्यसमिति सहित अपने ही संस्थानों का प्रभाव कम किया है, जो पूरी तरह से नामांकन पर आधारित है और कभी कभार ही उसकी बैठक होती है, वहीं नए निजाम की अगुआई में भाजपा भी उसी ढर्रे पर बढ़ रही है। माकपा को अपवाद छोड़ दिया जाए तो अधिकांश अन्य दल पारिवारिक वंशवाद वाले राजनीतिक माफिया बन गए हैं। हमारा दलबदल विरोधी कानून उनका सहयोगी बन गया है। इसमें बदलाव होना चाहिए। तब शायद हम कुछ बेन सरीखी मिसाल देखेंगे, जहां पार्टी के रुख के खिलाफ और यहां तक कि पार्टी के मौजूदा नेता के विरुद्घ आवाज बुलंद हो सके।