दिसंबर महीने की आखिरी तारीख और पहली जनवरी के बीच ऐसा कोई बदलाव नहीं आ सकता जो हमारी राजनीति की बहस या उसकी दिशा बदलने में सक्षम हो। हां, नये साल की शुरुआत हमें यह मौका जरूर देती है कि हम पीछे झुकें और आगे देख सकें। वर्ष 2016 में प्रवेश करने के साथ ही शुरुआत करते हैं हमारे अखबार के पन्नों और प्रमुख बहसों से। सबसे बड़ी सुर्खियां हैं दिल्ली की सम-विषम कार योजना। मैं उन लोगों में शामिल हूं जिनको इस योजना की दीर्घकालिक सफलता पर सुबहा है। हमारे देश में आबादी के मुकाबले कार का अनुपात अभी भी बहुत कम है और सामाजिक एवं कृषि व्यवहार को बदले बिना तथा ईंधन नीति की विसंगति को दूर किए बिना इसे हल नहीं किया जा सकता। परंतु इस योजना को जबरदस्त लोकप्रियता हासिल हुई है। हम जिस हवा में सांस लेते हैं उसकी गुणवत्ता अब हमारी प्रमुख चिंता बनी हुई है।
दूसरी बात, हमारी बहस में नेट न्यूट्रैलिटी (सबके लिए समान इंटरनेट) भी शामिल है जो अतीत में अत्यंत गूढ़ मुद्दा हो सकती थी। इसके बहस में आने से पहले सप्ताह भर प्रमुख समाचार पत्रों में फेसबुक के फ्री बेसिक की तमाम पेशकश छपीं। दलगत राजनीति से प्रेम करने वाले हमारे समाज में जहां पहचान का मसला तथा मूलभूत जरूरतें हावी हों वहां क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि सैकड़ों करोड़ रुपये की राशि खर्च कर ‘मुफ्त’ इंटरनेट सेवा के विज्ञापन दिए जा सकते हैं!
क्या भारत बदल रहा है? एक साल ही तो बदला है। क्या इस अवधि में हवा की गुणवत्ता और इंटरनेट का लोकतंत्रीकरण हमारी चिंताओं का प्रमुख विषय बन सकते हैं। क्या रोटी, कपड़ा और मकान, जाति, धर्म और भाषा, बिजली, सड़क, पढ़ाई, भ्रष्टाचार और कुशासन जैसे मुद्दे पीछे छूट गए। यह सच नहीं है। दरअसल हम अतीत की अपने अस्तित्व से जुड़ी चिंताओं से उबरकर भविष्य में अवसरों की ओर बढ़ रहे हैं और इस बीच हमारी राजनीतिक चिंताएं भी अपना स्वरूप बदल रही हैं।
ऐसी बातों के प्रतिवाद में हमेशा सूखाग्रस्त बुंदेलखंड में घास की रोटी खाये जाने या किसानों की आत्महत्या की रिपोर्ट पेश की जा सकती हैं। सन 2009 की गर्मियों में जब मैंने यह दलील दी थी भारत की राजनीति अब समस्या के निदान से आकांक्षा की राजनीति में बदल रही है तो ऐसी ही दलीलें सामने आई थीं। हवा की गुणवत्ता और इंटरनेट में लोकतंत्र की मांग उसी दिशा में तार्किक दलील हैं। शायद बेहतर स्वास्थ्य सेवा और खाने की गुणवत्ता की मांग आगे देखने को मिले। महज कुछ वर्ष पहले तक जलवायु परिवर्तन आम चिंता का विषय नहीं था। परंतु जागरूकता बढऩे, मीडिया का विस्तार होने और इंटरनेट संचार बढऩे के बाद हालात बदल गए हैं। किसान और मछुआरे इसका असर उतना ही महसूस कर रहे हैं जितना कि हमारे शहर। चेन्नई इसका ताजा उदाहरण है। पंजाब में कपास की फसल पर सफेद मक्खियों का हमला हुआ। देर से और छिटपुट बारिश ने इसका लार्वा खत्म करने का अवसर ही नहीं दिया। देश के प्रमुख कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी कहते हैं कि 110 सालों में यह केवल दूसरा मौका है जब लगातार वर्षों में मॉनसून विफल रहा है। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि तीसरी बार ऐसा नहीं होगा। वह कहते हैं, ‘चेन्नई के बाद कौन जानता है क्या होगा?’ हमारे मछुआरों के लगातार गुजरात तट पर पाकिस्तानी जल क्षेत्र में पकड़े जाने की एक वजह यह भी है कि रेड स्नैपर (एक मछली) की तलाश में वे दूर तक निकल जाते हैं। जिस तरह हम शहरी लोग हवा की गुणवत्ता को लेकर चिंतित हैं उसी तरह किसान और मछुआरे भी समझते हैं कि प्राकृतिक समस्याओं के लिए मनुष्य भी जिम्मेदार है।
भारत का लोकतंत्र विशाल एवं विशिष्टï लोकतंत्र है। जहां धुर वाम से लेकर भगवा दक्षिणपंथियों तक कोई ऐसा नहीं है जो जलवायु परिवर्तन से इनकार करे। जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण और हवा की गुणवत्ता आदि देश की राजनीति के प्रमुख एजेंडों में जगह बना रहे हैं। यह बात सरकार को नीति परिवर्तन के लिए मजबूर करेगी। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार अब ईंधन कीमतों को बिजली क्षेत्र के सुधार और अधिक नहीं टाल सकती क्योंकि हवा और पानी का बचाव आवश्यक है। अगर किसान को सिंचाई के लिए बिजली मुफ्त मिलती है लेकिन वह भी केवल देर रात में छह घंटे के लिए तो जाहिर है वह ट्यूबवेल का स्विच चालू रखने के लिए प्रेरित होगा। भले ही नरेंद्र मोदी को कृषि मंत्रालय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक ऐसे व्यक्ति को देना पड़ा हो जो जैविक खेती, गाय के गोबर और गोमूत्र को लेकर आसक्त हो लेकिन उन्हें आधुनिकीकरण की दिशा में काम करना होगा वरना किसान ही उनको दंडित करेंगे। अब उर्वरक मूल्य सुधार की दिशा में काम करना भी जरूरी हो गया है ताकि पोषण के असंतुलन को दूर किया जा सके। बीज संबंधी शोध को भी दिशा देनी आवश्यक है जो अब दक्षिणपंथी लोगों से भी उसी तरह त्रस्त है जिस तरह संप्रग सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के वाम रुझान वाले लोगों से था। जमीन, पानी और हवा का बेहतर और किफायती प्रयोग हमारी राजनीति में जगह बना रहा है।
डिजिटल इंडिया का वादा करने वालों में नरेंद्र मोदी खुद अग्रणी हैं। लेकिन डिजिटलीकरण में संचार का वही महत्त्व है जो खेती में सिंचाई का। नीतीश कुमार ने बिहार चुनाव में भाजपा के खिलाफ जो सबसे प्रभावशाली दलील दी थी वह कॉल ड्रॉप यानी खराब संचार सुविधा की थी। भाजपा के कई प्रचारकों ने इसका मजाक उड़ाया था लेकिन बिहार में सस्ते स्मार्ट फोन बहुत अधिक संख्या में हैं और डाटा सेवाओं के लगातार महंगा होने के बीच कॉल ड्रॉप और खराब संचार अब जीवन की गुणवत्ता से संबद्घ मुद्दे बन चुके हैं। यही वजह है कि मार्क जुकरबर्ग फ्री बेसिक्स (नि:शुल्क मूलभूत इंटरनेट सुविधा) की पेशकश के साथ सामने आए।
एक देश जो हवा और पानी की गुणवत्ता तथा इंटरनेट के लोकतंत्र को लेकर चिंतित है उसे सरकारी और निजी स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता और उसके मूल्य पर प्रश्न करने में अधिक वक्त नहीं लगेगा। शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर जल्द ही निराशा की लहर उठेगी क्योंकि हमारी एक पूरी पीढ़ी नष्ट होते सरकारी विश्वविद्यालयों, कम स्तर के निजी इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेजों से बाहर निकल रही है। इसके अलावा राजनीति और मतदाताओं की पसंद तय करने में मैकाले और औरंगजेब की शख्सियत की कोई भूमिका नहीं होगी। बल्कि इसका निर्धारण आपकी डिग्री की गुणवत्ता से होगा जिसे दिलाने के लिए आपके मां-बाप ने अपनी जमीन तक बेच डाली होगी। खानपान के मोर्चे पर भी गुणात्मक बदलाव आया। दाल, मांस, दूध, अंडे, सब्जियों और फलों के दाम बढ़े हैं जबकि अनाज के दाम स्थिर रहे हैं क्योंकि अधिकांश लोग पोषण की तलाश में हैं। खाने की गुणवत्ता और सुरक्षा भी चिंता का विषय है।
दुख की बात है कि हमारी संसद पूरे साल ठप पड़ी रही और कुछ हद तक सरकार भी। लेकिन आम बहस नहीं रुकी। मैं एक बार फिर कहूंगा कि इसमें उत्तरोत्तर बदलाव और सुधार देखने को मिला है। यही वजह है भाजपा की गाय के लिए चिंता और कांग्रेस की मुफ्त सुविधाओं में कटौती की शिकायत उसे प्रभावित नहीं करती। यह कुछ ऐसा है मानो आप किसी एक्सप्रेसवे पर रुक गए हों और पीछे देखने वाले आईने में दिख रही चीजें करीब आती जा रही हों।