सभी राष्ट्रीय दल जातिवाद के विरोध का दावा करते हैं लेकिन वे सभी इसमें शामिल हैं। सभी दल व्यापक नेतृत्व और अपील के संदर्भों में अपने जातीय समीकरण ठीक करने तक में नाकाम रहे हैं। परंतु कोई राष्ट्रीय राजनीतिक दल जाति को लेकर इतना हैरान परेशान नहीं रहा है जितना कि भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा।
एक ऐसे राजनीतिक दल के बारे में यह कहने का साहस कैसे किया जा सकता है जिसने सन 1984 के बाद पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल किया और पिछड़े वर्ग के नेता को देश का प्रधानमंत्री बनाया। उसने इस वर्ग के दो नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया और उसके टिकट पर तमाम पिछड़ा और अनुसूचित वर्ग के नेता चुनाव जीतने में कामयाब रहे। बीते दो दशक में उसने पिछड़ी जातियों के जितने सशक्त नेता पैदा किए उतने कांग्रेस पिछले चार दशक में भी नहीं कर सकी। उसने एक दलित को देश का राष्ट्रपति बनाया। हमें यह भी याद रखना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमेशा राजनीति में जातिवाद के खिलाफ बात की है। यहां तक कि इस आलेख के लिखे जाते वक्त गोरखपुर में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की बुनियाद रखे जाते वक्त भी उन्होंने ऐसा ही किया।
वर्ष 2014 में चुनावी जीत के बाद से पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अब जाकर उपस्थित हुई है। यह चुनौती जख्मी, क्रोधित और अलग थलग पड़े अल्पसंख्यकों की तरफ से भी नहीं है। बल्कि यह हिंदुओं के एक बड़े वोट बैंक की ओर से आई है। गुजरात में कुछ दलित युवाओं को वाहन से बांधकर घसीटने का वीडियो सामने आया, उत्तर प्रदेश में पार्टी के उपाध्यक्ष (अब निष्कासित) ने मायावती को ‘वेश्या से भी बुरा’ कह दिया और हरियाणा में हुई बलात्कार की एक घटना ने कश्मीर तक को हमारे जेहन और समाचार चैनलों के प्राइमटाइम से दूर कर दिया। जबकि वहां अंतहीन कफ्र्यू लगा है, 44 लोग मारे जा चुके हैं और 2,000 से अधिक घायल हुए हैं। आने वाले दिनों में कई सफाइयां सामने आएंगी। यह भी कहा जाएगा कि यह सब निहित स्वार्थी तत्त्वों की सािजश है, कि गुजरात में पीडि़त दलित छात्रों के साथ दुव्र्यवहार और हिंसा करने वालों में मुस्लिम भी शामिल था, यह भी कहा जाएगा कि दयाशंकर सिंह का इरादा बहनजी के मूल्यों की तुलना वेश्या से करने का नहीं था। बहरहाल अगर भाजपा अब भी सतर्क नहीं हुई तो हालात बिगड़ते ही जाएंगे।
भाजपा में जाति को लेकर भ्रम बढ़ाने वाले कई अन्य कारक हैं। पहली बात, कांग्रेस से उलट उसके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी सपा, बसपा, राजद, जदयू, तृणमूल कांग्रेस और अब केजरीवाल की तेजी से बढ़ती पार्टी आप हैं। ऐसे में वह अल्पसंख्यक मतों पर दांव नहीं खेल सकती। वाजपेयी के दौर में वह कुछ हद तक नियंत्रित थी लेकिन उसके बाद वह दोबारा बहुसंख्यक राजनीति पर उतर आई है। वर्ष 2014 के बाद से उसने इसमें और अधिक मुखरता दिखाई है।
एक मुस्लिम इस बात को किस तरह देखेगा? प्रधानमंत्री ने न केवल अपने आवास 7 रेसकोर्स पर इफ्तार की परंपरा बंद कर दी बल्कि वह लगातार तीसरे वर्ष राष्ट्रपति भवन में आयोजित इफ्तार में भी नहीं गए। पार्टी के थिंकटैंक ने धर्मनिरपेक्षता की स्वरचित परिभाषा पर आगे बढऩे का निश्चय कर लिया है। उसे लग रहा है कि उपरोक्त कदम तुष्टीकरण के दायरे में आएंगे। पार्टी का मानना है कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है क्योंकि यह एक हिंदू राष्ट्र है, हिंदुत्व खुद में एक समावेशी दर्शन है। इसका अर्थ यह है कि भाजपा जानबूझकर खुद को 80 फीसदी मतदाताओं तक सीमित कर रही है।
आगे और भेद पूरी तरह अस्वीकार्य है। पार्टी ने चुनाव के पहले प्रचार के दौरान यह बताने में पूरा जोर लगा दिया था कि मोदी पिछड़ा वर्ग से आते हैं। उत्तर प्रदेश में 80 में से 73 सीटों पर मिली जीत ने उसके थिंकटैंक को आश्वस्त कर दिया था कि दलित मायावती से दूर हो रहे हैं। अब घड़ी के कांटे वापस उलटे घूम चुके हैं।
यह महज कुछ अविवेकी लोगों की बात नहीं है। कांग्रेस समेत अन्य दलों के नेताओं ने भी अतीत में मायावती के बारे में असम्मानजनक भाषा का प्रयोग किया है। परंतु इस घटना ने भाजपा की पिछले एक दशक की हिंदू उच्चवर्णीय दल न होने की सायास कोशिश को धता बता दिया है। इस घटना ने एक बार पुन: भाजपा की वैचारिक और दार्शनिक स्थिति को स्पष्ट किया है जिसमें अभी भी जाति व्यवस्था की श्रेष्ठता का बोध है। भाजपा और आरएसएस के विचारकों का मानना है कि पूर्व निर्धारित कौशल और पेशे वाली जाति व्यवस्था में बुरा क्या है जबकि प्रत्येक का समाज में अहम योगदान और आवश्यकता हो। उस स्थिति में एक मैला ढोने वाले, एक चर्मकार और ब्राह्मण की स्थिति समान होगी क्योंकि इनमें से हर एक विशिष्ट रूप से अपना काम करेगा। कोई और वह काम नहीं कर पाएगा। उनके मुताबिक राजनीतिक लाभ के लिए इस व्यवस्था को खत्म करना ही राजनीति में जाति का दुरुपयोग है।
यह आसान नहीं है। जब तक आरएसएस भाजपा का वैचारिक मातृ संगठन है तब तक उसके लिए जाति के तर्क को ठुकराना असंभव है। इसलिए क्योंकि आरएसएस मनु और उनके दर्शन की निंदा नहीं करेगा। जाति या जैसा कि मायावती कहती हैं मनुवाद, वैदिक अतीत के शासन सिद्घांत के लिए अनिवार्य है। एक बार आप जाति आधारित कौशल और पेशे की अवधारणा को अपना लें तो आप निचली जातियों के हित में जुबानी जमाखर्च के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगे। उनके घरों में खाने और पीने की वही कवायद नजर आएंगी जो तमाम दलों के नेता अब भी करते हैं। कोई भी राजनीतिक दल निर्दोष नहीं है। यहां तक कि अन्ना आंदोलन के दौरान भी एक मुस्लिम और दलित बच्ची से अन्ना का अनशन तुड़वाया गया था। शायद पहली बार राजनीतिक मंच पर बच्चों का प्रयोग किया गया था।
बाबू जगजीवन राम के जाने के बाद कांग्रेस कोई दलित नेता तैयार नहीं कर सकी। लेकिन भाजपा और आरएसएस के समक्ष चुनौती कहीं अधिक गहरी है। आरएसएस की स्थापना 1925 में हुई थी। तब से अब तक इसके सभी प्रमुख उच्चवर्णीय ब्राह्मïण ही रहे हैं। केवल एक बार प्रोफेसर राजेंद्र सिंह के रूप में एक राजपूत संघ प्रमुख बना। उसके शीर्ष नेतृत्व में ज्यादातर ब्राह्मण हैं। मनु द्वारा लिखित जाति व्यवस्था को अनकही मान्यता है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में भी यही हालात हैं। बंगारू लक्ष्मण उसके इकलौते दलित अध्यक्ष बने। तहलका के स्टिंग ऑपरेशन में दो लाख रुपये की रिश्वत लेते पकड़े जाने पर पार्टी ने उनका बचाव करने के बजाय अलगथलग छोड़ दिया। वह निर्वासन में ही इस दुनिया से चले गए। जबकि कुछ ही वक्त बाद पार्टी के मंत्री दिलीप सिंह जूदेव कैमरे पर नौ लाख की रिश्वत लेते और यह कहते पकड़े गए कि पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा की कसम खुदा से कम भी नहीं। उनको न केवल क्षमा किया गया बल्कि दोबारा टिकट भी दिया गया।
ध्यान रखिए: बंगारू दलित थे जबकि जूदेव राजपूत।
अगर आप जाति को लेकर आरएसएस की चुनौतियों को समझना चाहते हैं तो यूट्यूब पर आरएसएस के पूर्व प्रमुख के एस सुदर्शन के साथ मेरा वॉक द टॉक का पुराना साक्षात्कार देखिए। मैंने उनसे पूछा था कि प्रमुख पिछड़ी नेता विद्रोही स्वभाव की उमा भारती को लेकर क्या दिक्कत है। उन्होंने कहा था कि उमा भारती के दो व्यक्तित्व हैं। एक उनके पूर्व जन्म का जब शायद वह योगी थीं। यही वजह है कि वह बहुत अच्छी वक्ता और शानदार तर्क करने वाली हैं। दूसरा व्यक्तित्व उनके परिवार से मिला है जहां वह पैदा हुईं। यह परिवार सुसंस्कृत लोगों का नहीं रहा। यही वजह है कि कई बार वह जिद्दी बच्चे की तरह हरकत करती हैं। उन्होंने कहा वह यह बात भारती को बता चुके हैं। यही मूलभूत विरोधाभास भाजपा और आरएसएस के हिंदुत्व की संस्कृति से एकाकार होने से रोकता है जिसे जाति संरचना वाले समाज ने बांट रखा है। यह दृष्टांत हमें यह भी समझाता है कि आखिर क्यो गौरक्षक यह नहीं मानते कि सभी हिंदू (खासकर दलित) गायों को समान रूप से पवित्र नहीं मानते।