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Wednesday, November 6, 2024
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खुद अपना दुश्मन बना हुआ है पाकिस्तान

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पाकिस्तान एक ऐसा देश है जिसे हमेशा जंग छेड़े रहने की आदत है। इस प्रक्रिया में वह खुद पर और अपने लोगों पर ही युद्घ थोप बैठा है।

स्वर्गीय जुल्फिकार अली भुट्टो की एक प्रसिद्घ उक्ति है जिसमें उन्होंने कहा था कि वह भारत के साथ 1,000 सालों तक जंग लड़ेंगे। सन 1990 की गर्मियों में उनकी बेटी बेनजीर ने भी यही बात दोहराई थी। वे दिन विवादास्पद और ऐतिहासिक रूप से झगड़ों के दिन थे। मुझ समेत कई लोग मानते हैं कि पाकिस्तान ने तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्गीय साहिबजादा याकूब खान के जरिये तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री इंद्र कुमार गुजराल को परमाणु हमले की धमकी भिजवाई थी। केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली सरकार थी जिसे भाजपा और वाम दलों का बाहरी समर्थन हासिल था जबकि भीतर देवीलाल से लेकर चंद्रशेखर तक हर कोई उसे अस्थिर करने में लगा था। वह सरकार स्वाभाविक रूप से चौकस रहा करती थी। आखिरकार वीपी सिंह ने संसद में शांतिपूर्ण ढंग से अपनी प्रतिक्रिया दी थी। उन्होंने कहा कि जो लोग 1,000 साल की जंग की धमकी दे रहे हैं उन्हें पहले यह देखना चाहिए कि वे युद्घ में 1,000 घंटे भी टिक सकेंगे या नहीं। मैंने आकलन किया कि 1,000 घंटे कोई कम समय नहीं होता। यह अवधि 42 दिन की थी यानी सन 1965 और 1971 की जंग के कुल समय को मिला दिया जाए तो उससे भी एक सप्ताह ज्यादा।

चूंकि मैं उस वक्त इस गतिरोध पर इंडिया टुडे के लिए आवरण कथा लिख रहा था इसलिए मैंने देश के सर्वाधिक तीक्ष्ण सैन्य विश्लेषकों में से एक रवि रिखाई से संपर्क किया। हमने 1,000 घंटे के एक युद्घ का अनुमान लगाया। जाहिर है इसमें भारत की जीत होनी थी। हमने अनुमान लगाया कि एक ऐसा युद्घ जीतने में लड़ाकू विमानों, टैंकों, साधारण वाहनों, तोपखानों के साथ तमाम जानें जाएंगी। इसके अलावा तमाम आर्थिक खर्च भी थे। इस तरह देखा जाए तो इस जीत की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती थी। इस बात ने हमारे दूसरे अनुमान को सही साबित कर दिया। वह यह कि कोई युद्घ कितना भी छोटा और अनुकूल क्यों नहीं हो वह अव्यवहार्य होगा और पाकिस्तान के साथ वास्तविक विवादों का निपटारा नहीं करेगा। हमने यह भी जोड़ा कि सन 1971 की लड़ाई जीतने के दो दशक के भीतर हम पुन: युद्घ के कगार पर थे।

जाहिर है देश के सामरिक विशेषज्ञों ने हमारी जमकर मलामत की। सबसे तगड़ी आपत्ति यह थी कि हमने टैंकों, विमानों और मिसाइलों आदि का मोल तो लगाया लेकिन यह नहीं देखा कि इन्वेंट्री में रखे-रखे वे कैसे मूल्यहीन होते जा रहे हैं। हमने जवाब दिया कि युद्घ का इतिहास बताता है कि विजेता सेनाएं हमेशा अपने हथियारों को नए से बदलती हैं। हमने भी सन 1971 में यही किया था। लेकिन इन बातों को हंसी में उड़ा दिया गया। इस विश्लेषण को इतना युद्घ विरोधी माना गया कि कई पाकिस्तानी अखबारों ने इसे छापा। जाहिर है दूसरे देश का मामला था और कॉपीराइट कानून की पहुंच वहां तक नहीं थी। लेकिन एक अखबार ने तो हद की कर दी। उसने आलेख का एक टुकड़ा छाप दिया जिसमें सन 1971 में हुए पाकिस्तानी आत्मसमर्पण का चित्र था। जनरल नियाजी और अरोड़ा के ढाका के चित्र के कैप्शन में लिखा था कि युद्घ निर्णायक था लेकिन इससे कुछ भी हल नहीं हुआ। एक और युद्घ का विचार मूर्खतापूर्ण है।

अगले दिन अखबार के संपादक और मालिकों को सेना मुख्यालय तलब किया गया कि उन्होंने यह प्रकाशित करने की हिमाकत कैसे की। अखबार ने प्रथम पृष्ठï पर माफी मांगी और पाकिस्तानी वायु सेना के सेवानिवृत्त एयर मार्शल के आलेखों की शृंखला छापी कि कैसे पाकिस्तान तीन दिन में भारत को नेस्तनाबूद कर देगा और कैसे भारत न केवल कश्मीर दे देगा बल्कि वह कई राष्ट्रों में विखंडित भी हो जाएगा। इस घटना के 25 साल बाद हमें एक बार फिर पाकिस्तान के 1,000 साल लंबे युद्घ के दावे को लेकर अपना विश्लेषण करना होगा। मैं दो बातें कहूंगा। पहला, 1,000 साल का युद्घ चालू है और यह उसका 70वां साल है। दूसरा, इससे पहले कि आप मुझे संघी कहें मैं यह बता दूं कि यह युद्घ केवल एक देश यानी पाकिस्तान लड़ रहा है और यह लड़ाई उसकी खुद से है।

मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो किसी देश के खुद के नाश में यकीन करें। मेरा मानना है कि दूसरी ओर पाकिस्तानी राष्ट्रवाद एक अत्यंत मजबूत शक्ति के रूप में उभरा है। मुद्दा यह है कि यह राष्ट्रीय सामंजस्य एक और इस्लामी विचारधारा से उभरा है तो वहीं उसका संबंध भारत के बारे में उन्माद से भी है। कल्पना कीजिए कि एक मजबूत बड़ा और अधिक धूर्त भारत लगातार आपके टुकड़े करने के षडयंत्र कर रहा है और आप उससे लडऩे लगें। इस बात ने पाकिस्तान को एक विशिष्ट राष्ट्र के रूप में उभारा है। न तो वह सऊदी अरब की तरह पूरी तरह इस्लामिक राष्ट्र बन सका और न ही ईरान की तरह मौलवियों द्वारा संचालित न ही वह पहले की तरह सैन्य तानाशाही वाला देश रह गया है, न ही सच्चा लोकतंत्र। यह राष्ट्रीय सुरक्षा वाले मुल्क का उदाहरण है जिसके लक्षण हैं: गौरव, राष्ट्रवाद, अवज्ञा और संदेह, रक्षात्मकता। कुल मिलाकर एक ऐसा देश जो हमेशा अपने आगे-पीछे और दांए-बाएं देखता रहता है। वह भी भय और क्रोध के साथ। यह कोई इस्लामी या जेहादी देश नहीं है बल्कि एक ऐसा देश है जो जिहाद को जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल करता है या उससे लड़ता है।

पिछले कुछ सप्ताह में पाकिस्तान से कई भ्रामक खबरें आई हैं। पाकिस्तानी महिलाओं ने महिला टी-20 विश्व कप में हमें और वेस्टइंडीज को हराया। इन खिलाडिय़ों ने अपने सर नहीं ढक रखे थे। लाहौर में ईस्टर के मौके पर हुए धमाके में ईसाइयों को निशाना बनाया गया। जबकि सलमान तासिर के हत्यारे मकबूल कादरी के जनाजे में उमड़ी भीड़ से पूरा इस्लामाबाद पट गया। लाहौर धमाके को एक वहाबी देवबंदी समूह ने अंजाम दिया जबकि कादरी के समर्थक सुन्नी तहरीक के थे जो बरेलवी सूफीवाद को मानते हैं। लेकिन इससे पहले हमने यह भी देखा कि एक कनाडाई पाकिस्तानी ताहिर उल कादरी को भारत में हमारे प्रधानमंत्री ने खूब तवज्जो दी। वह दिल्ली में एक सूफी सम्मेलन में थे। मैंने अपने पाकिस्तानी मित्र और स्तंभकार खालिद अहमद को ई-मेल किया कि वे मुझे यह सब समझने में मदद करें। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में बरेलवी सूफीवाद की दो अलहदा धाराएं हैं। एक यानी सुन्नी तहरीक इस्लामाबाद को खत्म कर देना चाहती है जबकि दूसरी धारा वाले यानी ताहिर उल कादरी को हमने देखा कि कैसे उन्होंने इमरान खान के साथ मिलकर और सेना के बदले नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनकी जगह दिखाई। यानी जिस कादरी को हम उदार बताते हैं उसी ने सेना के राजनीतिक हित साधे। वही सेना जिसने उनके प्रतिद्वंद्वी सूफी बरेलवियों के खिलाफ एक बड़ा अभियान छेड़ रखा है जबकि लश्कर और जैश को उसका समर्थन जारी है। यह एक राष्ट्रीय सुरक्षा राष्ट्र की परिभाषा है। जहां सेना और सुरक्षा प्रतिष्ठान ही दुश्मन तय करते और उससे लड़ते हैं। शेष संस्थान उसकी सर्वोच्चता स्थापित करने में मदद करते हैं।

पाकिस्तान पर आधारित दो अस्वाभाविक नई पुस्तकों ने इस विरोधाभास पर नई अंतर्दृष्टि दी है। अस्वाभाविक इसलिए क्योंकि इनमें से पहली बी जी वर्गीज की अ स्टेट इन डिनायल मरणोपरांत प्रकाशित हुई जबकि दूसरी हुसैन हक्कानी की बिटवीन मॉस्क ऐंड मिलिट्री 2005 की ही किताब का नया उन्नत संस्करण है। वर्गीज कहते थे कि पाकिस्तान पर उसकी विविध और जीवंत विरासत की छाप है। हक्कानी अपनी किताब की शुरआत सन 1947 से करते हैं। वह हमें याद दिलाते हैं कि उस वक्त उनके देश की सेना का आकार भारतीय सेना के तिहाई था। जबकि जीडीपी छठे हिस्से के बराबर। वह कहते हैं कि पाकिस्तान को उपनिवेशकाल में जो विशाल सेना मिली थी उसी के अनुरूप उसने अपनी सुरक्षा के खतरे बढ़ा लिए। उसने अपनी पीढिय़ों को इसका यकीन भी दिला दिया। इस तरह उसने अपने आपको एक राष्‍ट्रीय सुरक्षा राज्य के रूप में विकसित किया है जो लगातार किसी के साथ जंग में मुब्तिला रहना चाहता है। वह अपने ही लोगों के खिलाफ लड़ता है। वजीरिस्तान और फ्रंटियर में यही हो रहा है। वह लश्कर जैसे संगठनों के जरिये चुनी हुई सरकारों और अपनी अर्थव्यवस्था, रचनात्मकता आदि से लड़ रहा है। इसलिए हम कह रहे हैं कि पाकिस्तान ने खुद को 1,000 साल के युद्घ में झोंक तो दिया है लेकिन वह खुद से लड़ रहा है।

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