अरविंद केजरीवाल की राजनीति में मौजूदा बदलाव को लेकर मैं एक बात तो बिल्कुल नहीं कह सकता और वह यह कि ‘मैंने आपसे ऐसा पहले ही कहा था।’ बल्कि मैंने इसके एकदम उलट कहा था। वर्ष 2014 में अपनी पुस्तक ‘एंटीसिपेटिंग इंडिया’ की भूमिका में मैंने कहा था कि जैसे-जैसे वह एक राष्ट्रीय व्यक्तित्व के रूप में उभरेंगे, वैसे-वैसे वह सत्ता प्रतिष्ठïन को लेकर सहज होते जाएंगे। आप किसी उच्च पद पर रहते हुए निरंतर विद्रोही तेवर नहीं अपना सकते। मेरा आकलन गलत था।
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उन्होंने एक रिकॉर्ड किया हुआ छोटा सा संदेश सोशल मीडिया में जारी किया। उसमें उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री आम आदमी पार्टी से इतने अधिक हताश हैं कि वह उनकी हत्या तक करा सकते हैं। यह बात हमारी राजनीति में एक बड़े बदलाव की सूचक है। मुझे यह कहने में संकोच नहीं हो रहा है कि यह एक नई ‘गिरावट’ का संकेत है। फिलहाल परिस्थितियां कुछ ऐसी हैं कि अगर आप हर गिरावट का उल्लेख करने लगे तो आपको हर सप्ताह एक बार ऐसा करना ही होगा।
केजरीवाल और उनके लाखों समर्थक (राहुल गांधी नहीं बल्कि वह नरेंद्र मोदी के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं) कहेंगे कि मोदी ने उनको एके 49 कहकर इसकी शुरुआत की थी। यह एक दोधारी वाला घाव था। एके कहकर उनको उग्रवादी वाम से जोड़ा गया जबकि 49 उनकी दिल्ली में बनी 49 दिन की सरकार पर मारा गया एक ताना था। उसके बाद हुए दिल्ली चुनाव में वह कुल 70 में से 67 सीटें जीतने में कामयाब रहे। लेकिन इसके बाद भी दोनों नेताओं के बीच जंग का खात्मा नहीं हुआ।
यह पहला मौका नहीं है जब एक मजबूत मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री के साथ लड़ाई छेड़ी हो। हमें एन टी रामाराव और ज्योति बसु के उदाहरण याद हैं (याद कीजिए कैसे कोलकाता की एक यात्रा के दौरान राजीव गांधी ने कोलकाता को मृत शहर कहा था )। लालू, मायावती, कांशीराम और अकालियों सभी ने केंद्र के साथ लड़ाई में सख्त जुबान का प्रयोग किया है। अभी हाल ही में नीतीश कुमार, अखिलेश, ममता और मोदी के बीच असहज समीकरण बना। अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्रियों को अस्थिर किया गया। तब भी बहस में गुस्सा नजर आया लेकिन वह सभ्यता के दायरे में रही। लेकिन केजरीवाल उसे एक नए ही स्तर पर ले आए।
फिलहाल हमारे सामने कोई सामान्य गाली-गलौज वाली राजनीति नहीं है। नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव प्रचार में गांधी परिवार को लेकर बदजुबानी की थी। मसलन उनको ड्राइवर या क्लर्क का काम भी नहीं मिलेगा, सोनिया को कोई किराये पर घर तक नहीं देगा या पता नहीं राजीव से शादी के पहले वह क्या करती थीं और कैसे उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस पार्टी वंदे मातरम से वंदे मातारोम की ओर विचलित होती गई। लेकिन उनकी पार्टी ने इसे पसंद नहीं किया। तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने अपनी नाखुशी जाहिर की और मोदी पीछे हट गए। वर्ष 2004 में मेरे साथ वाक द टाक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने खुद को इस प्रकरण से अलग करते हुए कहा था कि क्रिकेट के खेल में भी आपको कई बार न चाहते हुए भी नो बॉल या वाइड बॉल फेंकनी पड़ती है। बाद में सोनिया ने भी उनको ‘मौत का सौदागर’ कहा था। उन्होंने इस बयान के लिए न तो कभी अफसोस जताया न इसे वापस लिया। परंतु कांग्रेस में भी लोग इसे सुनकर नाराज हुए थे और उन्होंने इसे कभी दोहराया नहीं। इस बार कहीं कोई पछतावा नजर नहीं आ रहा बल्कि पार्टी के अन्य सदस्य लगातार उकसावे की कार्रवाई कर रहे हैं जबकि केजरीवाल ने विपश्यना में जाकर 10 दिनों की खामोशी ओढ़ ली है।
अगर एक मुख्यमंत्री अपने प्रधानमंत्री पर यह आरोप लगाता है कि वह उनकी हत्या कराना चाहता है तो यह एक संवैधानिक संकट की स्थिति है। अब आप मदद या संरक्षण के लिए कहां जाएंगे? और चूंकि अद्र्घ राज्य की स्थिति वाले दिल्ली में पुलिस पर भी आपका नियंत्रण नहीं है तो आप उस पर भी भरोसा नहीं करेंगे। तब एक संघीय व्यवस्था में आप इस अप्रत्याशित स्थिति से कैसे निपटेंगे? किसी के पास हस्तक्षेप का संवैधानिक अधिकार नहीं है। राष्ट्रपति एक मुख्यमंत्री को सलाह नहीं दे सकते और दिल्ली लेफ्टिनेंट गवर्नर ने अगर मामले में झांकने की हिम्मत की तो उनको समस्या हो सकती है। तब राज्य और केंद्र मिलकर काम कैसे करेगे? खासतौर पर दिल्ली जैसे जटिल संवैधानिक व्यवस्था वाले राज्य में जहां राष्ट्रीय राजधानी स्थित हो।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आप के नेताओं और केजरीवाल के करीबी माने जाने वाले नौकरशाहों पर पुलिस और सीबीआई की कार्रवाई प्रतिशोध से भरी प्रतीत होती है। अदालतों ने पहले ही इस बारे में असहमति से भरी टिप्पणियां करना शुरू कर दिया है। लेकिन यह भी सच है कि दिल्ली चुनाव खत्म होने के बाद भी विरोधी दलों से ताल्लुक रखने वाले प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच सबकुछ सामान्य नहीं हुआ जबकि संवैधानिक व्यवस्था ने दोनों को जोड़ रखा है। दोनों नेता पहले दिन से विवाद में हैं। भाजपा नाराज और हताश है जबकि आप इसे रणनीति के रूप में आजमा रही है। इसे इस रूप में देखा जा रहा है कि 2019 में मोदी के समक्ष राष्ट्रीय स्तर पर कौन चुनौती देगा? मामला राहुल और कांग्रेस को किनारे लगाने का है। अब तक यह नीति कारगर है लेकिन इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है।
यह मामला केवल राजनीति के स्वरूप और भाषा का है ही नहीं। भारत में डॉनल्ड ट्रंप की शैली की राजनीति का विचार ही डराने वाला है। एक पूर्ण राज्य और केंद्र के बीच ऐसा ही टकराव संवैधानिक संकट और अराजकता की ओर ले जा सकता है। आप के एक वरिष्ठï नेता का ताजा कथन याद कीजिए जिसमें उन्होंने दिल्ली पुलिस को चेतावनी देते हुए कहा कि वह अपने कदमों को लेकर सावधान रहे क्योंकि भविष्य में पंजाब पुलिस उसके खिलाफ मामले दर्ज कर सकती है। गौरतलब है कि पंजाब में आगामी विधानसभा चुनाव में आप के जीतने की उम्मीद है।
यही कहने का मन करता है कि ऐसा कुछ नहीं होगा और एक आम राजनीतिक जुमला है। लेकिन यह बात आश्वस्त होकर नहीं कही जा सकती। पाकिस्तान में जब बेनजीर भुट्टो की सरकार सत्ता में थी तब पंजाब में नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने उनके एक मंत्री के खिलाफ फौजदारी का मामला दर्ज किया था। मंत्री इस्लामाबाद में सुरक्षित था क्योंकि वह संघ शासित राजधानी क्षेत्र है। लेकिन इस्लामाबाद शहर से हवाई अड्डे का रास्ता पंजाब के अधिकार क्षेत्र में आता था जहां मंत्री को गिरफ्तार किया जा सकता था। ऐसे में अगर उनको कोई उड़ान पकडऩी होती तो हेलीकॉप्टर से हवाई अड्डे तक जाना होता। उस समय यह चुटकुले सुनने को मिलता था कि राज्य पुलिस ने मुजाहिदीन से स्टिंगर मिसाइल खरीदी है। एक संवैधानिक संकट या निष्क्रियता एक तरह की अराजकता ही है। संघीय व्यवस्था में शक्तियों का बंटवारा इस धारणा पर काम करता है कि इनका प्रयोग समझदारीपूर्वक किया जाएगा। आप सत्ता में रहकर निरंतर लड़ाई नहीं कर सकते। केजरीवाल कह सकते हैं कि मोदी सरकार ने उनको इस स्थिति में पहुंचाया है। परंतु वह भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। उन्होंने देश में राजनीति की प्रकृति को पूरी तरह बदलने का वादा किया था लेकिन फिलहाल स्थिति एकदम उलट है। हम जिस संस्थागत राजनीतिक शांति और सहजता की उम्मीद कर रहे थे वह नदारद है।
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