अगर हम तेजी से पनपती इस धारणा का विरोध करें कि कांग्रेस पार्टी मृतप्राय है? अगर इसके बजाय हम कहें कि कांग्रेस पार्टी अब एक नहीं बल्कि दो दलों में बंट चुकी है तो? दरअसल उनके बीच का कटु शक्ति संघर्ष ही यह तय करेगा कि पार्टी में नई जान आएगी, वह मरेगी या पुन: मजबूती से उभरेगी। एक कांग्रेस वह है जिसे हम अधिकांश समय देखते रहे हैं। समाचार चैनलों पर, अखबारों के संपादकीय और विचार आधारित पन्नों पर, नई दिल्ली के लोधी गार्डन और इंडिया इंटरनैशनल सेंटर जैसी जगहों पर भी उससे जुड़े लोगों को देखा जा सकता है। इस वर्ग के अधिकांश लोगों ने राज्य सभा में जगह सुरक्षित कर ली है। जो वास्तव में ताकतवर हैं वे लगातार अपने तीसरे या चौथे कार्यकाल में हैं। उनमें से अधिकांश ने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा है। जबकि अन्य ने एक दशक पहले हारने के बाद दोबारा चुनावों का रुख नहीं किया। पार्टी की आंतरिक निर्णय प्रक्रिया वाली संस्थाओं मसलन कांग्रेस कार्य समिति आदि में उनका दबदबा है।
अहम बात यह है कि तुगलक लेन स्थित छोटे और जनपथ स्थित बड़े दरबार में भी उनकी जबरदस्त पैठ है। अगर आप उनका महत्त्व जानना चाहते हैं तो उन टीवी चैनल कर्मियों से पूछिए जो इन दो स्थानों पर तैनात रहते हैं। उनसे पूछिए कि इन स्थानों पर आते जाते इन नेताओंं की भावभंगिमा कैसी महत्ता से भरी रहती है। दूसरी कांग्रेस दूरदराज इलाकों में है। वे इलाके जो दिल्ली दरबार के लोगों की नजर और दिमाग दोनों से दूर हैं। यह वह पार्टी है जिसकी सात राज्यों में सरकार है और दूसरे वे नेता हैं जो अभी भी राज्यों में पार्टी के वोट बैंक को जोड़े हुए हैं। हकीकत में चूंकि पूर्वोत्तर के राज्य बहुत छोटे हैं तो केवल तीन ही राज्यों में पार्टी के मुख्यमंत्रियों को गिना जाना चाहिए। ये हैं कर्नाटक में सिद्धरमैया, हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह और उत्तराखंड में हरीश रावत। आप पूछ सकते हैं कि इनको इतनी अहमियत क्यों दी जाए क्योंकि इन राज्यों से तो केवल 37 सांसद लोकसभा में आते हैं। अगर आपको याद दिलाया जाए कि कांग्रेस में केवल 37 सांसद हैं तो शायद आप इस बात को दूसरी तरह देखेंगे। महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण, जैसे नेता हैं जो अभी अपने घाव सहला रहे हैं। पंजाब में अमरिंदर सिंह को कुछ पता नहीं है कि कौन आ या जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, हरियाणा, छत्तीसगढ़ और झारखंड में लगभग कोई नहीं बचा है। इनमें से प्रत्येक ने दिल्ली दरबार में अपनी बेहतरीन पुरानी प्रतिभाएं भेजी हैं। अक्सर हुआ यह कि उनके नेतृत्व में पार्टी के सफाये के बाद ये नेता दिल्ली कूच कर गए। उनकी प्रतिभा इतनी मूल्यवान है कि उसे चुनावी मैदान में जाया नहीं किया जा सकता है और अपने राज्यों में और किसी को पनपने नहीं देंगे।
आज की कांग्रेस पार्टी की तुलना मुंबई इंडियंस की आईपीएल टीम से की जा सकती है। उस टीम में भारी भरकम वेतन भत्ते वाले वरिष्ठ और जानेमाने खिलाडिय़ों की भरमार है जो खेलते नहीं लेकिन टीम के गिरते प्रदर्शन के बीच ज्ञान अवश्य देते हैं। एक रोचक प्रश्न: मध्य प्रदेश मेंं जहां पार्टी को लगातार तीन पराजय के बाद चुनाव जीतकर वापसी की अपेक्षा करनी चाहिए, वहां पार्टी के तीन सबसे ज्यादा नजर आने वाले नेता कौन हैं? क्या यह बताने की जरूरत है कि दिल्ली में मध्य प्रदेश का सबसे प्रमुख राष्ट्रीय कांग्रेस नेता कौन है? राजस्थान भी अपवाद नहीं है। पार्टी ने ऐसे किसी राज्य में भी किसी को सशक्त बनाने की जरूरत नहीं समझी जहां वह वापसी कर सकती है। यहां तक कि केरल में भी पूरी शक्ति ए के एंटनी के पास है जो राज्य सभा में स्थायी रूप से हैं और दरबार के सबसे अंदरूनी हिस्से में शामिल हैं। आप अनुमान लगा सकते हैं कि उनको शायद उनकी सलाह के लिए इतनी अहमियत दी जाती होगी। सलाह भी क्या, कुछ न करने या निष्क्रिय रहने की। बेचारे उम्मेन चांडी शायद सच न बोलें लेकिन उनसे पूछिए इटली के नौसैनिकों को पकडऩे और शराबबंदी जैसे दो मूर्खतापूर्ण निर्णयों के साथ उनकी सरकार को समस्या में किसने डाला? लेकिन दिक्कत यह है कि दूसरी कांग्रेस या कहें कांग्रेस-बी को कांग्रेस-ए से प्रश्न करने का अधिकार ही नहीं है।
आपको लगता है मैं बढ़ाचढ़ाकर बात कर रहा हूं। अमरिंदर सिंह से पूछिए क्या कमलनाथ को राज्य का प्रभारी बनाने से पहले उनसे पूछा गया। उनको एक मूर्खतापूर्ण निर्णय का बचाव करना पड़ा जिसे बाद में पलट दिया गया। पंजाब को कमोबेश आम आदमी पार्टी को तोहफे में पेश कर दिया गया है। उनसे पुन: पूछिए क्या राज्य से राज्य सभा जाने वाले दरबारियों का चुनाव करते वक्त उनसे पूछा गया? उनमें इतनी बहादुरी है कि वे इसका उत्तर न में दे सकें। सार्वजनिक टिप्पणियों के बावजूद उनकी पसंद की अनदेखी की गई।
इस हफ्ते की शुरुआत में कांग्रेस के एक क्षत्रप (इसके बारे में आपको अगले हफ्ते मालूम पड़ेगा) ने मुझे वास्तव में बड़े कांटे की बात बताई। उन्होंने कहा कि उन्हें दिल्ली दरबार में बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता क्योंकि ‘मैं महज एक फील्ड जनरल हूं, फील्ड मार्शल नहीं।’ इसे तफसील से समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। फिर भी बता दें कि जो जमीनी स्तर पर काम करते हैं, मतदाताओं को लुभाते हैं, सीटें दिलाते हैं, उनकी आवाज को कोई तवज्जो नहीं दी जाती। पार्टी मुख्यालय में औपचारिक पदों पर बैठे मठाधीश उनकी तकदीर का फैसला करते हैं। ‘फील्ड जनरलों’ को अपने राज्यों में विधानसभा की भरपूर सीटें जीतनी होती हैं ताकि मठाधीशों को राज्य सभा भेजा जा सके। उन्हें नहीं बताया जाता कि ये सीटें किन्हें तोहफे में दी जा रही हैं या वे कुछ कहते हैं तो उसे दरकिनार कर दिया जाता है। आप सिद्घरमैया से पुष्टि कर सकते हैं। वह शायद बताएंगे कि यहां तक कि भाजपा को अपनी राज्य इकाई को ज्यादा गंभीरता से लेना पड़ा अन्यथा नरेंद्र मोदी सरकार के मंत्रियों में काफी मुखर रहने के बावजूद निर्मला सीतारामन को अपना राज्य बदलने पर मजबूर नहीं होना पड़ता। कांग्रेस अब इसलिए दम तोड़ रही है क्योंकि उसकी दूसरी पांत विद्रोह का बिगुल बजा रही है। जगन मोहन रेड्डïी, हिमंत विश्व शर्मा, अजित जोगी और ऐसे ही विद्रोहियों की फेहरिस्त बढ़ती जा रही है। आने वाले महीनों में यह और बढ़ेगी। वे एक जैसी शिकायतें करेंगे, हालांकि हिमंत अपनी बात काफी मुखरता से कहते हैं, जब वह अपने पार्टी के पुरोधाओं पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का अरोप लगाते हैं।
भाजपा ने कांग्रेस का दामन छोड़कर उसके पाले में आने वाले कांग्रेसी नेताओं में हिमंत और उत्तराखंड से विजय बहुगुणा को पिछले हफ्ते अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल किया। प्रत्येक नेता उसी सिक्के के दूसरे पहलुओं से आपको अपनी कहानी सुनाता है। हिमंत ने पार्टी इसलिए छोड़ दी क्योंकि उन्हें पर्याप्त सम्मान मिलता नहीं दिखा और असम में भी वंशवाद की दूसरी फलती बेल को देखते हुए उन्हें भविष्य भी नजर नहीं आ रहा था। बहुगुणा को बाहर से थोपा गया था, उनकी इकलौती उपलब्धि उनके परिवार की जड़ें हैं कि वह स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा के बेटे और रीता बहुगुणा जोशी (जो उत्तर प्रदेश में पार्टी की प्रमुख नेता हैं) के भाई हैं। उन्हें हरीश रावत जैसे ‘फील्ड जनरल’ को किनारे करते हुए मुख्यमंत्री बनाया गया, जो अभी भी अपने पूरे तेवर दिखा रहे हैं। पिछले हफ्ते विभिन्न टेलीविजन चैनलों को दिए जयराम रमेश के साक्षात्कारों को देखने के बाद मैंने एक बात पकड़ी। राज्य के इन नेताओं ने कांग्रेस का साथ क्यों छोड़ दिया? उन्होंने बताया कि इन नेताओं की निजी महत्त्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ गई थीं और जब उन्हें लगा कि पार्टी उनकी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकती तो उन्होंने पार्टी छोड़ दी। अब आप चाहे इसका विस्तृत जवाब तैयार करें करें या फिर देवी लाल और चौटाला की पिता-पुत्र की जोड़ी के एक सार्वजनिक बयान का संज्ञान लें, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘अरे भाई, हम राजनीति में क्या धर्म-कर्म या तीर्थयात्रा करने के लिए आए हैं?’
हरियाणा की ही बात करें तो यह पड़ताल करनी होगी कि आखिर क्या वजह रही कि स्वर्गीय भजनलाल के बेटे कुलदीप विश्नोई ने पार्टी में वापसी की। इसमें कौनसे परोपकार या पुरानी स्मृतियों की भूमिका रही। और अगर राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं इतनी बुरी चीज हैं और कांग्रेस इतना त्याग करने वाली पार्टी है तो उन्होंने ऐसा क्यों स्वीकार किया और अपने वफादार नेताओं को अपनी कृपा से क्यों महरूम रखा? तब आप यह पूछिए कि आपका उम्मीदवार राज्यसभा चुनाव में कैसे हार गया। अगर यही रफ्तार रही तो आपके हाथ से बचे हुए सूबे भी निकल सकते हैं।