भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हर जीत का श्रेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को दिया जाता है। यद्यपि हम जानते हैं कि वर्ष 2014 में आरएसएस ने मदद भले ही की हो लेकिन यह जीत दरअसल नरेंद्र मोदी की थी। ठीक वैसे ही जैसे सन 1998-99 की सफलता अटल बिहारी वाजपेयी की बदौलत थी। मजेदार बात यह है कि सन 1984 में राजीव गांधी की विशालकाय जीत के वक्त भाजपा के दो सीटों पर सिमटने के पीछे भी यही वजह बताई जाती है कि आरएसएस के समर्थक कांग्रेस की ओर चले गए थे। बहरहाल मेरे ख्याल से आरएसएस अब अपनी पहली राजनीतिक जीत का आनंद ले सकता है। फिर असम चुनाव के नतीजे चाहे जो हों।
असम में भाजपा जीते या हारे लेकिन वह तीन दशक पहले जहां अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी, वहीं आज सत्ता की दावेदार है। आरएसएस के हजारों प्रतिबद्घ कार्यकर्ता और प्रचारक तथा नीतिकार वहां अवश्य थे जो देश के अलग-अलग हिस्सों से आए थे। उन्होंने वहां अपनी विचारधारा का बीज किस प्रकार बोया, कैसे उन्होंने अत्यंत लोकप्रिय असम आंदोलन को अपना और उसकी जातीय भावना को मुस्लिम विरोध में बदल दिया। इस तरह भाजपा के लिए जमीन तैयार की और स्थानीय नेतृत्व तैयार किया जो पहले मौजूद नहीं था।
भाजपा अब न केवल दावेदार है बल्कि उसने बोडो जनजाति के साथ अप्रत्याशित गठजोड़ किया है। उसने क्षेत्रीय नेताओं में से श्रेष्ठï को अपने साथ जोड़ा। इनमें से कुछ असम गण परिषद से तो अन्य कांग्रेस से थे। सच यह है कि इनमें से किसी का अतीत में आरएसएस या संघ परिवार से कभी कोई ताल्लुक नहीं रहा। जयनाथ सरमा ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) में आरएसएस के पहले ‘घुसपैठिये’ थे। वह संगठन की हिंसक शाखा के प्रमुख थे और उन पर हिंसा के कई मामले थे। इस बार वह कांग्रेस प्रत्याशी हैं। आसू के नेतृत्व में हुए असमिया आंदोलन के बाद सन 1985 में राजीव गांधी के साथ शांति समझौता हुआ और असम गण परिषद सामने आई। अब वह सहयोगी भूमिका में है और इसका श्रेय आरएसएस को जाना चाहिए। मैंने ब्रह्मïपुत्र के तट पर टहलते हुए इसके मायने समझने की कोशिश की। मैंने याद किया कि कैसे अन्य संवाददाताओं के समान मैं भी शुक्रेश्वर मंदिर जाता और वहां रहस्यमयी मुस्कान वाले एक शख्स से मिलता। यह कुमुद नारायण सरमा थे जो इस मंदिर पर पीढ़ी दर पीढ़ी काबिज थे। वह गुवाहाटी विश्वविद्यालय में विधि विभाग के डीन भी थे और यहीं रहते थे। उनकी प्रसिद्घि की वजह उनकी विद्वता नहीं बल्कि उनके प्रिय छात्र और आसू के नेता थे जिनके वह औपचारिक सलाहकार थे। हर कोई इस बात से सहमत था कि आसू के मुख्य वार्ताकार में कुछ तो अजीब था जिसने तत्कालीन गृहमंत्री जैल सिंह को नाराज कर दिया था। पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता लेकिन आरएसएस से उनके गहरे संबंधों के संकेत रहे। उनकी आम रिहाइश और अकूत ताकत के प्रबंधन की उनकी सहजता इसकी गवाह है। जैल सिंह और उनके जासूस तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें और उनके साथियों को डिगा नहीं सके।
इस सप्ताह जब मैं आसू के पूर्व नेता (पूर्व उल्फा कार्यकर्ता) से कांग्रेसी और अब भाजपा के प्रमुख नेता बन चुके हेमंत बिस्व सरमा के साथ उसी इलाके में था तो पुन: उनका जिक्र निकला। गोगोई सरकार में बिस्व सरमा की हैसियत नंबर दो की थी और वह राजनीतिक नेटवर्किंग के मामले में कांग्रेस के प्रमोद महाजन माने जाते थे। मीडिया क्षेत्र में भी उनकी तगड़ी हैसियत है। गत वर्ष अगस्त में वह भाजपा में शामिल हो गए क्योंकि वह गोगोई के बेटे को मिल रही तवज्जो से हताश थे। उनकी आसू से भाजपा तक की यात्रा आरएसएस की कुशलता की कहानी कहती है।
सरमा 12 वर्ष की उम्र में आसू में शामिल हुए थे। उस वक्त राज्य में अशांति बढ़ रही थी, जाहिर है वह उल्फा की ओर उन्मुख हो गए। वह असम के इतिहास का काला दौर है जब अपहरण, फिरौती, बमबारी, मुठभेड़ और पुलिस तथा उसकी निगरानी समिति के लोगों ने गुप्त हत्याएं कीं। सरमा का मोहभंग हुआ और वह कांग्रेस में आ गए। उन्होंने भृगु फुकन को चुनौती दी जो प्रफुल्ल मोहंती के लिए वही हैसियत रखते थे जो केजरीवाल सरकार में मनीष सिसोदिया की है। 2001 के जालुकबाड़ी विधानसभा क्षेत्र से उन्होंने फुकन को हरा दिया। आसू की कर्मभूमि गुवाहाटी विश्वविद्यालय परिसर इसी क्षेत्र में था और कांग्रेस पहले कभी यहां जीत नहीं सकी थी।
उनके भाजपा में जाने से कांग्रेस की संभावनाओं को झटका लगा। सरमा कहते हैं कि उनका दिल अभी भी कांग्रेसी है। भाजपा या आरएसएस से उनका कोई संबंध कभी नहीं रहा। इसी तरह भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार सर्वानंद सोनोवाल कह सकते हैं कि उनके भीतर आसू कार्यकर्ता का दिल धड़कता है। बल्कि असम का हर दूसरा भाजपा नेता ऐसा कह सकता है। पार्टी का पूरा नेतृत्व ही आसू से निकले नेताओं से बना है जबकि एक बड़ा नेता कांग्रेस से है। इसका वैचारिक शुद्घता से कोई संबंध नहीं। अगर भाजपा असम में जीतती है तो आप कह सकते हैं कि उसके दो तिहाई मंत्रियों का आरएसएस से कोई संबंध नहीं होगा।
असम का आंदोलन जातीय प्रभाव वाला था। इसकी शुरुआत बाहरियों के विरोध से हुई। खास निशाने पर मुस्लिम और हिंदू बंगाली तथा मारवाड़ी रहे। आरएसएस को इसमें फायदा दिखा लेकिन यहां उसे जातीयता और धर्म के विरोधाभास से निपटना था। मैंने सन 1984 में आई अपनी पुस्तक ‘असम: अ वैली डिवाइडेड’ में के एस सुदर्शन से हुई उस बातचीत का जिक्र किया है जो मैंने सन 1982 में की थी। वह उस वक्त आरएसएस के बौद्घिक प्रमुख थे और आगे चलकर सरसंघचालक बने। उन्होंने इस बात पर हताशा जताई थी कि हिंदू और मुस्लिम दोनों बंगालियों पर हमला किया जा रहा है। वह बार बार कहते कि हिंदू तो असुरक्षित हैं। उनका कहना था कि बांग्लादेशी हिंदू अगर सटे हुए भारतीय प्रदेश में नहीं आएंगे तो कहां जाएंगे। सोनोवाल मुझसे कहते हैं कि आरएसएस के बड़े योगदान में से एक था असम आंदोलन की राष्ट्रीय छवि बदलना। उसे राष्ट्रविरोधी माना जाता था क्योंकि मुख्यभूमि को तेल की आपूर्ति रोकी जाती थी। आंदोलन के नेताओं ने आरएसएस को मित्र मानना शुरू कर दिया। आरएसएस ने धैर्यपूर्वक काम किया। मेरा मानना है कि उसने धीरे धीरे मुद्दे को बदला और बाहरी विरोध धीरे से बाहरी मुस्लिम विरोध में बदल गया। पूरा मामला अब ‘मियां मानुस’ के विरोध का बन गया।
मौलाना बदरुद्दीन अजमल के उभार ने आरएसएस की मुराद पूरी कर दी। मुस्लिम, खासतौर पर प्रवासी मुस्लिम उनकी ओर एकजुट हुए। कांग्रेस का वोट बैंक प्रभावित हुआ। कांग्रेस भ्रमित हो गई कि मौलाना से गठजोड़ करे या नहीं। बहरहाल कांग्रेस बच गई क्योंकि गोगोई की छवि शांति, आर्थिक प्रगति और विश्वास जगाने वाली है। इसके अलावा अगप में कई बार बंटवारा हो गया। ऐसे में मूल असमिया वोट बंट गए और कांग्रेस सहजता से मुस्लिम, जनजातियों, असमिया हिंदुओं, बागान मजदूरों, बंगाली हिंदुओं और गोगोई की बिरादरी के अहोम तथा पांच अन्य उपजनजातियों को साथ लाने में सफल रही। आरएसएस ने दशकों तक इन लोगों के बीच काम कर समीकरण बदल दिया।
मोदी शाह गठजोड़ और आरएसएस के वैचारिक लचीलेपन के बीच यह तय किया गया कि नया नेतृत्व तैयार करने के लिए असम गण परिषद का पूरा असमिया नेतृत्व चुरा लिया जाए। वर्ष 2014 में सोनोवाल समेत भाजपा के अधिकांश लोकसभा प्रत्याशी अगप से आए थे। ध्रुवीकरण के बीच अजमल का रुख आक्रामक हो चला था और कांग्रेस का आधार बुरी तरह खिसक गया। पार्टी को केवल एक सीट मिली।
गोगाई कमजोर पड़े और आरएसएस भाजपा ने सरमा को चुराकर पार्टी को एक और झटका दिया। राम माधव ने उनसे संपर्क किया और काम बन गया। कांग्रेस अभी भी तय नहीं कर पा रही कि अजमल के साथ साझेदारी करे या मुकाबला करे। इस बीच राज्य में एक नई राजनीतिक शक्ति का उदय हुआ है। जिसका नेतृत्व उधार का है और जो बहुसंख्यकों के भय का दोहन कर रही है। आरएसएस के इस अभियान की श्रेष्ठïता यही है कि उसने गैर आरएसएस नेतृत्व के साथ दबदबा कायम किया। यही वजह है कि असम में भाजपा का उदय ही उसकी जीत है।