सियाचिन में एक और त्रासदी के बावजूद पाकिस्तान के साथ उक्त विवाद का निस्तारण तब तक संभव और समझदारी भरा नहीं होगा जब तक कि वह हालात सामान्य करने की किसी बड़ी योजना का हिस्सा न हो।
आप देवानंद के प्रशंसक हों या नहीं लेकिन आप यह स्वीकार करेंगे कि बतौर फिल्मकार उन्होंने अक्सर ऐसे विषय चुने जो समय से आगे थे। सन 1965 में आई उनकी क्लासिक फिल्म गाइड में बॉलीवुड इतिहास का सबसे चर्चित विवाहेतर संबंध दर्शाया गया। सन 1970 में आई फिल्म प्रेम पुजारी में उन्होंने एक ऐसे सैन्य अधिकारी की भूमिका निभाई जिसे कोर्ट मार्शल कर सेना से निकाल दिया जाता है क्योंकि उसने शत्रु के समक्ष कायरता दिखाई थी। देवानंद का यह दृश्य सिक्किम के नाथुला पर आधारित था जहां सन 1967 में सैन्य झड़प हुई थी।
फिल्म के दृश्य में लेफ्टिनेंट रामदेव बख्शी (देवानंद) का स्थानीय पालतू श्वान सीमा पर चला जाता है और उसे गोली लग जाती है। देवानंद उसका शरीर थामे शोकग्रस्त खड़े हो जाते हैं और बदले में गोली चलाने से इनकार करते हुए कहते हैं, ‘वो गोली चलाएंगे, मैं गोली चलाऊंगा, फिर वो गोली चलाएंगे…कब खत्म होगा यह सिलसिला।’ चूंकि फिल्म में बख्शी की भूमिका देवानंद निभा रहे हैं इसलिए वह भारत के लिए जासूसी करते हैं और आखिरकार अपने परिवार का सैन्य स्वाभिमान वापस लाते हैं। इस क्रम में वह पंजाब के अपने गांव में पाकिस्तानी टैंकों की एक पूरी रेजिमेंट को परास्त करते नजर आते हैं।
आखिर बीते गुरुवार को सियाचिन के सालतोरो में 10 जवानों की मौत ने मेरे मन में इस फिल्म के पुराने दृश्य क्यों पैदा किए और उनमें दूर की समानता स्थापित करने का दबाव क्यों बनाया जबकि ऐसी कोई समानता है नहीं। इसलिए क्योंकि पिछले 32 वर्षों से सियाचिन की यही स्थिति है। जब 32 साल पहले हमारी सेना ने वहां अपना घर बनाया तब पहले झटके में हमारे 30 जवानों की पूरी टुकड़ी को बर्फ की दरार निगल गई। उसके बाद पाकिस्तान ने भी विफल प्रयास किए और उसे भी ऐसी ही नियति का सामना करना पड़ा। वहां सैनिकों को ऊंचाई पर होने वाली बीमारियां भी झेलनी पड़ीं। इसके बाद हमें कुछ और नुकसान सहना पड़ा, उनको भी। इस दौरान एक बड़ी त्रासदी तब हुई जब वर्ष 2012 में हिमस्खलन की एक घटना में पाकिस्तानी सेना का गायरी स्थित पूरा आधार शिविर ही खत्म हो गया। इस दौरान 129 जवान और 11 नागरिक बर्फ में दफन हो गए। इनमें से अधिकांश रक्षा क्षेत्र के ठेकेदार थे। दोनों क्षेत्रों ने अलग-अलग दावे किए। भारत अब तक सियाचिन में 900 जानें गंवा चुका है जबकि पाकिस्तान का आंकड़ा भी ज्यादा अलग नहीं होगा। दोनों का कहना है कि इनमें से 90 फीसदी जानें दुश्मन की गोली से नहीं बल्कि प्रकृति की मार से गई हैं।
प्रेम पुजारी के नाथुला की जगह सियाचिन को रखकर देखिए…संवाद में ज्यादा अंतर नहीं आएगा। यह संबंध तमाम सैन्य दुष्चक्रों में सबसे बुरा है। सियाचिन में पिछले 14 सालों से एक दूसरे पर क्रोधित होकर गोलाबारी नहीं की गई है। वर्ष 2002 का युद्घ विराम कायम है। लेकिन वहां जानमाल का नुकसान जारी है। हालांकि बेहतर तैयारी के कारण इनमें भी कमी आई है।
दोनों सेनाएं इस क्षेत्र को सम्मान का प्रश्न मानती हैं। आपने कभी किसी भारतीय या पाकिस्तानी सैनिक को यह कहते नहीं सुना होगा कि अब इस मजाक को बंद भी करो। हमें सच में नुकसान हो रहा है। पहली बात तो यह सैनिक के कद की बात नहीं होगी और दूसरी यह मान्यता है कि दूसरे पक्ष को अधिक नुकसान हो रहा है। हम इस बात से संतुष्टï हो लेते हैं जब से हम यहां आए हैं पाकिस्तान हमें एक इंच भी खिसकाने में कामयाब नहीं हो सका। गौरतलब है कि वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी ने जो दो बड़े सैन्य कदम उठाए उनमें से एक सियाचिन में सेना की स्थापना (और दूसरा ऑपरेशन ब्लू स्टार) है। भारत ने इस दौरान बाना चौकी के निकट रिज पर एक जगह अपना कब्जा किया है। यह हादसा वहीं पास में हुआ। सोच यह है कि अगर पाकिस्तान को अधिक नुकसान हो रहा है तो शांति की मांग उसे ही करने दी जाए।
पाकिस्तान से भी आपको यही सुनने को मिलेगा। वे कहेंगे कि ठीक है भारतीयों के पास पहाड़ी ऊंचाई है लेकिन वे बेवकूफ अपने आधार शिविर से दूर मौसम के हाथों जान गंवा रहे हैं। तो ठीक है उन्हें थकने दो वे खुद ब खुद समझ जाएंगे। दोनों सेनाएं गौरव के साथ इसे दुनिया का सबसे ऊंचा युद्घ क्षेत्र करार देती हैं। उन्होंने सियाचिन में तैनात होने वाले सैनिकों के लिए अलग मेडल तय किए हैं। सीमा के दोनों ओर रेजिमेंट्स में ग्ल्ेशियर पर तैनाती की होड़ लगती है। हर सैन्य टुकड़ी यहां आना चाहती है तो भला बहादुरी के इस पारस्परिक क्रम को तोडऩा ही क्यों?
मेरी स्मृृति के मुताबिक सन 2012 में मैंने पाकिस्तानी जनरल परवेज अशरफ कयानी जैसे वरिष्ठï सैनिक को गायरी में हुई त्रासदी पर दुख जताते देखा था। हमारे यहां इस मोर्चे पर कोई खास संवेदना या समझ नहीं नजर आई। ठीक उसी तरह जैसे इस सप्ताह बचाव और खोज अभियान में पाकिस्तानी मदद की पेशकश को सपाट ढंग से ठुकरा दिया गया। इस इनकार में यही भाव निहित था कि तुम हमारी क्या मदद करोगे? जहां तुम हो वहां से तो ग्लेशियर नजर भी नहीं आता!
सियाचिन को लेकर मैं एक निजी दावा कर सकता हूं। अप्रैल 1984 में सबसे पहले मैंने इंडिया टुडे में इसका खुलासा किया था। लेकिन उससे पहले सन 1982 में जयदीप सरकार द टेलीग्राफ में विस्तार से लिख चुके थे कि कैसे कराकोरम पहाडिय़ों पर दोनों देशों के बीच व्यापक संघर्ष छिड़ा है परंतु वह सीमित था। सन 1984 के जाड़ों में भारतीय सेना ने उस पूरे क्षेत्र को अपना घोषित कर दिया। मेरा खुलासा एकदम स्पष्टï है: चूंकि मैंने यह खबर सबसे पहले लिखी और फिर वर्षों तक इससे जुड़ी घटनाओं को बतौर संवाददाता कवर किया। तो मुझे अच्छी तरह पता है कि दोनों पक्षों के जवानों ने बिना शिकायत किस दर्जे की क्रूर परिस्थितियां सहन कीं। यह सब देखकर मैं यह मानने लगा था कि यह निरर्थक युद्घ है और हम इससे जितनी जल्दी अलग हो जाएं उतना ही अच्छा होगा, बशर्ते भारत यह सुनिश्चित कर सके कि पाकिस्तान दोबारा यहां नहीं आएगा। मैं सन 1989 की वार्ता के समय भी मौजूद था। वह आखिरी मौका था जब हम सियाचिन का मुद्दा निपटाने की स्थिति में थे। वह वार्ता अंतिम समय में गहरी निराशा के बीच टूट गई थी। सन 1989 के बाद लंबे समय तक लेफ्टिनेंट बख्शी की भांति यह सवाल उठता रहा कि आखिर कब खत्म होगा यह सिलसिला?
मुझे डर है कि अब ऐसा नहीं है। मैं यह उस समय कह रहा हूं जबकि मैं इस सप्ताह अपने सैनिकों की जान जाने से अत्यंत दुखी हूं और उनकी बहादुरी को सलाम करता हूं। कुछ वर्ष पहले शायद मैंने कहा होता कि ऐसी ही वजहों के चलते हमें सियाचिन का मसला सुलझा लेना चाहिए। आज मैं ऐसा नहीं करूंगा क्योंकि सन 1989 से आज तक दोनों देशों के बीच विश्वास पूरी तरह समाप्त हो चुका है। सन 1989 ही वह वर्ष था जब पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने कश्मीर में अफगान नीति अपनाकर भीषण रक्तपात की शुरुआत की। बाद में यह सिलसिला पूरे भारत में फैला। अब स्थानीय और क्षेत्रवार समझौते या किसी स्थान विशेष से सेना हटाना न तो संभव है, न ही यह समझदारी होगी। इसके पहले स्थितियों का व्यापक रूप से सामान्य होना आवश्यक है। तब तक सियाचिन पर काबिज न हो पाना पाकिस्तानी सेना के लिए शर्मिंदगी का सबब बना रहेगा। उनको इस शर्मिंदगी के साथ जीने दिया जाए। हमारी सेना के कंधे यह चुनौती उठाने के लिए पर्याप्त मजबूत हैं। 27 वर्ष से चल रहे छाया युद्घ से मेरा दिमाग बदल गया है। लेफ्टिनेंट रामदेव बख्शी और प्रेम पुजारी के बारे में सोचने की एक वजह यह भी है।