पिछले दो दशक से हम देशभर में- और कभी-कभी पड़ोस में भी- घूमते रहे हैं और ‘दीवार पर लिखी इबारत’ रूपक का उपयोग करते रहे हैं. ये दौरे जरूरी नहीं कि चुनावों के दौरान किए गए हों. दीवार पर लिखी इबारतों को अगर आप आंख-कान-नाक-दिमाग खुले रखकर पढ़ें, तो प्रायः आप पढ़ सकते हैं कि लोगों के दिमाग में क्या चल रहा है; क्या कुछ बदल रहा है और क्या नहीं बदल रहा है और क्यों नहीं बदल रहा है. ये इबारतें हमेशा नहीं, तो प्रायः बता देती हैं लोग किसे वोट देना चाहते हैं या किसके खिलाफ वोट डालना चाहते हैं.
गुजरात में चुनाव के दौरान हमने पिछली बार 2012 में दौरा किया था (द मोदी स्कूल ऑफ मार्केटिंग और मेयरली ऐंग्री, लेफ्ट-सेकुलर एक्टिीविज्म कांट डिफीट मोदी) और हमने गौर किया था कि और जगहों के मुकाबले नरेंद्र मोदी के गुजरात में आपको उन ‘दीवारों’ को पढ़ने की जरूरत ज्यादा है जो पारंपरिक दीवार नहीं हैं, जिन पर आप चित्रों या विज्ञापन देखते हैं.
गुजरात में 2012 में हमने पाया कि दीवार का अर्थ अलग है. ये दीवारें राजमार्गों के दोनों ओर बने कारखानों की धूसर या सफेद रेखा के रूप में थी, या पानी से लबालब नहरों के रूप में थी. विमान में उड़ते हुए अगर आपको नीचे जमीन पर छोटे-छोटे जलाशयों या रोक-बांधों की कतार दिखे तो मान लीजिए कि आप गुजरात में हैं. इन ‘दीवारों’ पर नरेंद्र मोदी की अजेयता का सदेश लिखा था.
मोदी के राज में गुजरात के बारे में महत्वपूर्ण बात यह थी कि वहां आर्थिक स्थिति या रोजगार को लेकर तनाव नहीं दिखता था, ‘दूसरों’ की अमीरी पर कोई असंतोष और निराशावाद नहीं था. आज इस स्थिति में बदलाव आ गया है. लेकिन इतना तो निश्चित है कि वहां ऐसी हताशा या निराशा नहीं है, जैसी हमने पिछले चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश, खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में देखी थी. लेकिन गुजरात में नाराजगी तो है और युवा इसे छिपा नहीं रहे हैं. गांवों में ऐसे नजारे दिखे, जैसे बंगाल में आम हैं. बेरोजगार युवक झुंड के झुंड यहां-वहां बीड़ी-सिगरेट पीते, मोबाइल फोन में व्यस्त या ताश खेलकर समय काटते दिखे. वे बंगाल के युवाओं जितने गरीब नहीं हैं, प्रायः उनके पास मोटरसाइकिल होती है. लेकिन वे बेरोजगार हैं, उनमें से कई तो अस्थायी रोजगार कर चुके हैं. टाटा के नैनो वाले क्षेत्र के चरल गांव में हमें युवाओं के दो झुंड नरेंद्र मोदी के भाषणों की मजाकिया नकल करते और अपनी किस्मत को कोसते नजर आए. बेशक इनमें पाटीदारों की संख्या ज्यादा है इसलिए एक खास तरह का गुस्सा दिख सकता है लेकिन यह गुजरात का आम, परिचित नजारा नहीं है.
अगर आप यह जानना चाहते हैं कि यह कहां से आ रहा है, तो अहमदाबाद की दीवारों को देखें. किसी भी चौड़ी सड़क के किनारे की दीवारों को देखें- उन पर ऐसे विज्ञापन दिख जाएंगे, जो पंजाब या देश के दूसरे हिस्सों में भी तेजी से उभर रहे हैं. ये विज्ञापन विदेश में खराब किस्म की शिक्षा के लिए आसान एडमिशन पाने की सूचनाएं देते हैं. ऐसे कुछ विज्ञापन पहले भी गुजरात में दिख चुके हैं लेकिन इतनी बड़ी संख्या में आज से पहले नहीं दिखे. अब तो दीवारों पर ही नहीं, छोटे-छोटे होर्डिंग, बिजली के खंभों पर लगे बोर्डों पर ये छाये हैं. खासकर पंजाब सरीखे विकसित मगर अब थक चुके क्षेत्रों के सौजन्य से गुजरात के युवा अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया को जान चुके हैं. गुजरात के लिए ये विज्ञापन इतनी बड़ी संख्या में नई चीज हैं. इन गंतव्यों की सूची में एक नया नाम भी जुड़ गया है पोलैंड का. पोलैंड को शिक्षा के ठिकाने के तौर पर नहीं जाना जाता मगर हताशा में तो आप कहीं भी जाना चाह सकते हैं.
इससे तीन बातें उभरती हैं- उच्च शिक्षा के अवसरों की कमी; उपलब्ध अवसरों का खराब, अनुपयोगी स्तर; और बेरोजगारी. पंजाब से विदेश जाने वालों में अधिकतर हताश, आर्थिक सहारे की तलाश में लगे युवा हैं. गुजरात से आम तौर पर व्यापार तथा उद्यम के लिए वे विदेश गमन करते रहे हैं. लेकिन आज यह लहर आर्थिक मजबूरी और बेराजगारी के कारण चली है.
इस हताशा का लाभ उठाकर अपनी अनूठी राजनीति चमकाने में लगे उस 24 वर्षीय युवा से हमारी मुलाकात एक निर्माणाधीन अपार्टमेंट में होती है. हार्दिक पटेल नाम का यह युवक अचानक शून्य से उभरकर गुजरात की गलियों का दूसरा सबसे लोकप्रिय नेता बन गया है. यह और बात है कि वह केवल एक जाति, पाटीदारों या पटेलों का नेता है. लाखों पटेल युवा उसकी आवाज पर आंसू गैस या गोलियों की परवाह किए बिना उसके पीछे चल पड़ते हैं. उसके जुलूसों या रोडशो में चलने पर हमें अस्सी के दशक में असम के छात्र आंदोलन की याद आ गई. उसके चाहने वाले उसके अंध भक्त हैं. वह एक पंथनेता बन चुका है. हार्दिक की मुख्य मांग है कि पटेलों को ओबीसी का दर्जा और नौकरियों में आरक्षण मिले. उसके रोडशो में आप नरेंद्र मोदी के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग सुन सकते हैं जैसी भाषा उनके घोर राजनीतिक दुश्मन भी नहीं करते, गुजरात में तो नहीं ही करते हैं. मैं तो यह वाक्य सुनकर हैरान रह गया- ‘‘देखो, देखो, कौन आया. मोदी तेरा बाप आया.’’ यह दिलचस्प जुमला 24 वर्ष के युवा के लिए है. वह छात्र राजनीति से उभरकर नहीं आया है, हालांकि उसने एक स्थानीय कॉलेज में बी.कॉम में दाखिला लिया है. वह एक तरह के पटेल खाप आंदोलन की देन है. उसका कहना है कि उसने अपनी जाति के लिए यह अभियान ‘‘अपनी बहू-बेटियों को दूसरी जातियों से बचाने के लिए’’ चलाया है. वह भीतर से घेर जातिवादी, सामाजिक रूप से रूढ़िवादी और हंगामेबाज है. लेकिन उसका दिमाग एकदम साफ है.
‘‘आप जानना चाहते हैं कि मैं इतना लोकप्रिय क्यों हूं? मेरे दादा के पास 100 बीघा जमीन थी, मेरे पास केवल दो बीघा है. बाकी जमीन का क्या हुआ? हम जमीन बेचकर जीवन चलाते रहे हैं. हरेक पटेल परिवार की यही हालत है.’’ उसका कहना है कि बिना रोजगार या व्यापार के कोई युवा शादी नहीं कर सकता. दोनो आज मुश्किल है. इसलिए लड़कों की शादी नहीं हो रही है. हार्दिक भाषण देना भले सीख रहा हो लेकिन वह इस भरोसे के साथ बोलता है कि आप उसकी प्रतिभा पर आश्चर्य करने लगे या उसका जन्म प्रमाणपत्रों जांचने के बारे में सोचने लगें.
क्या कुल 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण दिया जा सकता है? उसका कहना है कि इससे क्या फर्क पड़ता है, कोई विशेष उपाय किया जा सकता है. फिलहाल उसका एकमात्र लक्ष्य मोदी को हराने में मदद करना है, जिनकी सरकार ने उसे राज्य से निष्कासित कर दिया, उसे उदयपुर में नजरबंद कर दिया और पुलिस फायरिंग करवाकर करीब 15 पाटीदारों को मरवा दिया और एक अपरिचित महिला के साथ उसकी सेक्स सीडी जारी करवा दी. उसे यह सुनना अच्छा लगता है कि अभी उसकी उम्र चुनाव लड़ने की नहीं हुई है और वह जोर देकर कहता है कि उसे किसी पद की चाहत नहीं है. मैंने उसके कमरे में बालासाहब ठाकरे के साथ उसकी एक मढ़ी हुई फोटो देखी और उद्धव तथा आदित्य ठाकरे के साथ भी उसकी फोटो देखी. उसने आदित्य को प्रतिभाशाली बताया. बालासाहब ही क्यों? क्या तुम उन्हें पूजते हो?
आंखों में प्रशसा और आकांक्षा की चमक लिये उसने जवाब दिया कि वे कभी किसी सरकारी पद पर नहीं रहे लेकिन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक उनके साथ खाना खाने उनके घर आते थे. युवा हार्दिक पटेलों का बालासाहब बनना चाहता है. वह बिना किसी पद के गलियों में ताकतवर बनना चाहता है. उद्यम तथा व्यापार के लिए मशहूर राज्य में, जो देश में कृषि में सबसे तेजी से विकास करने वाले राज्यों में गिना जाता हो, वहां उसका उत्कर्ष एक पहेली है. लेकिन दीवारों पर लिखी इबारतें, जो शिक्षा तथा रोजगार के लिए हताशा को रेखांकित करती हैं, बता देती हैं कि यह स्थिति क्यों बनी है. बेकार की डिग्री या बिना डिग्री वाले बेरोजगार युवा गुजराती उसके उग्र सैनिक हैं.
गुजरात में थोड़ा बदलाव आया है. 2002 के मुकाबले आज आप अब ज्यादा लोगों को अपनी सरकार के खिलाफ, अपने जीवन को लेकर शिकायतें करते सुन सकते हैं, सिवा मुस्लिम बस्तियों के. अगर एक्जिट पॉल सही हैं, और वे सही होने चाहिए क्योंकि योगेंद्र यादव ऐसा कहते हैं, तो भाजपा जीतने वाली है. लेकिन इस जीत के बावजूद, नरेंद्र मोदी इतने तेज तो हैं ही कि इस असंतोष को पढ़ ले. इंडिया टुडे समूह के एक्जिट पॉल के आकड़े महत्वपूर्ण संकेत देते हैं. सभी आयुव्गों में भाजपा/मोदी आगे दिखते हैं. केवल 18-25 वाले आयुवर्ग में कांग्रेस आगे है. यह चेतावनी का संकेत है. अब तक तो युवा ही मोदी की ताकत थे. यह वर्ग अब दबाव में है, ऐर इसकी वजह भी है- शिक्षा में संकट, बेरोजगारी, मैनुफैक्चरिंग और कारोबार में गिरावट. इसी एक्जिट पॉल से साफ है कि बुजुर्गों का वर्ग मोदी/भाजपा से जुड़ा हुआ है, 60 से ऊपर के बुजुर्गों में वह सबसे लोकप्रिय है. युवा दबाव में हैं, और मोदी को पता है कि भविष्य उन्हीं के हाथ में है.
भाजपा को 2014 में 27 प्रतिशत की जो बढ़त मिली थी वह इस चुनाव में उसके काम आई है और अगर बिदकने वाले वोटरों की संख्या खासी हो तब भी उसके लिए पर्याप्त मार्जिन रहेगा. लेकिन पार्टी को ज्यादा बेहतर स्थानीय नेतृत्व और शिक्षा में सुधार करने की जरूरत होगी वरना गिरावट तेजी से हो सकती है. अगर मैं वहीं पर लौटूं जहां से शुरुआत की थी, तो यही कहूंगा कि गुजरात 2017 में दीवारों पर लिखी इबारत यही कहती है.
शेखर गुप्ता दिप्रिंट के एडिटर इन चीफ हैं.