लेफ्टिस्ट लफ्फाज़ी के उस्ताद, राईट विंग के मसीहा हैं मोदी
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लेफ्टिस्ट लफ्फाज़ी के उस्ताद, राईट विंग के मसीहा हैं मोदी

मोदी एक अनोखे नेता हैं जिन्होंने दक्षिण तथा वाम, दोनों के लोकलुभावन मुहावरों का घालमेल करने की कला सीख ली है. परिणाम: प्रतिगामी प्रवृत्तियां फलफूल रही हैं.

Modi at Madison Square Garden

A file photo of PM Modi at Madison Square Garden / narendramodi.in

मोदी एक अनोखे नेता हैं जिन्होंने दक्षिण तथा वाम, दोनों के लोकलुभावन मुहावरों का घालमेल करने की कला सीख ली है. परिणाम: प्रतिगामी प्रवृत्तियां फलफूल रही हैं.

नरेंद्र मोदी वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी? बड़ी संख्या में दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों, दक्षिणपंथी रुझान वाले उदारवादियों, नेहरू विरोधियों, कल्याणकारी राज्यव्यवस्था का विरोध करने वालों ने गुजरात में तो मोदी का भारी समर्थन किया ही, बाद में उन्हें प्रधानमंत्री बनाए जाने का भी जम कर समर्थन किया. इसकी वजह यह थी कि इन लोगों को लगा कि मोदी मारग्रेट थैचर या रोनल्ड रीगन के भारतीय अवतार के तौर पर उभरेंगे; कि वे सार्वजनिक क्षेत्र के ‘नवरत्न’ माने गए निगमों का निजीकरण कर देंगे; कि मनरेगा को और गरीबों के हित में शुरू किए गए भोजन के अधिकार जैसे उपायों को खत्म करके अर्थव्यवस्था पर बोझ को हल्का कर देंगे.

दरअसल, मोदी मनरेगा को कांग्रेस की दिवालिया समाजवादी नीतियों का एक स्मारक बताकर उसका मखौल उड़ा भी रहे थे. सो, मोदी के समर्थकों को यकीन हो गया था कि वे भूमि तथा श्रम संबंधी नीतियों का उदारीकरण करके व्यापार एवं उद्योग को फलने-फूलने और मुनाफा कमाने की आजादी दे देंगे. लकिन इस दिशा में कुछ ठोस काम नहीं हुआ, और निजी क्षेत्र खामोशी से दर्द के घूंट पीता रहा है.

दक्षिणपंथी टीकाकारों और बड़बोले टीवी वार्ताकारों ने सोचा था कि कांग्रेस के ‘गरीबवादी’ नजरिए को कूड़ेदान के हवाले कर दिया जाएगा; कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में शामिल सोनिया गांधी के ‘घायल दिलवाले’ एक्टिविस्टों को वनवास दे दिया जाएगा; कि नव-उदारवादी अर्थनीति का एक नया युग शुरू होगा और भारत पूंजीवादी अमेरिका तथा यूरोप के क्लब में शामिल हो जाएगा. और गरीब समर्थक तमाम लफ्फाजियां राजनीतिक विमर्श से लुप्त हो जाएंगी.

प्रधानमंत्री बनने के तीन महीने के भीतर ही मोदी ने योजना आयोग को खत्म करने का नाटकीय ऐलान कर दिया, जिसे कथित तौर पर जवाहरलाल नेहरू की टालमटोल वाले फेबियन नजरिए का प्रतीक बताया जाता था. इस आयोग को दफन करने के फैसले को मोदी की ठोस दक्षिणपंथी मान्यता का प्रमाण माना गया. योजना आयोग के विचार मात्र को शुरू से ही कंट्रोल तथा लाइसेंस-परमिट राज का एक प्रतीक माना जाता था. शीतयुद्ध के दिनों में योजना आयोग को ‘सोवियत मॉडल’ के रूप में देखा जाता था. स्वतंत्र पार्टी तथा जनसंघ (जो बाद में भाजपा बनी) के प्रतिनिधित्व वाली अमेरिका समर्थक लॉबी का तर्क होता था कि यह एक पुरातनपंथी सनक है. इसलिए इस राजनीतिक खेमे ने नीति आयोग के विचार का स्वागत किया.

लेकिन दो साल के भीतर ही मोदी ने अपना सुर और गीत, दोनों बदल दिया. उन्होंने न केवल मनरेगा के लिए राशि बढ़ाकर दोगुनी कर दी बल्कि “दिग्भ्रमित समाजवादियों” की भाषा बोलने लगे. अपने भाषणों में उन्होंने अमीरों पर हमले शुरू कर दिए और बाद में तो वे नोटबंदी को “गरीबों के हक में” उठाया गया कदम बताने लगे. मानो रातोंरात वे दक्षिणपंथी मसीहा से ऐसे रोबिनहुड में तब्दील हो गए, जो काले धन को जब्त करके उसे गरीबों के बीच बांटना चाहता है. लेकिन भ्रष्टाचारियों की शिनाख्त करने और उन्हें दंडित करवाने के लिए लोकपाल की नियुक्ति नहीं की तो नहीं ही की.

गौरतलब है कि लोकपाल की नियुक्ति की मांग करने वाले अण्णा आंदोलन में भाजपा भी वामपंथियों के साथ शामिल हो गई थी. आज सब के सब इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं. 2011 में अण्णा आंदोलन ने मनमोहन सिंह की सरकार को पंगु बना दिया था, जिससे वह कभी नहीं उबर पाई थी. कांग्रेस एक भ्रष्ट पार्टी है और मोदी तमाम बुराइयों से लड़ने वाले साहसी योद्धा हैं, यह छवि अच्छी तरह बना दी गई थी. लेकिन काले धन के खिलाफ वह तथाकथित युद्ध एक फरेब ही था. हर कोई देख सकता था कि खासकर उत्तर प्रदेश तथा गुजरात के चुनावों में भाजपा ने मतदाताओं को रिझाने के लिए चुनाव प्रचार पर किस तरह पैसा बहाया. जाहिर है, वह कोई सफेद धन नहीं था.

भारत के नकली और सत्तामुखी नव-उदारवादियों ने मोदी की इस बात के लिए कभी आलोचना नहीं की कि वे खुद को गरीब के रहनुमा के रूप में पेश कर रहे हैं या उसी ‘गरीबवाद’ का खल खेल रहे हैं. मोदी ने किसी ‘नवरत्न’ सरकारी निगम का निजीकरण नहीं किया. केवल पिछले सप्ताह उन्होंने एयर इंडिया का आंशिक निजीकरण किया. न ही उन्होंने अर्थव्यवस्था में कोई बुनियादी संरचनात्मक सुधार किया. फिर भी दक्षिणपंथी खेमा चतुराई भरी चुप्पी ओढ़े रहा. बल्कि वह मूडीज सरीखी एजेंसियों के प्रमाणपत्रों का हवाला देकर मोदी के महिमागान में जुटा रहा, जबकि मोदी ऐसे भाषण देते फिर रहे थे मानो वे पक्के समाजवादी वामपंथी हों (हालांकि पूंजीपतियों या अमीरों पर वे कोई सीधा नीतिगत हमला नहीं कर रहे थे).

तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दक्षिणपंथियों ने गोमांस खाने या उसे जमा करने वाले या ट्रकों में गायों को ढो कर ले जाने वाले मुसलमानों पर हमले करने या उनकी हत्या करने वाले गिरोहों की कभी कड़ी निंदा नहीं की. वे तब भी चुप्पी बनाए रहे, जब देशभक्ति को सिनेमाघरों में राष्ट्रगान के लिए खड़े होने से परिभाषित किया जाने लगा. चुनावों के दौरान खुले मुस्लिम विरोधी अभियान से भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा. सांप्रदायिक दक्षिणपंथ ने आर्थिक दक्षिणपंथ को गौण बना दिया था.

भाजपा में इस तरह की दो स्पष्ट परंतु ‘द्वंद्वात्मक रूप से आपस में गुंथी’ दक्षिणपंथी प्रवृत्तियां हमेशा से अस्तित्व में रही हैं- धार्मिक दक्षिणपंथी और मुक्त बाजार वाली दक्षिणपंथी प्रवृत्तियां. मोदी इन दोनों आदमखोरों पर सवारी गांठना चाहते हैं. वे जानते हैं कि शहरी उच्च-मध्यवर्ग ने काफी धन और सामाजिक हैसियत बना ली है, और यह मुस्लिम विरोधी तीखे अभियान का आसानी से समर्थन करेगा और उसे प्रोत्साहन भी देगा. नव-बहुसंख्यकवादी समूह इस खेमे में मध्यवर्ग, पिछड़े, और दलितों के भी एक वर्ग को खींच ला सकता है. धार्मिक दक्षिणपंथी प्रापगैंडा और लोकलुभावन वामपंथी लफ्फाजियों का आसानी से घालमेल करके एक घातक कॉकटेल बनाया जा सकता है.

जाने-माने चिंतक तथा विद्वान आशुतोष वार्षने ने पिछले सप्ताह मुंबई में दिए अपने भाषण में इसका गहरा विश्लेषण प्रस्तुत किया. उन्होंने कहा कि मोदी एक अनोखे नेता हैं, जिन्होंने दक्षिण तथा वाम, दोनों के लोकलुभावन मुहावरों का घालमेल करने की कला में महारत हासिल कर ली है, नतीजा यह कि प्रतिगामी प्रवृत्तियां फलफूल रही हैं और खतरनाक रूप से हिंसक रूप अख्तियार कर रही हैं, जबकि तथाकथित प्रगतिशील ‘गरीब समर्थक’ नारेबाजी जनमानस पर अफीम के नशे जैसा असर डालती है.