भीमा कोरेगांव विवाद: दलित क्यों न मनाएं अपने जुझारूपन का उत्सव?
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भीमा कोरेगांव विवाद: दलित क्यों न मनाएं अपने जुझारूपन का उत्सव?

दो सौ साल पहले हुए भीम कोरेगांव संघर्ष का उत्सव मना कर दलितों ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद की धारणाओं पर सवाल खड़े कर दिए हैं.

Bhima-Koregaon Victory Pillar

Bhima-Koregaon Victory Pillar | Commons

दो सौ साल पहले हुए भीमा कोरेगांव संघर्ष का उत्सव मना कर दलितों ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद की धारणाओं पर सवाल खड़े कर दिए हैं.

यही वजह है कि ऊंची जातियों ने इस उत्सव को ‘राष्ट्र विरोधी’ घोषित कर दिया है.

यह उत्सव दलित जुझारूपन के फिर से उभार का संकेत दे रहा है. 200 साल पहले हुए उस संघर्ष में उस समय के उपनिवेशवादी शासकों की सेना में अस्पृश्य माने जाने वाले सैनिकों ने पेशवाओं को हरा दिया था. यह जीत दलित इतिहास का एक गौरवपूर्ण तथा शौर्यपूर्ण अध्याय है.

लेकिन, उस संघर्ष की याद में उस स्थल पर बड़ी संख्या में इकट्ठा होना जाति व्यवस्था के मानदंडों के विपरीत माना जाता है. इन मानदंडों के तहत दलितों के जुझारूपन की इजाजत नहीं दी जाती. मनुस्मृति जैसे प्राचीन हिंदू ग्रंथ साफ कहते हैं कि दलितों या शूद्रों अथवा अतिशूद्रों को अपनी रक्षा के लिए सेना बनाने का अधिकार नहीं है. इसलिए कोरेगांव की याद में उत्सव सामान्य जातीय लोकाचार के विरुद्ध है.

यह दलितों के बारे में इस प्रमुख हिंदू-राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को चुनौती देता है कि वह एक विनम्र, मातहत समुदाय है, जो मौजूदा जातीय व्यवस्था और अन्याय को चुपचाप सहने के लिए बना है. लेकिन इस तरह से कोरेगांव विजय का उत्सव मना कर दलितों ने प्रतिकार का ऐलान कर दिया है. वे कह रहे हैं, “हम जुझारूपन का जश्न मनाएंगे, यह हमारे इतिहास का हिस्सा है”. ऊंची जातियों ने हमारे इतिहास को दबाया है या उसे तोड़ा-मरोड़ा है क्योंकि यह उन्हें अपने हिंदू राष्ट्रवाद के आख्यान के लिए उपयुक्त नहीं लगता. इतिहास पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए वे समानांतर इतिहासों को खारिज करते हैं.

अब दलितों ने भारत के इतिहास में अपनी उपस्थिति को तलाशना, इंगित करना और उस पर जोर देना शुरू कर दिया है.

उन स्थलों पर जाना ग्रामीण तथा शहरी दलितों के लिए एक तरह का वैकल्पिक सांस्कृतिक आयोजन बन गया है. कोरेगांव आने वालों में उत्तर प्रदेश से लेकर कर्नाटक तक तमाम राज्यों के लोग होते हैं. इन वर्षों में दलित स्मृति तथा चेतना पर इस इतिहास की पकड़ बढ़ती ही गई है. इंटरनेट, सोशल मीडिया और दलित वेबसाइटो के विस्तार के कारण दलित इतिहास तथा दलित प्रतिकार से जुड़े स्थलों को खोज निकालने और उन्हें नया जीवन देने के प्रयास तेज हुए हैं. अब हम भारत में दलित इतिहास महीना भी मनाने लगे हैं, जिससे इन प्रयासों को ताकत मिलती है. कोरेगांव वाला आयोजन इसी का एक हिस्सा है.

बाबा साहब आंबेडकर खुद दलित इतिहास से जुड़े स्थलों के बारे में शोध करते थे और वहां जाते थे. वे हर साल भीम कोरेगांव जाते थे. वहां उन्होंने एक बड़ा सम्मेलन भी किया था. समता सैनिक दल का गठन करके उन्होंने दलित जुझारूपन की विरासत को आगे बढ़ाया था. उन्होंने दिखा दिया था कि जुझारूपन का अर्थ उस ताकत के आगे झुकने, रुकने या भयभीत होने से इनकार करने का संकल्प है, जो आपको दबाना चाहती है. और जब बात अपनी रक्षा की हो तब हम कोई भी तरीका अपनाने को स्वतंत्र हैं. उन्होंने ‘जुझारूपन’ शब्द के दो अर्थों के बीच के अंतर को स्पष्ट किया था.

दलित अब इस नई सदी में अपनी जो नई जगहें बना रहे हैं, कोरेगांव उत्सव उन्हीं में शामिल हो रहा है. सत्ता को चुनौती देने वाले भीम सेना जैसे छोटे संगठनों के उभार में इसी प्रवृत्ति को देखा जा सकता है. दलित जुझारूपन का स्रोत मारपीट, आगजनी आदि हिंसक एजेंडा नहीं है बल्कि इसका संबंध अपने अधिकारों पर जोर देने, उनकी रक्षा करने से है, भले ही उसमें आक्रामकता शामिल है. इसे आप कॉलेज परिसरों में नई ऊर्जा के उभार में देख सकते हैं. शासक दल और सरकार से जुड़े एबीवीपी जैसे दक्षिणपंथी संगठनों के उभार का प्रतिरोध दलित संगठन की ओर से बराबर हो रहा है- चाहे वह हैदराबाद में आंबेडकर स्टुडेंट्स एसोसिएशन (एएसए) हो, जेएनयू में बिरसा आंबेडकर फुले एसोसिएशन (बाप्सा) हो या दूसरे कैंपसों में दूसरे समूह हों. दक्षिणपंथ प्रायः हिंसा का सहारा लेकर अपना इतिहास खुद लिख रहा है. दूसरी ओर, दलित वर्ग आंबेडकर, पेरियार सरीखे आदर्श पुरुषों के नाम पर अपने अतीत का उत्सव मनाते हैं. इससे ऊंची जातियं में चिंता तथा हताशा पैदा हो रही है.

दक्षिणपंथी समूह पुणे तथा महाराष्ट्र में भीमा कोरेगांव उत्सव का विरोध कर रहे हैं. वे इसे ‘राष्ट्र विरोधी’ घोषित कर रहे हैं क्योंकि दलित तथा आंबेडकरवादी समूह पेशवाओं के मुख्यालय शनिवार वाडा भी जाने वाले हैं. दलितों का कहना है कि हमने पेशवाओं के बर्बर शासन का अंत किया. इसलिए हम इसका उत्सव मना रहे हैं. वे वहां नाच-गाना कर रहे हैं, अखाड़ा और कुश्ती के जरिए अपना नया जुझारूपन जता रहे हैं. महार बटालियन में शामिल कई लोग उस स्थल पर जा रहे हैं. यह सब राष्ट्र तथा राष्ट्रवाद की वर्चस्ववादी धारणा पर सवाल खड़े कर रहा है. यह महाराष्ट्र में ऊंची जातियों के समूहों को चिंता में डाल रहा है.

आंबेडकर ने जब एसएसडी का गठन किया था तब भी सवर्णों ने इसे हिंसक घोषित किया था लेकिन आंबेडकर ने स्पष्ट कर दिया था कि यह दलितों की सुरक्षा के लिए है. लेकिन उस समय भी तमाम उदारवादी, प्रगतिशील, रूढ़िवादी लोगों ने उन पर विश्वास नहीं किया. भीम कोरेगांव उत्सव को मुख्यधारा के आख्यान में शामिल किया जाएगा या मुख्यधारा के राजनीतिक दल इसे स्वीकार करेंगे इसकी संभावना कम ही है. क्योंकि यह एक पवित्र तथा प्राचीन राष्ट्र, या प्रगतिशील तथा प्रतिगामी गुटों के राष्ट्रवाद के विचार के एकदम विपरीत है.

  1. इसलिए, दलित जुझारूपन का उत्सव हाशिये पर डाल दिए गए समुदाय की जद्दोजहद के लिए खास महत्व रखता है.

राहुल सोनपिंपले दलित बहुजन समाज ग्रुप बाप्सा के नेता हैं.