अर्थव्यवस्था को सुधारने में विफल रहे चीन के जिनपिंग भ्रष्टाचार विरोध का नारा लगाने लगे, तो जापान के आबे और भारत के मोदी राष्ट्रवाद का झंडा लहराने लगे.
नया साल शुरू हो चुका है और इस मौके पर वर्तमान एशियाई परिदृश्य खासा दिलचस्प नजर आ रहा है. इस मौके पर जो चीज ज्यादा याद आ रही है वह है क्रिकेट के मैदान पर आॅस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों द्वारा अपनाई जाने वाली ‘स्लेजिंग’ यानी धक्कामुक्की, गालीगलौज. यह तरीका प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ियों को दबाव में डालकर अपना मकसद साधने के लिए अपनाया जाता है. अगर यह तरीका कुशलता से नहीं अपनाया जाता तो खोखली लफ्फाजी बन जाता है.
राजनीति में प्रभावी ‘स्लेजिंग’ वह है, जो कोई नेता या पार्टी राजनीतिक लाभ उठाने के मकसद से विपक्ष पर दबाव बनाने या उसे बदनाम करने के लिए करती है . एशिया के तीन बड़े नेताओं- शी जिनपिंग, नरेंद्र मोदी और शिंजो आबे- को अपने-अपने देश में भारी आर्थिक सुधार लाने के लिए भारी जनादेश मिला. लेकिन तीनों जब इसे पूरा न कर पाए तो इसी तरीके और खोखली लफ्फाजी का सहारा लेने लगे हैं. इसका रूप अलग-अलग देश में अलग-अलग है.
चीनी समस्या
जिनपिंग को जनादेश मिला था कि वे चीनी अर्थव्यवस्था के विकास का आधार कम लागत वाली मैनुफैक्चरिंग से उपभोग पर स्थानांतरित करें. लेकिन पुरानी आदतें कहां बदलती हैं. चीन की करीब 6 प्रतिशत वृद्धिदर काफी नीची है और यह अभी भी पुरानी शैली के इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश और मैनुफैक्चरिंग पर निर्भर है. विकास का यह मॉडल बुनियादी तौर पर टिकाऊ नहीं है और इसने कर्ज को खतरनाक स्तर पर पहुंचा दिया है.
अगर चीन का लक्ष्य दुनिया पर अमेरिका के वर्चस्व को खत्म करके अपना वर्चस्व बनाना और विश्व व्यवस्था को नया रूप देना है, तो वह इस लक्ष्य से कोसो दूर है. जिनपिंग ने तंग श्याओपिंग की ‘विनम्र बने रहो, अपनी ताकत का प्रदर्शन मत करो’ वाली विदेश नीति से हटना शुरू कर दिया है. चीन ने ‘बेल्ट’ और ‘रोड इनीशिएटिव’ जैसे संस्थानों के साथ जो नई वैश्विक आर्थिक नीति अपनाई है वह अमेरिकी नेतृत्व वाली वैश्विक संरचना को हटाने में तब तक सफल नहीं होगी जब तक घरेलू आर्थिक परिवर्तन नहीं होता. चीनी अर्थव्यवस्था में बदलाव और पारदर्शिता के बिना वैश्विक अर्थव्यवस्था को बदलना और रेनमिनबि को वैश्विक रिजर्व मुद्रा के तौर पर आगे बढ़ाना मुश्किल होगा. इस लिहाज से अमेरिका अधिकांश विश्लेषकों के अनुमान के विपरीत कहीं ज्यादा सुरक्षित स्थिति में है.
वास्तविक आर्थिक परिणामों के अभाव में जिनपिंग की राजनीति खोखली लफ्फाजी बनकर रह गई है. इसका जोर भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के जरिए लोकप्रियता बनाए रखने पर है. इस अभियान के तहत 13 लाख छोटे-बड़े चीनी अधिकारियों को बरखास्त किया जा चुका है. लेकिन स्वतंत्र तथा राजनीति मुक्त अदालतों तथा पुलिस के अभाव में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने का बहाना भर रह गया है.
जापानी कहानी
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान का आर्थिक कायाकल्प चीनी कायाकल्प से कम आश्चर्यजनक नहीं था. लेकिन 1991 के बाद जो गिरावट आई, वह जारी है. आबे की आर्थिक नीति ‘आबेनॉमिक्स’ के नतीजे कतई प्रभावशाली नहीं रहे हैं. जापान कुछ संरचनात्मक बदलाव लाने और अमेरिका के बिना यूरोप तथा ट्रांस पैसिफिक देशों से सहोग हासिल करने में तो सफल रहा है लेकिन संकट बरकरार है.
जापान की मुख्य समस्या यह है कि उसकी आबादी घट रही है और निर्भरता अनुपात बिगड़ रहा है. मजबूत जनसांख्यिकीय आधार के बिना जापान के लिए उपभोग की जरूरी मांग पैदा करना मुश्किल है. इसका समाधान कुछ आसान है- आप्रवास. लेकिन जापानी संस्कृति प्रवासी कामगारों को अपनाने में हिचकती है. आर्थिक परिणामों के बिना आबे की राजनीति ने 19वीं सदी के ‘मेजी युग’ की भावना को फिर से जगा दिया है, जिसका नारा था- ‘समृद्ध राष्ट्र, मजबूत सेना’. विश्वयुद्ध के बाद ‘परमाणु शक्ति से परहेज’ की जो भावना जापान में पैदा हुई थी, उसे परे धकेलते हुए अबे की राजनीति ने उस अनुच्छेद 9 को रद्द करने के लिए संवैधानिक संशोधनों पर जोर दिया है, जिसमें कहा गया है कि जापान न तो युद्ध के लिए सेनाओं का गठन करेगा, और न परमाणु हथियार विकसित करेगा.
घरेलू खतरे की अवधारणा को लेकर आबे की जो नीति है उसकी सफलता जाहिर है. शुरू में उनके वोटों का प्रतिशत तो बहुत महत्वपूर्ण नहीं था लेकिन उत्तरी कोरिया द्वारा आइसीबीएम के परीक्षणों को खतरे के तौर पर प्रचारित करके उन्होंने अचानक जो चुनाव कराए उसमें उनकी पार्टी को जोरदार बहुमत मिल गया.
भारतीय परिदृश्य
यह भी लगभग उपरोक्त जैसा ही दिखता है. हर महीने करीब 10 लाख लोग रोजगार पाने के लिए खड़ी कतार में जुड़ते जा रहे हैं, इसलिए मोदी को सबसे बड़ा जनादेश ऐसे आर्थिक विकास को बढ़ावा देने का मिला था, जिससे रोजगार के अवसर बढ़ें. भारत में युवाओं की आबादी का जो अनुपात आज है वह उसे यह मौका दे रहा है कि वह खुद को मध्य-आय वर्ग में शामिल कर ले. लेकिन मोदी के राज में आर्थिक उपलब्धियां संतोषप्रद नहीं रही हैं. वे जीएसटी, थोक व्यापार में एफडीआइ, और बुनियादी ढांचे पर खर्च में वृद्धि जैसे सुधारों को लागू करने सफल तो रहे हैं लेकिन भारतीय उद्योग अभी भी प्रतिस्पद्र्धा में नहीं टिक पा रहे हैं और वैश्विक सप्लाइ चेन से बाहर हैं. विकसित जगत की तकनीक और विकासशील जगत के श्रम का मेल यानी ‘वर्टिकली इंटीग्रेटेड सप्लाइ चेन’ ही आज मैनुफैक्चरिंग और व्यापार का मूल है. कौशल विकास के जरूरी कार्यक्रम, और नियमन के बड़े सुधारों के अभाव में मोदी 21वीं सदी का वास्तविक आर्थिक विकास मॉडल भारत को नहीं दे पाए हैं.
आर्थिक उपलब्धियों के अभाव में मोदी की राजनीति राष्ट्रवाद को उकसाने और नोटबंदी जैसे मनमाने आर्थिक फैसले में सिमट गई है. दुर्भाग्य की बात है कि भारत में पीढ़ियों के बाद उभरे सबसे कुशल नेता मोदी सुस्त भारतीय अर्थव्यवस्था को बदल डालने वाले सुधारों को लागू करने में अपने राजनीतिक कौशल का उपयोग करने में विफल साबित हो रहे हैं.
सृजन शुक्ल मोंट्रियल की मॅक्गिल यूनिवर्सिटी में राजनीतिविज्ञान के छात्र हैं