भारत और उसकी सेना नजर-नजर का फर्क
SG राष्ट्र हित

भारत और उसकी सेना नजर-नजर का फर्क

ब्रिगेडियर जनरल आर डायर एक ब्रिटिश अवश्य थे लेकिन वह भारतीय सेना के अधिकारी थे। भारतीय वायुसेना और नौसेना के उलट थल सेना के साथ ‘रॉयल’ शब्द नहीं जुड़ा हुआ था। जिन 50 राइफलमैनों ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में बैसाखी के लिए जुटी शांतिपूर्ण भीड़ पर गोलियां चलाकर 396 लोगों को मार डाला और […]

   

ब्रिगेडियर जनरल आर डायर एक ब्रिटिश अवश्य थे लेकिन वह भारतीय सेना के अधिकारी थे। भारतीय वायुसेना और नौसेना के उलट थल सेना के साथ ‘रॉयल’ शब्द नहीं जुड़ा हुआ था। जिन 50 राइफलमैनों ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में बैसाखी के लिए जुटी शांतिपूर्ण भीड़ पर गोलियां चलाकर 396 लोगों को मार डाला और हजारों को घायल किया, वे सभी भारतीय थे।

इसके 25 साल के भीतर वही सेना एक छोटे एकतरफा युद्घ में दोनों ओर से लड़ रही थी। सुभाषचंद्र बोस की इंडियन नैशनल आर्मी में भारतीय युद्घबंदी शामिल थे। तीन साल के भीतर यानी सन 1947-48 में सेना एक बार फिर मैदान ए जंग में थी। इस बार वह अपने ही देश की रक्षा के लिए कश्मीर में लड़ी। यहां यह जानना श्रेयस्कर होगा कि जब सेना नवस्वतंत्र राष्टï्र की रक्षा के लिए पहली बार लड़ रही थी तब भी इसका कमांडर एक ब्रिटिश ही था- जनरल रॉबर्ट लॉकहर्ट।

औपनिवेशिक सेना पहले दो और फिर तीन टुकड़ों में बंटी। इन सब के मूल्य, प्रशिक्षण और इनका ढांचा एक ही था। पाकिस्तान और बांग्लादेश की सेनाओं ने तो एकाधिक बार सत्ता भी संभाली और निर्वाचित नेताओं को मारा भी। बीते दशकों में पाकिस्तानी सेना ने खुद को सांस्थानिक ढंग से नियंत्रण वाला बना लिया है। निर्वाचित सरकारों में भी उसका दबदबा चलता है तो मार्शल लॉ की जरूरत क्या है?

इरशाद युग के बाद बांग्लादेश की सेना एक पेशेवर, आधुनिक और अराजनीतिक ताकत है। भारत में इन दशकों में सेना और अधिक अराजनीतिक, पेशेवर हुई। इस बीच इसकी सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक विविधता बढ़ी। उसने कई औपनिवेशिक कमियों को दूर किया। देखने वाली बात है कि उपनिवेशकाल के बाद की सेनाएं दूसरे विश्वयुद्घ के बाद कैसे उभरीं। अफ्रीका, पश्चिम एशिया, लैटिन अमेरिका, पूर्वी एशिया और शेष दक्षिण एशिया में एक सेना खोजिए जो राजनीति से दूर रही हो और इसके बावजूद उसने न केवल देश की रक्षा की बल्कि एक नया देश बनाने में मदद भी की।

भारत में भी सैन्य मामलों के विद्वानों ने सेना के उत्तर औपनिवेशिक विकास पर काफी अध्ययन किया। समाज विज्ञान के विद्वानों ने अक्सर इसकी अनदेखी की। सन 1962 की पराजय तक का वक्त सबसे बढिय़ा ढंग से दर्ज किया गया और यह अहम है क्योंकि उस वक्त सेना का भारतीयकरण हो रहा था। तब अधिकारियों की दो श्रेणियां थीं जिनके पास ब्रिटिश और भारतीय कमीशन था। भारतीय सेना में भी ऐसी पीढ़ी आई जो अपने पुरखों यानी ब्रिटिशों से बेहतर थी। बाद में हमारी सेना को लेकर विद्वतापूर्ण लेखन कम होता गया। केवल दो किताबें याद आती हैं। लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह की वार डिस्पैचेज और एयर चीफ मार्शल पी सी लाल की माई इयर्स विद द आईएएफ (यह किताब सन 1971 की जंग में वायुसेना की भूमिका पर आधारित है)। स्टीफन कोहेन की किताब ‘द इंडियन आर्मी’ बताती है कि कैसे दो सहोदर सेनाओं ने पुरानी बॉलीवुड फिल्मों की तरह अलग-अलग रास्ते चुने।

पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने भी चार किताबें लिखीं। वह भारत में अब तक के सर्वश्रेष्ठï सैन्य इतिहासकार हैं। करगिल युद्घ, प्रथम विश्वयुद्घ, सन 1965 की जंग और हाल ही में आई सरगढ़ी की लड़ाई पर लिखी किताब। गैर सैन्य विद्वानों द्वारा लिखी गई हालिया किताबें और अहम हैं। येल के प्रोफेसर स्टीवन विलकिंसन (आर्मी ऐंड नेशन), श्रीनाथ राघवन की इंडियाज वार जिसमें बताया गया है कि कैसे दो युद्घों के दरमियान सेना बदल गई। इसके अलावा जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय के विद्वान सी क्रिस्टीन फेयर की फाइटिंग टु द एंड भी ऐसी ही किताब है जो पाकिस्तानी सेना पर आधारित है।

शायद मैं दोहराव का शिकार हूं लेकिन मुझे देश के लोकतंत्र के लिए अहम इस दिलचस्प सामाजिक-सैन्य-राजनीतिक संस्थान पर कोई ऐसी महत्त्वपूर्ण अध्ययन सामग्री नहीं मिली जिसे किसी पेशेवर समाज विज्ञानी ने लिखा हो। यह कुछ ऐसा ही था मानो सेना ने तो हमारे जीवन से बाहर रहने का फैसला किया ही, हमारे विद्वानों ने भी बदले में उसे अलग-थलग छोड़ दिया। यहां तक कि विश्वस्तरीय लेखक राघवन जो कि एक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं, ने भी ऐसा ही किया। सेना ने भारतीय लोकतंत्र से बाहर रहते हुए उसे मजबूत बनाने और उदार बनाने में जो भूमिका निभाई, उसके लिए कहीं सराहना का कोई भाव नहीं नजर आया। प्रतीकात्मक ही सही रावत और डायर की तुलना ऐसी ही गलतियों से उपजी है।

अगर आप समझना चाहते हैं कि भारत अपनी सेना को राजनीति से दूर रखने में कैसे कामयाब रहा तो आपको विलकिंसन को अवश्य पढऩा चाहिए। वह आपको बताते हैं कि करियप्पा से मानेकशॉ तक और उसके बाद कैसे चार जंगों ने भारतीय सेना को बदला और कैसे सेना के वरिष्ठï अधिकारियों और राजनेताओं ने मिलकर सेना का सामाजिक और जातीय स्वरूप बदला। इसमें धीरे-धीरे पंजाबी पहचान का दबदबा कम किया गया। राज्यों की आबादी के मुताबिक भर्ती की गई। वह इस बात का भी जिक्र करते हैं कि कैसे तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम सेना में दलितों की तादाद बढ़ाना चाहते थे और कैसे मानेकशॉ ने लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा को लिखा कि वह इस मामले से निपटें क्योंकि एक बिहारी ही इसे समझ सकता है। लेकिन सेना जहां नागरिक जीवन से बाहर रही, वहीं सरकारें उसकी मदद लेती रहीं। सेना कई बार मजिस्ट्रेट के आदेश पर काम करती है तो कई बार सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के अधीन अशांत इलाकों में उपद्रवियों से निपटती है। इन दोनों बातों का जिक्र जनरल डायर को वापस लाता है।

डायर ने जलियांवाला बाग हत्याकांड को लेकर डायर की जो भी सफाई रही लेकिन ब्रिटिश प्रशासन में अधिकांश लोगों ने इसे स्वीकार नहीं किया। इसके चलते तत्कालीन भारतीय सेना ने नागरिक नियंत्रण के नए प्रोटोकॉल बनाए। इसके तहत भीड़ पर गोली चलाने के लिए मजिस्ट्रेट की मौजूदगी और लिखित आदेश आवश्यक थे। आज भी जब सेना को मदद के लिए बुलाया जाता है तो इन आदेशों का पालन होता है। बाद में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उनको लगा कि सेना की सक्रिय मदद आवश्यक है तो सशस्त्र बल विशेष अधिकार अध्यादेश पारित किया गया। यह आज के अफ्सपा कानून का पूर्वज है। राघवन ने अपनी किताब प्रोटेक्टिंग द राज: द आर्मी इन इंडिया ऐंड इंटर्नल सिक्युरिटी, में इसका दस्तावेजीकरण किया है।

चलिए मैं (जिसने चार दशक मे कई उपद्रवों और विद्रोह को कवर किया) और आप याद करते हैं क्या कोई घटना याद आती है जहां सेना ने भीड़ पर गोली चलाकर लोगों को मारा हो? ऑपरेशन ब्लूस्टार का जिक्र न करें क्योंकि उस लड़ाई में 149 जवान भी शहीद हुए थे। कश्मीर में गवाकदल का जिक्र भी नहीं क्योंकि वहां सेना नहीं अद्र्घसैनिक बल शामिल था। उन मानवाधिकार हनन, फर्जी मुठभेड़ों, बलात्कारों का भी जिक्र नहीं जो सन 1990 के दशक के मध्य तक हुए लेकिन जिनके मामलों में कड़ी सजा भी हुई। सेना को कभी गोली नहीं चलानी पड़ी क्योंकि कितनी भी बुरी भीड़ हो, सेना को देखते ही तितर-बितर हो जाती है। उनको पता होता है कि सेना कड़ी कार्रवाई करेगी। सांप्रदायिक दंगों में तो फ्लैग मार्च से ही काम चल जाता है। दिल्ली 1984, गुजरात 2002 में सेना को कभी गोली नहीं चलानी पड़ी। इन मामलों में बहस यही होती है कि सेना बुलाने में देर क्यों की गई।

कश्मीर में भी यही हुआ। भीड़ ने सेना को चुनौती कभी नहीं दी। आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई में स्थानीय लोग दूर बने रहे। बाद में हालात बदले और पत्थरबाजों की भीड़ आतंकियों के लिए कवच बनने लगी। सेना को इस नई चुनौती से निपटने का तरीका खोजना होगा। यकीनन यहां जैसे को तैसा का नियम नहीं लगेगा। परंतु क्या उसे बाधा पहुंचाती भीड़ पर गोली चलानी चाहिए? सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत को शब्द चयन में सावधानी बरतनी चाहिए लेकिन खुद को उनकी जगह रखकर देखिए। इस नीति में न तो किसी को जीप पर बांधने की जगह है और न ही जनरल डायर की तरह हजारों के कत्ल की। इसलिए यह तुलना घृणित है।