आक्रामक चीनी मीडिया और भारत की प्रतिक्रिया
SG राष्ट्र हित

आक्रामक चीनी मीडिया और भारत की प्रतिक्रिया

सबसे पहले तो मैं एक बाद साफ कर दूं। जो भी मुझे और मेरे परिवार को जानता है उसे पता है कि हम जिन जीवों से सबसे अधिक प्रेम करते हैं वे हैं कुत्ते और बिल्लियां। जाहिर सी बात है जीवन के कई किस्सों और सबक में भी इनका जिक्र आता है। अक्सर मेरे राजनीतिक […]

   

सबसे पहले तो मैं एक बाद साफ कर दूं। जो भी मुझे और मेरे परिवार को जानता है उसे पता है कि हम जिन जीवों से सबसे अधिक प्रेम करते हैं वे हैं कुत्ते और बिल्लियां। जाहिर सी बात है जीवन के कई किस्सों और सबक में भी इनका जिक्र आता है। अक्सर मेरे राजनीतिक लेखन में भी इनका जिक्र आता है। ठीक उसी तरह जैसे क्रिकेट का। साफ कहूं तो इस लंबी प्रस्तावना का तात्पर्य यही है कि मैं अपने तीन शुरुआती श्वानों का जिक्र अपने ही पेशे, न्यूज मीडिया और सिक्किम सीमा विवाद के बारे में गंभीर टिप्पणी करने के लिए कर रहा हूं और कोई इसे गलत न समझे। सिक्किम सीमा का मसला मोदी सरकार की पहली सामरिक चुनौती है। सन 1980 के दशक के आरंभ में हम शिलॉन्ग में असमिया शैली में बने छोटे से कॉटेज में रहते थे और हमारे तीन ल्हासा छोटे से बगीचे में बंधे रहते थे। यह बगीचा बाकी के खुले और उन्मुक्त वातावरण से अलग था। कोई भी व्यक्ति या अन्य जीव अगर परिसर में घुसता तो उसे इन तीनों क्रोधित ल्हासाओं का सामना करना पड़ता था। एक दिन दोपहर में हमारे खासी पड़ोसी का मुर्गी बाड़ा खुला रह गया और कुछ मुर्ग टहलते हुए हमारे बगीचे में आ गए।

आश्चर्य की बात थी कि आमतौर पर क्रोधित होकर गुर्राने वाले तीनों श्वानों ने उन पर ध्यान ही नहीं दिया। वे दूसरी दिशा में देखने लगे और इन मुर्गों की अनदेखी कर आने जाने वालों पर भोंकने लगे। दरअसल उन्होंने पहले ऐसी कोई चुनौती देखी ही नहीं थी इसलिए वे कोई मौका नहीं लेना चाहते थे। हम उनको बहलाएं या उनको उकसाएं, वे यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि वहां मुर्गे या किसी तरह की कोई चुनौती थी।

मैंने पहले ही संकेत दे दिया है कि मैं ऐसे उदाहरणों की मदद से क्या कहना चाहता हूं। लेकिन अगर आपको लगता है कि आप समझ नहीं पाए हैं तो जरा हमारे डरावने, अतिशय देशभक्त चैनलों से पूछिए जो हर शाम तीन-तीन घंटे तक देश के हर दुश्मन को अपनी जुबान से ही ध्वस्त करते हैं। फिर चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, विदेशी हो या देसी। अब जरा उन चीनियों पर विचार कीजिए जो डोकलाम में उसी तरह घुस आए हैं जिस तरह बाड़े में मुर्गे। हमारे जवानों ने उन पर ध्यान तक नहीं दिया। फर्क केवल यह है कि उन्होंने ऐसा किसी नए शत्रु के भय से नहीं किया। मेरे लिए यह कहना गुस्ताखी होगी वे आक्रांताओं से डर गए। बल्कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उनको यही सिखाया गया है। यही समस्या है।

चीनी सैनिक मुर्ग तो हैं नहीं सो वे इस पहेली पर विचार करते रहे और फिर नतीजे पर पहुंचे। वे शायद इस तार्किक नतीजे पर पहुंचे होंगे: भारतीय मीडिया का सबसे लड़ाकू हिस्सा जो हर शाम पाकिस्तान के खिलाफ जंग और उस पर जीत का ऐलान करते रहते हैं, वे ऐसा दिखा रहे हैं मानो चीन की चुनौती कोई चुनौती ही नहीं। जाहिर है उनको भारतीय सरकार ने ऐसा करने को कहा होगा। अगला निष्कर्ष यही कि भारत सरकार चीन से भयभीत है। आकार और क्षमता में छोटे पाकिस्तान को आड़े हाथ लेना आसान है लेकिन चीन जैसे बड़े और आक्रामक विरोधी से बचना बेहतर समझा गया। आखिरी निष्कर्ष न केवल हम पत्रकारों के लिए बल्कि देश के हितों के लिहाज से भी सबसे अधिक नुकसानदेह है। चीन यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि उनकी ही तरह भारत सरकार भी अपने मीडिया को नियंत्रित करती है और वह भी अपने मीडिया के माध्यम से अपनी बात कहने या न कहने का निर्णय लेती है। आखिरी बात, भारत सरकार में भी यह क्षमता है कि वह अपने मीडिया को अपनी मर्जी से पाक समेत किसी भी शत्रु से निपटने या शत्रुता समाप्त करने का निर्देश दे सके।

चीन की इस अवधारणा का सबसे कम असर पत्रकारों पर होगा लेकिन सबसे बुरा निष्कर्ष यह होगा कि भारत चीन से इतना अधिक डरा हुआ है कि उसने अपने मीडिया तक को कह दिया है कि वह चीन को लेकर टीका टिप्पणी न करे। इस बीच पाकिस्तान से लेकर हमारे अपने कश्मीरियों, मुस्लिमों, शशि थरूर, बोफोर्स एजेंटों आदि पर हमलों का सिलसिला निरंतर चल रहा है। चीनी आगे यह देखने के लिए उत्सुक रहे होंगे कि क्या इन चैनलों में से कोई डोकलाम विवाद को लेकर भी अपना गुस्सा जाहिर करेगा। या फिर वहां चुप्पी बनी रहेगी। मामला जल्दी ही दोबारा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और टैंक आदि पर केंद्रित हो जाएगा। मुझे नहीं पता कि चीन के लोगों में हास्यबोध है या नहीं और इन बातों पर हंसते भी हैं या नहीं। चाहे जो भी हो इन बातों से वे गलत आकलन कर सकते हैं कि भारत भीरू और कायर है।

अगर भारतीय मीडिया के इन रसूखदार और दबाव वाले धड़ों का आकलन अन्य चुनौतियों पर भी समान रूप से होता तो ऐसी राय नहीं बनती। खासतौर पर पाकिस्तान का लेकर। परंतु ऐसा नहीं है क्योंकि सरकार और सत्ताधारी दल के प्रवक्ता आए दिन इन स्टूडियो में बैठकर पाकिस्तान, कश्मीरियों और मुस्लिमों की आलोचना करते रहते हैं। ऐसे में चीन के यह नतीजा निकालने को कैसे नकारा जा सकता है कि भारत के पास विश्व शक्ति जैसी मानसिकता ही नहीं है। उसे लगता है कि भारत की मानसिकता छुटभैया किस्म की है जो अपने से कमजोर शत्रु को चुनकर ललकारता है। चीन की यह राय भारत के सामरिक उद्देश्यों और कद को क्षति पहुंचाता है।

अगर आपने चीन पर करीबी नजर रखी हो या आप अपने कॉलेज के क्रांतिकारी वर्षों में माओ के बारे में जानने के उत्सुक रहे हों तो आप लड़ाई और बात चीत को समांतर चलाने के सिद्घांत से परिचित होंगे। चीन ने अपने विदेशी संबंधों के मामले में दशकों से इस सिद्घांत को सफलतापूर्वक आजमाया है। इसमें उसके तथाकथित मीडिया की भी अहम भूमिका रही है। पीपुल्स डेली और शिन्हुआ के बाद अब ग्लोबल टाइम्स भी इसमें शामिल है। हर कोई जानता है कि चीन में आर्थिक सुधार के तीन दशक बाद भी उसकी सरकार अपने मीडिया के जरिये ही बात कहती है। यही वजह है कि आधुनिक इतिहास के जरिए हॉन्गकॉन्ग, पेइचिंग और दुनिया भर के अन्य अहम इलाकों में रहने वाले लोग इन प्रकाशनों पर नजर रखते हैं। चीन में जहां पूरा नियंत्रण सत्ता के हाथ है वहां बाहरी लोगों, पत्रकारों, कूटनयिकों से लेकर अकादमिक जगत के लोग और जासूसों तक के लिए यही इकलौता स्रोत है। अब उस चीनी मीडिया ने भारत पर ठीक उसी अंदाज में हल्ला बोला है जिस तरह हमारा मीडिया पाकिस्तान को आड़े हाथ लेता है।

चीन के लड़ाई के सिद्घांत का क्रियान्वयन उसका आधिकारिक मीडिया कर रहा है। हमारे स्वतंत्र माने जाने वाले मीडिया का एक बड़ा हिस्सा खामोश है और हमारी सरकार पूरे आशावादी तरीके से उसी सिद्घांत के बातचीत वाले हिस्से पर टिकी हुई है। चीन हमें ललकार रहा है कि हम लड़ें या पीछे हट जाएं। हम उसे जुबानी जवाब भी नहीं दे रहे हैं और कह रहे हैं कि बातचीत करना चाहते हैं। मेरा कहने का यह मतलब नहीं है कि भारत सरकार को अपने मीडिया से कहना चाहिए कि वह चीन के खिलाफ स्टूडियो से ही जंग की घोषणा कर दे। बल्कि यह तो अच्छा है कि सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया। सरकार मामले को कूटनयिक तरीके से हल करना चाह रही है जो सही है। लेकिन अगर सरकार ने चीन से जुड़े मूल विवादों पर भी ऐसी ही विचारशीलता दिखाई होती तो एक नए मोर्चे पर ऐसा करना सही भी लगता।

चीन लडऩा नहीं चाहता। उसे पता है कि ऐसा करने पर शर्मिंदगी उठानी पड़ सकती है क्योंकि अब मामला 1962 जैसा नहीं है। चीन को यह भी पता है कि जैसे ही वे हमले की शुरुआत करेंगे ऑस्ट्रेलिया से लेकर जापान तक और पश्चिम की तमाम चीन विरोधी ताकतें भारत के पक्ष में एकजुट हो जाएंगी। चीन ऐसा नहीं चाहेगा। चीन हमारे साथ कूटनयिक खेल खेल रहा है। वह मीडिया को भड़काने के उपाय के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। इसका जवाब स्टूडियो से नहीं दिया जा सकता लेकिन इसकी अनदेखी करने से चीन ऐसे नतीजे निकाल सकता है जो हमारे लिए नुकसानदेह हों। ऐसी स्थिति में डोकलाम में शांतिपूर्ण और आपसी सम्मान बरकरार रखने वाला हल निकालना भी मुश्किल होगा।