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Wednesday, November 6, 2024
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इंदिरा की राह पर मोदी सरकार

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नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का राज्य की शक्ति, राजनीतिक और आर्थिक अर्थव्यवस्था के प्रति क्या नजरिया है, इसे नोटबंदी की घटना से बखूबी समझा जा सकता है। मजेदार बात है कि हम यह चर्चा उस वक्त कर रहे हैं जब सन 1971 के युद्ध में जीत की 45वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। वह इंदिरा गांधी के राजनीतिक नेतृत्व का शीर्ष दौर था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और खुद नरेंद्र मोदी की पूरी राजनीति घोर नेहरू विरोध पर आधारित है। लेकिन वे इंदिरा गांधी की राजनीतिक अर्थव्यवस्था और उनकी शैली के प्रति न केवल सराहना का भाव रखते हैं बल्कि उसके अनुसरण की कोशिश भी करते हैं।

शुरुआत करते हैं सरकार के पसंदीदा अर्थशास्त्री प्रोफेसर जगदीश भगवती से। देर से ही सही नोटबंदी का बचाव करते हुए गत सप्ताह उन्होंने हमें यह याद दिलाया कि उन्होंने कई वर्षों तक कोलंबिया विश्वविद्यालय में संविधान पढ़ाया है और वह कह सकते हैं सरकार के नोटबंदी के निर्णय में कुछ भी गैरकानूनी नहीं है। उन्होंने बताया कि शुरुआती संविधान संशोधनों ने सरकार को यह अधिकार प्रदान कर दिया था कि वह समुचित जुर्माना देकर सामाजिक उद्देश्य से नागरिकों की संपत्ति जब्त कर सके। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा नहीं होता तो सर्वोच्च न्यायालय प्रिवी पर्स के खात्मे को रद्द कर देता।

हम यह नहीं कह रहे हैं कि अपनी संपत्ति गंवाने वाले राजघरानों को क्या हर्जाना मिला क्योंकि उसकी कोई प्रासांगिकता नहीं है। असल बात तो यह है कि देश के सर्वाधिक सुधार समर्थक माने जाने वाले अर्थशास्त्री एक समाजवादी सुधार का बचाव कर रहे हैं जिसने कांग्रेस शासन के अधीन गरीबों के पोषण के एक बुरे दौर की शुरुआत की, खासतौर पर इंदिरा गांधी के दौर का बचाव। वह यह सब राज्य सत्ता के एक ऐसे कदम की रक्षा में कर रहे हैं जिसने अर्थव्यवस्था को निराशा के भंवर में धकेल दिया। कम सरकार और अधिक प्रशासन का दम भरने वाला नेतृत्व भला इस कदर अपने अधिकारों का प्रयोग कहां करता है। यह एक बहुत बड़ा कदम है। यहां तक कि भारतीय सांख्यिकी संस्थान के संस्थापक और पहले योजना आयोग के अध्यक्ष पीसी महालनोबिस ने सोवियत संघ की शैली वाले आर्थिक नियोजन के दौर में भी इसकी कल्पना नहीं की होती।

इन बातों का न तो कोई व्यक्तिगत संदर्भ है और न ही प्रोफेसर भगवती से कोई लेनादेना है। भगवती और अर्मत्य सेन ने इस मसले पर एकदम विरोधाभासी विचार रखे हैं। अहम बात यह है कि एक प्रधानमंत्री जो आर्थिक सुधार और वृद्धि के वादे के साथ सत्ता में आए थे, उनके दौर में हमें इंदिरा गांधी की शैली, उनके तौर तरीके और वैसा ही त्रासद अर्थशास्त्र देखने को मिल रहा है जबकि उस प्रधानमंत्री ने पहले सुधारवादी कदम के रूप में योजना आयोग को खत्म किया।

सन 1971 के युद्ध में विजय को लेकर जो भी सरकारी आयोजन इस सप्ताह हुए, उनमें इंदिरा गांधी का खास उल्लेख नहीं किया गया। यह बात समझी जा सकती है लेकिन अगर आप नरेंद्र मोदी की राजनीति को खंगालें तो पाएंगे उनकी शैली इंदिरा जैसी ही है। उनके मन में इंदिरा गांधी के लिए सराहना का भाव भी है। संस्थानों को एकदम मामूली समझते हुए अपने तरीके से इस्तेमाल करना, आयकर में एक अत्यंत अहम संशोधन करना जिसके जरिए सबसे निचले स्तर पर कर अधिकारियों को मनमाने अधिकार मिल जाएं, ये ऐसे कदम हैं जो 25 साल के उदारवाद को नुकसान पहुंचा सकते हैं। यह काम बिना किसी चर्चा के लोकसभा में ध्वनि मत से किया गया। या फिर सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा सुझाए गए उच्च न्यायालय के न्यायधीशों के आधे से अधिक नामों को लौटाना, विपक्ष को सदन न चलने देने के लिए दोष देने के बाद सत्ता पक्ष की मदद से वही काम करना या कहें आरबीआई के गवर्नर का कद घटाकर वित्त मंत्रालय के किसी गुमनाम संयुक्त सचिव जैसा करना, एक कनिष्ठ मंत्री से अगले बजट में कर दरों और ब्याज दरों में कटौती की घोषणा करवाना कुछ ऐसे ही कदम हैं।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस सरकार के मजबूत समर्थकों और विचारकों के विचारों में भी यह बात झलकती है कि देश में अनुनय से कोई काम नहीं होता। सरकार को बदलाव लागू करना होता है तभी काम बनता है। प्रकिंयाओ और संस्थानों को लेकर एक किस्म का चौकन्नापन है। फिर चाहे वह कैबिनेट की शीर्ष समितियां हों या न्यायपालिका की। कागजी कार्रवाई को लेकर एक किस्म की चिढ़ है, हां मुद्रा को लेकर जरूर युद्ध स्तर पर अधिसूचनाएं जारी की गईं। व्यवस्था की तो जैसे कोई परवाह ही नहीं रह गई। इंदिरा गांधी ने भी अपने पिता और उनके अल्पकालिक उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री से सत्ता मिलने के बाद यही किया था। शायद सन 1967 के आम चुनाव में लगे झटकों के कारण ही उन्होंने व्यवस्था को नष्ट करना शुरू किया। उन्होंने अपनी कैबिनेट का आकार छोटा किया और पार्टी नेतृत्व में जी हजूरी करने वाले हावी हो गए। अन्य संस्थानों का कद भी कमजोर हुआ, न्यायपालिका और नौकरशाही से सामाजिक प्रतिबद्धता की चाह की गई और अतिराष्ट्रवाद, पश्चिम विरोध, विदेशियों की नापसंदगी, स्वदेशी, आयात में कमी पर गर्व और सबसे अहम कपटपूर्ण समाजवाद का उदय हुआ।

आरएसएस ने नेहरू की नीतियों और दर्शन के उलट कभी इन सिद्धांतों पर सवाल नहीं खड़ा किया। इंदिरा गांधी को लेकर उनकी प्रशस्ति इसलिए भी है क्योंकि सन 1969 से 1977 तक के उनके कार्यकाल में नेहरू की अधिकांश नैतिकता और उदारता को खत्म कर दिया गया था। इंदिरा ने नेहरू की विरासत खत्म करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने नागरिक अधिकारों को स्थगित किया और विरोधियों को जेल में डाला। नेहरू स्वप्न में भी ऐसा नहीं करते। मोदी-आरएसएस की भावना भी एक ऐसी सरकार की है जो जरूरत पडऩे पर डंडे का प्रयोग करे और मीडिया, नागरिक समाज, न्यायाधीशों, विशेषज्ञों आदि से विचलित न हो।

मोदी के पहले या अब भी भाजपा और आरएसएस इंदिरा गांधी की आलोचना केवल उनके राजनीतिक कदमों के लिए करते आए हैं न कि आर्थिक। सन 1977 में जब इंदिरा गांधी को हराकर जनता पार्टी की सरकार बनी तो उनके अधिकांश राजनीतिक कानूनों और कदमों को किनारे कर दिया गया लेकिन आर्थिक नीतियां बनी रहीं। किसी ने उनके छद्म समाजवादी विचार पर प्रश्न नहीं खड़ा किया। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने कार्यकाल के उत्तराद्र्ध में निजीकरण की शुरुआत की लेकिन उनको तत्काल आरएसएस के विरोध का सामना करना पड़ा। वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था अपनाने के मामले में भी यही हुआ। इन नीतियों के हिमायती ब्रजेश मिश्र को अमेरिका समर्थक बता दिया गया।

मोदी के उभार के साथ आशा की जा रही थी कि इंदिरा गांधी की आर्थिक नीतियों का अंत होगा। लेकिन आधा कार्यकाल होने तक यही लग रहा है कि वह नेहरू की उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष नीतियों के तो खिलाफ हैं लेकिन इंदिरा गांधी के तमाम खराब आर्थिक विचारों को मजबूत किया जा रहा है। इसमें बैंक राष्ट्रीयकरण से लेकर गरीबी विरोधी और लोकलुभावन योजनाएं शामिल हैं। एक बार फिर छापे मारते कर अधिकारियों, पुलिसकर्मियों, सीसीटीवी कैमरों का दौर लौट आया है। मोदी सरकार ने न केवल सरकारी उद्यमों के निजीकरण से इनकार किया है बल्कि उसने लंबे समय बाद असम के चाय बागानों के रूप में राष्ट्रीयकरण किया है। सरकार ने दो दर्जन उर्वरक संयंत्रों में जान फूंकने की बात भी कही है।

लेकिन इंदिरा शैली की राजनीति की अपनी समस्याएं हैं। इसमें संस्थागत संतुलन के प्रति धैर्य का अभाव है, नागरिकों पर अविश्वास की कमी और नौकरशाहों पर अतिरिक्त भरोसा है। बीते कुछ समय में अर्थशास्त्री कींस को कई बार उद्धृत किया गया। उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है, ‘नए विचारों के विकास में उतनी कठिनाई नहीं है जितनी कि पुराने विचारों से पीछा छुड़ाने में है।’ हम कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी की शैली की राजनीति, प्रशासन और अर्थव्यवस्था वापस आ गई है।

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